तुम्हारा पैगाम मुहब्बत है, जहां तक पहुंचे यही पैगाम दो
— भोपाल में होता देश का सबसे बड़ा तबलीगी इज्तिमा
— विवादों से भी रहा है तबलीग जमात का नाता
मध्यप्रदेश एक बार फिर देश-दुनिया में इज्तिमे का गवाह बनने जा रहा है। यहां हर साल की तरह ही इस साल भी 14 नवंबर से आलमी तबलीगी इज्तिमे का आयोजन हो रहा है जो चार दिनों तक चलेगा। मध्यप्रदेश की राजधानी और बेगमों के शहर भोपाल को अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब, सांस्कृतिक विरासत, नवाबी परंपरा, अपने अलहदा अंदाज, अपनी शान-ओ-शौकत के लिए जाना जाता है। यहां का बड़ा तालाब और एशिया की सबसे बड़ी मस्जिद ताजुल मसाजिद दुनिया भर में मशहूर है तो भोपाल में होने वाला आलमी तबलीगी इज्तिमा में दुनिया भर के मुसलमान जुटते हैं। ये सिर्फ मध्यप्रदेश ही नहीं, बल्कि एशिया और दुनिया के सबसे बड़े इस्लामी धार्मिक आयोजनों में से एक है। चार दिन के सालाना धार्मिक जलसे में देश दुनिया से हज़ारों जमातें और जायरीन यहां आते हैं। इज्तिमें का आगाज़ नमाज़ और कुरान की तिलावत से होता है। इसके बाद इसमें उलेमाओं की तकरीरें होती हैं, इज्तिमाई निकाह होते हैं और अमन चैन की दुआ के साथ इसका समापन होता है। भोपाल के ईंटखेड़ी स्थित घासीपुरा में करीब पांच सौ एकड़ में पूरा शहर ही बसा दिया जाता है। चार लोगों की पहल और फिर चौदह लोगों से शुरू हुए आलमी तब्लीगी इज्तिमे में अब दुनिया भर से जायरीन शिरकत करते हैं। खास बात ये भी है कि इज्तिमा अपने मजहबी स्वरूप में शुरू हुआ था और इसका मकसद भी दीनी था लेकिन अब इसके जरिए सामाजिक संदेश भी दिया जाने लगा है। इज्तिमे में होने वाले सामूहिक निकाह के जरिए शादियों में फिजूलखर्ची रोकने का संदेश दिया जाता है तो हर साल अलग अलग वैश्विक मुद्दों पर भी ध्यान आकर्षित किया जाता है। इससे पहले ग्रीन और क्लीन थीम के साथ पाॅलिथिनमुक्त इज्तिमे का आयोजन कर दुनिया को जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वॉर्मिंग का मैसेज दिया चुका है। साथ ही इज्तिमा में मांसाहारी खाना प्रतिबंधित किया गया था और सिर्फ शाकाहारी खाना ही परोसा गया था। इस संगठन से कई नामी चेहरे जुड़े रहे हैं जैसे पूर्व राष्ट्रपति जाकिर हुसैन, मौलाना तारिक जमील, पाकिस्तानी क्रिकेटर शाहिद अफरीदी और सईद अनवर शामिल हैं। तबलीगी जमात की कुछ किताबें हैं। फजाइल-ए-आमाल जिसका मतलब हुआ अच्छे कामों के फायदे या खासियतें। फजाइल-ए-सदाकत यानी सदका या दान देने के फायदे। दोनों किताबों के लेखक मौलाना मुहम्मद जकारिया हैं। मस्जिदों में इन किताबों को पढ़ा जाता है। नमाज के बाद कोई एक व्यक्ति इस किताब को पढ़ता है और बाकी जमाती इससे गौर से सुनते हैं।
तबलीगी, जमात, मरकज और इज्तिमा ये अलग-अलग हैं। तबलीगी का मतलब होता है, अल्लाह के संदेशों का प्रचार करना, जमात का मतलब लोगों का समूह और मरकज का अर्थ होता है सेंटर या केन्द्र। तब्लीगी जमात के लोग पूरी दुनिया में फैले हुए हैं। बड़े-बड़े शहरों में इनका एक सेंटर है जहां जमात के लोग जमा होते हैं, इसी सेंटर या केन्द्र को उर्दू में मरकज कहा जाता है। तबलीगी जमात से जुड़े लोग पारंपरिक इस्लाम को मानते हैं। भारत में इसका मुख्यालय या मरकज़ दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में स्थित है। जब भी तबलीग से जुड़े लोग भारत आते हैं तो वे एक बार इस मरकज में जरूर जाते हैं। पाकिस्तान के रायवंड में मदनी मस्जिद में तब्लीगी जमात का मरकज है। करांची की मक्की मस्जिद से भी जमातियों को अलग-अलग प्रांतों में भेजा जाता है। बांग्लादेश में भी जमात का बड़ा मरकज है। इसके अलावा दुनिया भर में इसके कई मरकज हैं। इन मरकजों का इस्तेमाल छात्रावास और तब्लीगी लोगों के आवास के रूप में होता है। इन मरकज़ों से ही जमातों को निर्देश दिए जाते हैं। तबलीग जमात को दुनिया का सबसे बड़ा गैरराजनीतिक संगठन माना जाता है। एक दावे के मुताबिक तबलीग जमात के दुनिया भर में 15-20 करोड़ सदस्य हैं। तबलीग जमात की मुहिम को भोपाल में बड़ा मुकाम मिला। देवबंदी विचारधारा से प्रभावित मुसलमानों ने मौलाना इलियास की मुहिम को आगे बढ़ाया। तब्लीगी जमात को अभियान बनाने में मोहम्मद इमरान खान और मौलाना याकूब बड़े पीर साहब की भी अहम भूमिका रही।
तब्लीगी जमात को सुन्नी इस्लामी धर्म प्रचार या धर्म सुधार आंदोलन के रूप में भी देखा जाता है। ये मुसलमानों को मूल इस्लामी परंपराओं की तरफ बुलाता है। तब्लीगी जमात का जन्म 1926-27 के दौरान भारत में हुआ था। मौलाना मोहम्मद इलियास ने इस काम की नींव रखी। मौलाना मुहम्मद इलियास ने मुसलमानों को इस्लामिक तौर तरीके समझाने का काम दिल्ली से सटे मेवात से शुरू किया। चंद लोगों से शुरू हुई ये मुहिम आज दुनिया भर में फैल चुकी है। सन 1950 से यह न सिर्फ भारत बल्कि विदेशों में भी तबलीग जमात ने अपनी पैठ जमाना शुरू कर दी। सन 1970 के दशक में गैर-मुस्लिम क्षेत्रों में भी जमात का काम फैल गया। तबलीगी जमात सऊदी वहाबियों और दक्षिण एशियाई देवबंदियों के बीच तक जा पहुंचा। बीसवीं शताब्दी के अंत में सबसे प्रभावशाली वहाबी धर्मगुरु अब्द अल-अजीज इब्न बाज ने तब्लीगीयों के अच्छे काम को मान्यता दी और वहाबी मुसलमानों को उनके साथ जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया। ऐसा भी कहा जाता है कि तब्लीगी जमात देवबंदी आंदोलन का ही एक हिस्सा हैं। दो दशकों में यह संगठन भारत के अलावा दुनिया के कई हिस्सों में फैल गया। इस जमात के मुख्य उद्देश्य छ उसूल क्रमशः कलमा, नमाज, इल्म, इक्राम-ए-मुस्लिम, इखलास-ए-नियत, दावत-ओ-तबलीग हैं। जहां तक देवबंद मुहिम का सवाल है तो देवबंद अभियान की शुरुआत 1866-67 में सहारनपुर जिले (संयुक्त प्रांत, अब उत्तर प्रदेश) में हाजी आबिद हुसैन, मोहम्मद कासिम नानौतवी और रशीद अहमद गंगोही ने की थी। इसका मकसद मुसलमानों के बीच कुरान और हदीस में बताई गई बातों, इस्लामिक प्रथाओं का प्रसार और ब्रिटिश उपनिवेशवाद का विरोध करना था। दारूल उलूम देवबंद को इस्लाम की सुन्नी शाखा (हनफी) का हिस्सा माना जाता है। इज्तिमे को लेकर ये भी कहा जाता है कि इसमें सिर्फ मुसलमान शामिल होते हैं। हालांकि, गैरमुसलमानों के इसमें प्रतिबंध जैसा कुछ नहीं होता। देश-विदेश में होने वाले इज्तिमों में से कई जगह अलग-अलग धर्मों के लोग भी शामिल होते हैं, वे इस्लाम को समझने के मकसद से इसमें आते हैं। भोपाल में आयोजित इज्तिमा में मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान भी शामिल हो चुके हैं। कुल मिलाकर, इज्तिमा खालिस मज़हबी जलसा होता है। यहां सियासत से जुड़ी बातें नहीं की जाती।
——– मौलाना इलियास से लेकर मौलाना साद तक
तबलीगी जमाअत का काम मौलाना इलियास ने सन 1926 में शुरू किया था। तब्लीगी जमात के संस्थापक मोहम्मद इलियास कांधलवी एक ऐसा अभियान चलाना चाहते थे, जो अल्लाह के फरमान और कुरान के अनुसार लोगों को नेकी की राह दिखाए और बुरे कामों से बचाए। मौलाना इलियास के शिक्षक रशीद अहमद गंगोही का भी यही ख्वाब था। बताया ये भी जाता है कि मौलाना इलियास को इसकी प्रेरणा सन 1926 में हज यात्रा के दौरान मिली। इसके बाद उन्होंने शुरू में मेवाती मुसलमानों को इस्लामी रीति रिवाजों और परंपराओं के बारे में बताया। मुहम्मद इलियास ने सहारनपुर के मदरसा मजाहिर उलूम में अपने शिक्षक पद को त्याग दिया और मुसलमानों को जागृत करने में लग गए। वह दिल्ली के पास निजामुद्दीन पहुंचे और सन 1926 में मेवात, दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में तबलीग का काम शुरू किया। सन 1944 में उनके इंतकाल के बाद उनके पुत्र मौलाना यूसुफ ने इसकी बागडोर संभाली। उन्होंने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया, जिससे तबलीगी जमाअतों का आना-जाना शुरू हो गया। सन 1965 में उनके इंतकाल के बाद मौलाना इनामुल हसन के कांधों पर इस काम की जवाबदेही आ गई। वर्ष 1995 में उनके इंतकाल के बाद से इस तबलीगी काम की जिम्मेदारी को मौलाना साद अंजाम दे रहे हैं। मौलाना साद कांधलवी जमात के संस्थापक के पोते हैं। समूह में एक शूरा परिषद भी है, जो मुख्य रूप से विभिन्न राष्ट्रीय इकाइयों और मुख्यालयों वाली एक सलाहकार परिषद है। यहां बता दें कि मोहम्मद इलियास का जन्म उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के कांधला गांव में हुआ था। सन 1303 हिजरी यानी 1885 में उनका जन्म हुआ था। कांधला गांव में जन्म होने की वजह से ही उनके नाम में कांधलवी जुड़ा हुआ है। उनके पिता मोहम्मद इस्माईल थे और माता का नाम सफिया था। एक स्थानीय मदरसे में उन्होंने कुरान के कुछ हिस्सों को कंठस्थ किया था। आपने अपने पिता के मार्गदर्शन में दिल्ली के निजामुद्दीन में कुरान को पूरा याद किया। उसके बाद अरबी और फारसी की किबातें पढ़ी। बाद में वह रशीद अहमद गंगोही के साथ रहने लगे। सन 1905 में रशीद गंगोही का इंतेकाल हो गया। सन 1908 में मोहम्मद इलियास ने दारुल उलूम में दाखिला लिया।
—- इज्तिमे का इतिहास हज़रत आदम से ज़माने से ……….
इज्तिमे का इतिहास कितना पुराना है इसको लेकर इस्लामिक विद्वानों में एक राय नहीं है। कुछ इसे मौलाना इलियास की पहल से जोड़ते हैं तो कुछ का कहना है कि ये तो हज़रत आदम के वक्त से होता आ रहा है। हजरत आदम ने अपने बेटे काबिल और हाबिल को शादी करने से पहले एक जगह जमा करके दीनी बातें बताई। उन्हें हक और नाहक समझाया, अल्लाह की इबादत करने, दुआ करने का तरीका बताया। इसके बाद दोनों बेटों ने अल्लाह की राह में तबर्रुकात पेश किए। हाबिल की दुआ कबूल हुई। कुछ इस्लामिक विद्वानों का मानना है कि सभी नबियों ने भी सफर या यात्रा करते हुए इस्लाम का प्रचार-प्रसार किया। आखरी नबी पैगंबर साहब के वक्त इस्लाम मुकम्मल हुआ। पैगंबर मोहम्मद साहब सअव भी हिजरत करते थे और तब्लीग के जरिए अल्लाह का संदेश लोगों तक पहुंचाते थे। हजरत इब्राहीम ने इराक से मिस्र, फिलिस्तीन फिर अरब आदि मुल्कों में जाकर तब्लीग के जरिए इस्लाम का प्रचार किया। हजरत इब्राहीम ने सारा से शादी की। आपके बाद सारा भी ईमान ले आईं। हजरत लूत आपके भतीजे है। आप इराक से हिजरत करके मिस्र गए, वहाँ हाजरा आपके साथ शामिल हो गई। हजरत इब्राहीम,हजरत लूत, सारा और हाजरा के बाद ईमान वालों का काफिला बढ़ता गया। इन्होंने फिलिस्तीन जाकर आप इज्तिमा किया और लोग जुड़ने लगे। हज़तर इब्राहिम ने अल्लाह से दुआ की जो कुबूल हुई। हजरत इब्राहीम ने तब्लीग और इज्तिमे के जरिए अल्लाह का संदेश फैलाया और यही वजह है कि आपको हबीबुल्लाह भी कहा जाता है यानि अल्लाह का हबीब या दोस्त। हबीबुल्लाह हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को मुसलमानों के अलावा ईसाई और यहूदी भी अपना नबी मानते है। अल्लाह के रसूल ने भी कई मर्तबा तब्लीग की। नबूवत के बाद आपने ताईफ शहर का सफर किया। इसके बाद अराफात के मैदान में दस हिजरी में पैगंबर मोहम्मद साहब ने इज्तिमा किया। अपने आखरी खुत्बे में फतेह मक्का के मौके पर इज्तिमा करके मक्का वालों की तब्लीग की। नबी साहब ने यहां तकरीर की, दीनी बातें बताई और अल्लाह से दुआ की। इस इज्तिमे में सवा लाख मुसलमान जमा थे। जो लोग इज्तिमे को सदियों पुराना या हजरत आदम के ज़माने का मानते हैं वो हज की मिसाल देते हैं। उनका तर्क है कि हज के दौरान हाजी अराफात के मैदान में इकट्ठा होते हैं। साथ में नमाज के बाद इज्तिमाई दुआ की जाती है। दुनिया के हर कोने से लोग हज करने पहुंचते हैं। हजरत इब्राहिम अलैह. के जमाने से लेकर आज तक अराफात के मैदान में इज्तिमा हो रहा है। इसके अलावा हजरत अब्दुल्लाह शाह गाजी, शाह चंगाल धार, मदार शाह मकनपुर या ख्वाजा गरीब नवाज और फिर और कोई सूफी संत हो इन सभी ने देश-दुनिया में सफर तय करके दीनी तब्लीग की। हालांकि, मुसलमानों का ही दिगर तबका इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता। उनका मानना है कि नबी साहब या हज के मजमे को तबलीग से जोड़ना ठीक नहीं है।
—– भारत, पाकिस्तान ओर बांग्लादेश में में होता है इज्तिमा का आयोजन
दुनिया के सबसे बड़े तीन आलमी तबलीगी इज्तिमें इन 3 मुल्कों में होते हैं। इनमें पहला भारत, दूसरा पाकिस्तान और तीसरा बांग्लादेश है। धीरे-धीरे कर तबलीगी जमाअत की ये मुहिम दुनिया के दिगर देशों में भी फैलते गई। पाकिस्तान में लाहौर के करीब रायविंड में सालाना इज्तिमे का आयोजन होता है। इसमें दुनिया भर के तब्लीगी जमात से जुड़े करीब 5 से 7 लाख लोग शामिल होते हैं। बांग्लादेश के कई अलग-अलग शहरों में कई दिनों तक इज्तिमा जारी रहता है। बांग्लादेश के टोंगी में होने वाला इज्तेमा सबसे बड़ा माना जाता है। यहां दुनियाभर के 4 से 5 करोड़ लोग पहुंचते हैं। हिन्दुस्तान में आलमी (विश्वस्तरीय) तौर पर इज्तिमा सिर्फ भोपाल में ही होता है। भारत के दिल कहे जाने वाले भोपाल में हर साल होने वाले इज्तिमा में दुनियाभर जायरीन आते हैं। यहां करीब 10 से 14 लाख लोग शिरकत करते हैं। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में होने वाले इज्तिमा को दुनिया के पांच बड़े इस्लामिक आयोजनों में से एक, दुनिया में सबसे बड़ा और सबसे पुराना माना जाता है। हिंदुस्तान में भोपाल के अलावा ये बुलन्दशहर, दिल्ली, हल्द्वानी, लाखोटा, चेन्नई, कोलकाता, मुंबई, पुणे, अहमदाबाद, हैदराबाद, बेंगलुरु, कोयंबटूर, सूरत, राजकोट, कालीकट, तिरुवनंतपुरम, नागपुर, गया, ग्वालियर, मुजफ्फरपुर, नासिक में भी इज्तिमें का आयोजन किया जाता है लेकिन यहां जायरीनों की तादाद इतनी ज्यादा नहीं होती जितनी की भोपाल में। औरंगाबाद और यूपी के संभल में इसी तरह के प्रोग्राम का आयोजन हो चुका है। इस्लामी संगठन तब्लीगी जमात अपने अनुयायियों, समर्थक मुसलमानों के सहयोग से इज्तिमा आयोजित करता है।
—– आखिर होता क्या है इज्तिमें में …………….
अरबी लफ्ज इज्तिमा के मायने है इकठ्ठा होना। तब्लीगी इज्तिमा एक तरह का मजहबी जलसा है। ये इज्तिमा जिला, प्रदेश-देश और अंतरराष्ट्रीय स्तर के हो सकते हैं। आलमी तब्लीगी इज्तिमा का शाब्दिक अर्थ विश्वस्तरीय धार्मिक सम्मेलन होता है। एक खास जगह पर इकट्ठा होकर इबादत करना, अमनो-चैन का पैगाम देना और खैरो-बरकत की दुआ करना, दीन के बताए रास्ते परचलना, सभी मजहबों का सम्मान करना, गुनाहों की माफी माँगना और दीनी बातें करना इज्तिमा का हिस्सा है। इज्तिमें में इस्लामिक तौर-तरीके सीखने और सिखाने वाले दोनों ही पहुंचते हैं। दुनिया भर से पहुंचने वाले उलेमा तकरीर, बयानों के जरिए कुरान में बताए गए तरीकों से जिंदगी गुजारने का सलीका बताते हैं। इस्लामिक विद्वानों का मानना है कि इज्तिमा सदियों पुरानी परंपरा है। ये सिलसिला हजरत आदम के जमाने से चलन में है। कुरान पाक की तिलावत, हर किसी के लिए नेक ख्यालात, नमाज की पाबंदी और पैगंबर हजरत मुहम्मद सअस के अखलाक, आर्दशों और उनके दिखाए रास्तों पर चलकर दुनिया के साथ ही आख़िरत में कामयाबी हासिल करना इन्हीं तरह की मंशाओं के साथ इज्तिमा में संदेश दिया जाता है। इज्तिमें या मजहबी जलसे की ये खासियत होती है कि यहां लाखों मुसलमान जमा होते हैं, दुनियावी भीड़ की तरह लेकिन उन्हें दुनिया की बातों से कोई सरोकार नहीं होता। दुनिया में रहकर दीन की बातें करना ही इज्तिमें का मूल मकसद है। इज्तिमे में उलेमा बताते हैं कि दीन के रास्ते पर बेहरतर ढंग से कैसे चला जा सकता है। इज्तिमें के दौरान तकरीर, बयान, नमाज और सामूहिक निकाह होते हैं। दुनिया भर में अमनो-चैन, सुख-समृद्धि, देश की तरक्की, सामाजिक सद्भाव की दुआ के साथ इज्तिमें का समापन होता है। इज्तिमे में शामिल होने वाले जायरीनों की आमद से लेकर उनके ठहरने, भोजन, नमाज और रवानगी तक सारी व्यवस्थाओं का माकूल इंतजाम होता है। इज्तिमे में एलोपेथी दवाखाने के साथ ही आयुर्वेद और यूनानी दवाखानों यहां तक की बाइक एंबुलेंस सेवा की व्यवस्था भी की जाती है। मोटरसाइकिल पर स्ट्रेचर और फर्स्ट एड बॉक्स लगाए जाते हैं। बीमार लोगों को इमरजेंसी में इज्तिमा पंडालों से एंबुलेंस तक पहुंचाने के लिए बाइक एंबुलेंस की पहल की गई है। इज्तिमा स्थल पर आने वाली जमातों के लिए तंबू लगाए जाते हैं। वाहनों की पार्किंग के लिए अलग से इंतेजाम होता है। भोपाल में होने वाला इज्तिमा हमेशा से गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल रहा है। यहां हिंदू और मुसलमान दोनों समुदाय के लोग जायरीरों की खिदमत करते हैं।
———– क्यूं पड़ी जरूरत …………
तबलीग जमात की स्थापना की जरूरत क्यूं पड़ी इसके पीछे कुछेक वजह बताई जातीं हैं। तबलीग जमात की शुरूआत मुसलमानों को अपने मजहब से जोड़े रखने और पारंपरिक इस्लाम के प्रचार के लिए की गई। कुछ जानकारों का कहना है कि मिशनरी के प्रभाव और मुसलमानों के मिशनरी से जुड़ने के कारण तबलीग की नींव पड़ी। हरियाणा के मंेवात इलाके में मुसलमानों की बड़ी आबादी थी। 20वीं सदी में इस इलाके में मिशनरी में काम शुरू किया। तब बहुत से मेव मुसलमानों ने मिशनरी के काम से प्रभावित होकर इस्लाम छोड़ दिया। यहीं से इलियास कांधलवी को मेवाती मुसलमानों के बीच जाकर इस्लाम को मजबूत करने का ख्याल आया। उस समय तक वह सहारनपुर के मदरसा मजाहिरुल उलूम में पढ़ा रहे थे। वहां से पढ़ाना छोड़ दिया और मेव मुस्लिमों के बीच काम शुरू कर दिया। सन 1927 में तब्लीगी जमात की स्थापना की ताकि गांव-गांव जाकर लोगों के बीच इस्लाम की शिक्षा का प्रचार प्रसार किया जाए। दूसरी वजह, आर्य समाज के घर वापसी अभियान को बताया जाता है। एक दशक से भी अधिक समय से पहले नवंबर 1922 में तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा ने सुल्तान खलीफा महमद षष्ठ को हटा कर अब्दुल मजीद आफंदी को खलीफा बनाया। साथ ही उसके सारे राजनीतिक अधिकार खत्म कर दिए गए। तब मोहम्मद अली जिन्ना और गांधीजी की खिलाफत कमेटी ने सन 1924 में विरोध प्रदर्शन के लिए एक प्रतिनिधिमंडल तुर्की भेजा। मुस्तफा कमाल ने इस प्रतिनिधि मंडल की अनदेखी की और मार्च 1924 को उन्होंने खलीफा का पद खत्म कर दिया। मुगल काल में कई लोगों ने इस्लाम कबूल कर लिया था लेकिन बाद में ये लोग वापस अपने पुराने धर्म में लौट रहे थे। ब्रिटिश काल के दौरान आर्य समाज की ओर से घर वापसी अभियान चलाया गया यानि जिन लोगों ने इस्लाम कुबूल कर लिया था उन्हें वापस हिन्दू बनाया जाने लगा। तब, मुसलमानों को अपने मजहब में बनाए रखने और उन्हें दीनी तालीम देने के मकसद से मौलाना इलियास कांधलवी ने इस्लाम की शिक्षा देने का काम शुरू किया। हरियाणा के नूंह से मौलाना इलियास ने इस काम की शुरुआत की थी। ये एक तरह का धार्मिक सुधार आंदोलन था जिसे अब तब्लीगी जमात के नाम से जाना जाता है। तबलीग जमात की मुहिम के तहत इससे जुड़े लोग या प्रचारक जगह-जगह इकट्ठा होकर इज्तिमा करने लगे। नमाज के साथ दुआ और दीन की बातें सिखाई जाने लगी। मुलसमानों को नबी साहब की जिन्दगी के बारे बताया जाने लगा। इस सब का असर ये हुआ कि लोगों का इस्लाम में अकीदा बना रहा।
——– 14 लोगों से हुई थी इज्तिमा की शुरुआत
देश के सबसे बड़े इज्तिमे की शुरूआत सिर्फ 13 लोगों से हुई थी। भोपाल में शुरु हुए आलमी तबलीगी इज्तिमें को आज दुनिया भर में जाना-पहचाना जाता है। भोपाल में इज्तिमा की शुरुआत सन 1944 में भोपाल से हुई थी। सबसे पहले इसका आयोजन मस्जिद शकूर खाँ में हुआ था। अब इस इज्तिमें में दुनिया भर से 14 लाख जायरीन शिरकत करते हैं। तब्लीग के जरिए अल्लाह का संदेश, कुरान में दी गईं हिदायतें और ईमान का संदेश मुसलमानों को पहुंचाने की शुरुआत मौलाना मिस्कीन ने भोपाल की पुरानी मस्जिदों में से एक मस्जिद शकूर खां से की थी। कौम को कुरान और इस्लाम की हिदायतों की जानकारी, नबी साहब के बताए रास्ते पर चलने, इमान का संदेश देने की मंशा से भोपाल के घाटी भड़भूजा इलाके में इज्तिमा की शुरूआत की गई। साल 1948 में अता शुजा खां की मस्जिद में इज्तिमा का आयोजन होने लगा। नवाबों के शहर भोपाल में स्थित और एशिया की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक ताजुल मसाजिद से आलमी तब्लीगी इज्तिमा की शुरुआत साल 1949 के बाद हुई थी। मौलाना इमरान खान ने सन 1901 में शाहजहां बेगम की मौत के बाद से अधूरी पड़ी ताजुल मस्जिद का पुर्ननिर्माण शुरू कराया और 1949-1950 से इज्तिमा ताजुल मस्जिद में होने लगा। तब इज्तिमा की जिम्मेदारी मौलाना इमरान खां साहब और बड़े सईद मियां के पास रही। सन 1955 तक इज्तिमे में मध्यप्रदेश के अलावा महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, गुजरात सहित कुछ अन्य प्रदेशों के जायरीन ही यहां पहुंचते थे। सन 1956 से इज्तिमें देश भर से जमातें आने लगी और ये राष्ट्रीय स्तर का हो गया। सन 1971 से इसका स्वरूप अंतर्राष्ट्रीय हो गया। दुनिया भर से मुस्लिम समाज के लोग इज्तिमा में शामिल होने यहां आने लगे। कुछ जानकारों के अनुसार सन 1971 से इसका आयोजन ताजुल मसाजिद में होने लगा। वक्त गुजरने के साथ इसमें आने वालों की संख्या भी बढ़ने लगी और दूसरे देशों के जायरीन भी इज्तिमें में शिरकत करने लगे। जब एशिया की सबसे बड़ी मस्जिद यानि ताजुल मसाजिद भी छोटी पड़ने लगी तो सन 2015 में इसे बैरसिया रोड स्थित ईंटखेड़ी के पास घासीपुरा में शिफ्ट किया गया। उसके बाद से ये यहीं लग रहा है। पिछले कुछ सालों से इज्तिमा प्रबंधन की जिम्मेदारी मौलवी मिस्बाह उद्दीन, इकबाल हफीज आदि बुजुर्गों के कांधों पर रही। इस आयोजन के लिए भोपाल में दो माह पहले से तैयारियां शुरू हो जाती हैं। इज्तिमे में शामिल होने वाली जमातों की बुनियादी जरूरत पूरा करने के लिए हर इंतजाम किए जाते हैं।
इज्तिमें से जुड़े लोग बताते हैं कि उस समय 13 लोगों में से कुछ लोगों ने कहा था कि हम सिर्फ 13 ही लोग तो हैं। ये आयोजन करने के लिए शहर की कोई भी छोटी मस्जिद चुन सकते थे। इतने कम लोगों के लिए इतनी बड़ी मस्जिद चुनना ठीक नहीं। इस पर जमात के अध्यक्ष ने जवाब कहा था कि आज इस मस्जिद को इतना बड़ा माना जा रहा है, लेकिन एक समय ऐसा आएगा जब एशिया की सबसे बड़ी मस्जिद मानी जाने वाली ताज-उल-मसाजिद भी छोटी पड़ जाएगी। जमात के मीर या अध्यक्ष की ये बात करीब पांच दशक बाद सहीं साबित हुई। इज्तिमे की शुरुआत एक छोटी मस्जिद से हुई और बाद में एशिया की सबसे बड़ी मस्जिदों में शुमार ताजुल मसाजिद भी छोटी पड़ने लगी। आखिरकार इज्तिमें का आयोजन शहर से बाहर ईंट खेड़ी में करना पड़ा।
—– इन देशों से पहुंचती हैं जमातें
आलमी तब्लीगी इज्तिमे में दुनिया भर से जायरीन आते हैं। इनमें रूस, फ्रांस, इंडोनेशिया, मलेशिया, जाम्बिया, दक्षिण अफ्रीका, कीनिया, इराक, सऊदी अरब, इथियोपिया, यमन, सोमालिया, थाईलैंड, तुर्की, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार, मोरक्को, किर्गिस्तान, जर्मनी, सूडान, मिस्र, ट्यूनीशिया, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर, संयुक्त राज्य अमेरिका, सेनेगल, यूनाइटेड किंगडम आदि शामिल हैं। हालांकि, कभी कभी भारत के अन्य देशों के साथ राजनीतिक संबंधों पर भी जायरीनों की आमद निर्भर करती है। जैसे, भोपाल में हुए इज्तिमें में पाकिस्तान के लोगों को शामिल होने की परमिशन नहीं थी।
—- इंदौर के खजराना में भी हुआ है इज्तिमा
करीब दो दशक पहले मध्यप्रदेश के इंदौर के खजराना स्थित नाहर शाह वली दरगाह के मैदान में भी इज्तिमा की शुरुआत हुई थी। बाद में रुक-रुक कर ये सिलसिला चला फिर थम गया। हालांकि, ये इज्तिमा नाहरशाह दरगाह की जानिब से था।
बहरहाल, कभी कोरोना काल में कानून तोड़ने तो कभी आतंक फैलाने या चरमपंथियों को पनाह देने के आरोप तबलीग जमात पर लगते रहे हैं। सऊदी अरब ने तो तबलीगी जमात पर प्रतिबंध भी लगा दिया था। पाकिस्तान में भी कुछ चरमपंथी घटनाओं के पीछे तबलीगी लोगों के शामिल होने के मामले सामने आ चुके हैं। भारत में भी ये जमात सरकार के निशाने पर रह चुकी है। कुछ सालों में पहले तबलीगी जमात में गुटबाजी भी उभरकर सामने आई थी। बावजूद इन सबके तबलीग जमात अपना काम खामोशी से कर रही है।
संकलन एवं आलेख
-मुस्ताअली बोहरा
अधिवक्ता एवं लेखक
भोपाल










