



रमणी-मानस: नारी शक्ति की श्रेष्ठता और पुरुष समाज की जिम्मेदारी
लेखक डॉ रेखा यादव असिस्टेंट प्रोफेसर
मनुष्य जाति की मानसिक उच्चता, महत्ता उसकी दया धर्म और दूसरे सद्गुणों पर जब हम विचार करते है तो हमें पुरुषों से स्त्रियों का स्थान कहीं ऊँचा नजर आता है। संस्कृति के निर्माण और विकास में यदि हम नारी को प्रकृति का दाहिना हाथ कहे, तो तनिक भी अत्युक्ति न होगी, परन्तु इसके विरुद्ध नर विघातक और संघाटक है अतः दोनों में कितना अन्तर है। प्राणिशास्त्रज्ञों ने भी कहा है कि जीवाणु के दो भेद होते है अणुलोम परिणामी और प्रतिलोम परिणामी। यह निर्माण क्रिया की तत्पर शक्ति है और यह विध्वंसकारी बल भी विध्वंस का काम वस्तु में प्रस्तुत हो जाने पर समाव है, इसी से कहना पड़ेगा कि नारी नर से पहले उत्पन्न हुई, नर नारी का अनुन्नत रुप है।
महिलाओं के साथ इतिहास में हुई घटनाओं को पढ़कर न्याय परायण सत्यशील व्यक्तिओं के हृदय कांप उठते है क्योंकि पुरुष ने स्त्री शक्ति के साथ लगातार अक्षमय अपराध किया है और वह अब भी ऐसा ही कर रहा है। पुरुषों ने स्त्रियों को क्रीडा का क्षेत्र, खेल तमाशो की चीज और अपनी चालबाजी का शिकार बनाया, इसलिए कि वे भोली है, उनमें दया अधिक है, वे प्रेम की मूर्ति है, वे संसार को बनाने वाली है, वे स्वयं भूखी रहकर दूसरों का पालन पोषण करती है। क्या यह कृतघ्नता नहीं है? अनीति नही है? क्या सम्भव है कि निसर्ग के साथ छल, दगा और चालबाजी करने वाला सुखी हो? जो देश सभ्मुनत होना चाहता है उसे उचित है कि वह देश की शक्ति की प्रतिष्ठा करें, पूजा करें उपासना करें। सम्राट नेपोलियन ने कहा था कि हमें पहले देश की नारियों को शिक्षित और उच्च बनाना होगा।
पाश्चात्य विद्वान कहते है कि समस्त मानव जाति के इतिहास से यह सिद्ध होता है कि पुरुषों ने स्त्रियों के साथ बहुत बुरे भेदभाव किए है। नीति, धर्म, कानून रीति-रिवाज, साहित्य और लोकमत में जहाँ देखे तहाँ पुरुषों की स्वार्थपरता और शरारत आखों के सामने नाचती नजर आती है। यदि पुरुषों का स्त्रियों के साथ अत्याचार न होता तो निस्सन्देह आज जगत् जितना समुन्नत है, उससे बीस गुना अधिक सम्भ, समुन्नत और विकसित होता। पुरुषों ने अज्ञानवश यह समझ लिया कि मनुष्य जाति के विकास का नर ही एक प्रधान कारण है। और नारी अंग का इस काम में कोई हाथ नही है। यहाँ तक कि मानों वह है ही नहीं, और यदि है भी तो पुरुषों की दासता के लिए, न कि बराबरी और सहकारिता के लिए। हमारे समाज की यह विडम्बना कहिए कि पुरुषों ने जन्मते ही असंख्य लड़कियों के गले घोट डाले, अगणित स्त्रियों को धर्म के नाम पर जला दिया। अगर कही माताएं भी जन्मते ही नारी विरोधी नर सन्तति का गला घोंट डाला करती और पुरुषों की बलात् स्वर्ग सुख भोगने के लिए भेजती रहती है तो आज हमारी क्या दशा होती? लेकिन मातृ शक्ति दयालु और बनाने वाली है, पुरुष बिगाड़ने वाला निर्दय और स्वार्थन्ध है। आज पुरुष अपनी बुद्धि, विद्या, न्यायपरता पर अभिमान करते है। अपनी भलाई का ढोल पीटते है उन्हे इतना भी ज्ञान नहीं कि इनमें जो कुछ सरलता और दया का भाव है वह नारी के कारण है और दया एवं धर्म की प्रतिमूर्ति है रुस के नवीन इतिहास ‘प्रवेस्का’ आदि अनेक देवियों ने जो काम किया उनके लिए रुस के पुरुषों को उनका चिर ऋणी रहना होगा लेकिन ये दोषिया पुरुषों की गुलामी से मुक्त थी। यह मातृ शक्ति की जाति-जागती ज्योति थी इसलिए इन्होने पुरुषों का पथ-प्रदर्शल किा। पर्दे के अन्दर की पुतलियाँ केवल घर में घुस बैठने की तथा कायरता ओर नीचता की ही शिक्षा दें सकती हैं, पर इसमें इनका दोष नहीं। इन्हे पुरुष ने जैसा बनाया वैसी ही वे बन गयी। स्त्रियाँ बुरी नही होती पुरुष इनके साथ बुराई करके इन्हे बुरा बनाते है और अपने कृत्य का दुष्परिणाम भोगते है। स्त्रियों की निर्बलता पर पुरुष हसते है। शायद पुरुषों को यह पता नही कि स्त्रियाँ प्रेम और जीवन की खान है। इनके हाथ बनाने के लिए है। बिगाड़ने के लिए नहीं। स्त्रियों में संयमशीलता होती है। स्वार्थ-त्याग, सहदता, सन्तोष और दया तथा प्रेम की शिक्षिका मानी जाती है। धर्म और नीति की जितनी गहरी छाप नारी-हृदय पर पड़ी है और पड़ती है, उतनी पुरुषों पर नहीं पड़ती है।
कर्तव्य परायणता का भाव, सरसता मानसिक वेग और प्रेरणा का प्राबल्य नारियों में अधिक विद्यमान है। कृपणता स्त्रियों में कुछ अधिक होती है उसका कारण यह है कि धन के सम्बन्ध में उन्हे अर्थोपार्जन का समय नहीं दिया जाता। इसलिए उन्हे सदैव धनाभाव रहता है यदि वे अर्थोपार्जन की स्वतन्त्रता पा जायें और अपनी इच्छा के इच्छा के अनुसार खर्चा कर के तो उनमें यह दोषनहीं रह सकता। फिर भी स्त्रियां अपनी कृपणत से जो थोड़ा या अर्थ संचय करती है उसे अवसर पड़ने पर बड़ी उदारता से अपने पति और पुत्रों को दे देती है इसलिए यह दोषारोपण भी निर्मूल है कायरता के सम्बन्ध में हम भी एक जगह कह चुके हैं और फिर बतला देना चाहते है कि जब हम नारियों को पशुओं के समान ताड़ना का अधिकारी समझते है और उन्हे सदैव अपने वश में रखना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में उनसे वीरता की आशा रखना ही मूर्खता है। वीरता उन्ही व्यक्तियों में होती है। जो स्वतन्त्र वातावरण में श्वांस लेते है। फिर भी स्त्रियों की वीरता और सहिष्णुता का साक्षी भारतवर्ष का इतिहास है।
प्रकृति ने नर और नारी में स्पष्ट रुप से भेद बनाये है। उनके सिवा मैं नही जानती की संसार में ऐसा कोई दूसरा काम है जो केवल पुरुष कर सकते है और नारियाँ नही कर सकती। दर्शन विज्ञान, सहित्य और रणकला आदि से भी स्त्रियाँ वैसी अच्छी बन सकती है जैसे पुरुष बन सकते है। यदि सब स्त्रियों बहादुर नहीं बन सकती तो सब पुरुष भी बहादुर नहीं होते अगर नारी दुर्गावती, लक्ष्मीबाई, जीजाबाई हो सकती है तो निश्चिय ही वे सुविधा स्वतन्त्रता और अनुकूल परिस्थिति पाने पर अपनी बड़ी बलवती सेना भी तैयार कर सकती है।
यदि स्त्रियों को प्रकृति को स्वतन्त्र काम करने का अवसर दिया जायेगा तो वे कभी भी वस्तु स्थिति के विपरीत न जायेगी। जब स्त्रियों के साथ संसारिक काम में उन्हे स्वाभाविक होड़ा-होड़ी से काम करना पड़ेगा तो वे स्वयं ऐसा काम अपने लिए चुनेगी जिसे वे अच्छी तरह कर सकती है। मनुष्यों को स्त्रियों की जरुरत है तो स्त्रियों को भी पुरुषों की जरुरत है। यदि जरुरत को समता न्याय और स्वतन्त्रता के साथ नर-नारी मिलकर पूरा करेंगे तो अच्छी गृहिणी और उत्तम माताओं का अभाव कभी नही होगा, न उत्तम अच्छा तरह कर सकता ह । मनुष्या का स्त्रिया का जरुरत हता स्त्रियों को भी पुरुषों की जरुरत है। यदि जरुरत को समता न्याय और स्वतन्त्रता के साथ नर-नारी मिलकर पूरा करेंगे तो अच्छी गृहिणी और उत्तम माताओं का अभाव कभी नही होगा, न उत्तम
गृहस्थ और सहृदय पिता की ही कभी रहेगी। स्त्री-पुरुष धर्म को एक सामाजिक नियम के अधीन होने की बहुत बड़ी जरुरत है जिस तरह शरीर की समुन्नति के लिए उसके अंगो के वृद्धि के साधन होते है, वैसे ही मस्तिष्क के भी। स्त्रियों को शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की उन्नति से रोकते है, नही तो रमणी-मानस-शक्ति, पुरुष मानस शक्ति से अनेक गुण श्रेष्ठ है स्त्रियों में जो त्रुटियाँ देखी जाती है, ये नैसर्गिक या स्वाभाविक नहीं, बल्कि बनावटी है, और इन सबके जिम्मेदार पुरुष हैं, न कि स्त्रियाँ।
डॉ० रेखा यादव