पत्नियां सावधान रहें ?- हाईकोर्ट का फैसला – बुज़ुर्ग सास-ससुर के साथ दुर्व्यवहार,झगड़ा- विवाद या उपेक्षा करना मानसिक क्रूरता माना जाएगा,जो तलाक का आधार बन सकता है।
हिन्दू मैरिज एक्ट,1955 की धारा 13(1)(ia) में अब बुज़ुर्ग सास-ससुर के साथ दुर्व्यवहार, झगड़ा-विवाद या उपेक्षा करना मानसिक क्रूरता माना जाएगा
पत्नी द्वारा पति के वृद्ध माता- पिता के प्रति संवेदनशीलता नहीं दिखाना,उनकी स्वास्थ्य-स्थिति की जानकारी में उदासीनता, उत्तरदायित्व की अनदेखी, ये विवाह संबंधी क्रूरता के रूप में स्वीकार करना शानदार फैसला – एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र
गोंदिया – वैश्विक स्तरपर भारत आदि अनादि क़ाल से संयुक्त परिवारों में बना-बसा रहा है, जबकि विदेशों में यह प्रथा बहुत कम देखने को मिलती है? इस प्रश्न का उत्तर सिर्फ सामाजिक- आर्थिक कारणों तक सीमित नहीं है,बल्कि इसमें ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा वैधानिक घटक सम्मिलित हैं।भारत में पारंपरिक रूप से कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था रही है, जहाँ जमीन-सम्पत्ति, श्रम, उपजी तथा आय परिवार-स्तर पर साझा होती थी। एक बड़े घर-परिवार (पिता-दादा-सास-ससुर-भाई-बहन- पति -पत्नी-बच्चे) से संसाधन-वितरण, काम-वितरण और सुरक्षा-नेटवर्क (जोड़-तोड़ व आर्थिक संकट में सहायता) अधिक सुगम होता था। इसके परिणामस्वरूप, ‘संयुक्त परिवार’ सामाजिक रूप से गढ़ा गया। मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र यह मानता हूं कि इसके अतिरिक्त, हिन्दू परम्पराओं में पिता-दादा का पारिवारिक प्रधान होना  वंश- परम्परा की निरंतरता, संपत्ति- विरासत का साझा स्वभाव, तथा वृद्धों- का परिवार में सम्मान व देखभाल का सामाजिक मान-दंड रहा है। इसके विपरीत अनेक पश्चिमी देशों में  ऐसे में संयुक्त परिवार-प्रथा बहुत कम विकसित हुई। लेकिन यह प्रथा आज भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं है, आधुनिक जीवनशैली, आर्थिक-स्वतंत्रता, शहरीकरण, अलग रहने की प्रवृत्ति तथा सामाजिक अपेक्षाएँ बदल रही हैं। इसलिए, आज ‘संयुक्त परिवार’ का आधार कमजोर होते हुए दिख रहा है, और इस परिवर्तन-प्रक्रिया का प्रभाव विवाह-परिवार-वृद्ध देखभाल संबंधी कानूनो नियामक आयामों पर भी पड़ रहा है। आज हम इस विषय पर चर्चा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने एक फैसला दिया है क़ि, हिन्दू मैरिज एक्ट,1955 की धारा 13(1)(ia) में “ऐसा व्यवहार कि पति या पत्नी के मानसिक स्वास्थ्य  स्वाभिमान या अस्तित्व पर ऐसा प्रभाव पड़ता हो कि विवाह चलना असंभव या अस्वीकार्य हो जाए” जैसे गुण- दोष हैं। इस प्रकार में, यदि पत्नी अपने सास-ससुर की देखभाल नहीं करती, उनके प्रति उपेक्षित व्यवहार करती है, उनकी स्वास्थ्य – स्थिति की जानकारी में उदासीनता, उत्तरदायित्व की अनदेखी ,विवाद उत्पन्न करती है, या अपमानजनक तथा निंदनीय भाषा-व्यवहार करती है,तो यह “मानसिक क्रूरता” के अंतर्गत आता है। यानें अब बुज़ुर्ग सास-ससुर के साथ दुर्व्यवहार, झगड़ा-विवाद या उपेक्षा करना मानसिक क्रूरता माना जाता है, जो तलाक का आधार बन सकता है। यह प्रत्यक्ष रूप से उन नीतियों-विधियों एवं क़ानूनों से जुड़ा है जो विवाह-संबंधों में “मानसिक क्रूरता” (मेन्टल
क्रूएल्टी) को एक मान्य तलाक- कारण के रूप में स्वीकार करते हैं।
साथियों बात अगर हम दिल्ली हाई कोर्ट के केस नंबर एमएटी एपीपी 8/2022 पर दिनांक 19 सितंबर 2025 को माननीय दो जजों की बेंच ने 28 पुष्टों में दिए जजमेंट की करें तो दिल्ली हाई कोर्ट ने पारिवारिक अदालत के उस आदेश के खिलाफ पत्नी की अपील को खारिज कर दिया, जिसमें ‘क्रूरता’ के आधार पर पति नें तलाक दिया गया था। पति- पत्नी की शादी मार्च 1990 में हुई थी और 1997 में उनका एक बेटा हुआ। पति के आरोप हैं कि बीवी संयुक्त परिवार में रहने को तैयार नहीं थी। बिना अनुमति के अक्सर वैवाहिक घर छोड़ देती थी और 2008 से वैवाहिक संबंधों से दूर हो गई थी। यही नहीं,पति और उसके परिवार पर संपत्ति अपने नाम ट्रांसफर करने का दबाव डालती थी।जब पति ने 2009 में तलाक मांगा,तो पत्नी ने उनके खिलाफ कई आपराधिक मामले दर्ज करा दिए। पारिवारिक अदालत ने तलाक इस आधार पर दिया था कि पत्नी का लंबे समय तक साथ रहने से इनकार करना और बदले की भावना से झूठी शिकायतें (एफआईआर) दर्ज कराना मानसिक क्रूरता है। अपील में पत्नी का तर्क था कि निचली अदालत ने उन सबूतों पर भरोसा किया जो कागजात में नहीं थे और दहेज उत्पीड़न तथा दुर्व्यवहार के उसके आरोपों को नजरअंदाज किया।उसने दावा किया कि उसकी आपराधिक शिकायतें सच्ची थीं,बदले की भावना से नहीं की गई थीं। दिल्ली हाई कोर्ट को पत्नी के दावों में कोई दम नहीं लगा। कोर्ट ने फैसला सुनाया कि लंबे समय तक वैवाहिक संबंध से इनकार और सास ससुर और पति को  बार-बार परेशान करने वाले काम हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत मानसिक क्रूरता हैं।यदि पत्नी पति तथा सास-ससुर के बीच झगड़ा कराती है, उनके- उनके प्रति ध्यान नहीं देती, उपेक्षा करती है,अपमानजनक या निंदनीय आरोप लगाती है, मार-पीट करती है या अपमान जनक भाषा का प्रयोग करती है,तो वह व्यवहार मानसिक क्रूरता माना जाएगा। कोर्ट ने कहा कि “संपूर्ण हिन्दू संयुक्त परिवार” में माता-पिता एक अभिन्न अंग होते हैं, तथा जीवनसाथी द्वारा उनके प्रति उदासीनता या बेरुखी दिखाना विवाह-विवाद के संदर्भ में ‘क्रूरता’ के दायरे को और बढ़ा देता है।
साथियों बात अगर हम इस महत्वपूर्ण जजमेंट क़े सामाजिक – वैधानिक विश्लेषण को समझने की करें तो,इस निर्णय का दोनों- आयामों में महत्त्व है। पहले सामाजिक पक्ष: भारत में जहां संयुक्त- परिवार-प्रथा आम है, वहाँ वृद्धों की देखभाल और परिवार- सदस्यों द्वारा उनका सम्मान व उत्तरदायित्व निभाना अपेक्षित रहा है।यदि जीवनसाथी इस दायित्व को स्वीकार नहीं करता, तो एक सामाजिक- नैतिकअपेक्षा टल जाती है और पारिवारिक संतुलन बिगड़ता है। साथ ही, जब सास-ससुर जैसी वृद्ध- पदस्थ व्यक्तियों के प्रति उदासीनता हो,तो यह सिर्फ घरेलू अनुकूलता का प्रश्न नहीं बल्कि पारिवारिक संरचना पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है। इन बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए, कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि वृद्ध माता-पिता परिवार के “अभिन्न अंग” हैं, केवल सह-निवासी नहीं।इस तरह इस निर्णय ने एक तरह से यह संदेश दिया है कि विवाह सिर्फ पति-पत्नी का संबंध नहीं है, बल्कि उस संबंध में (विशेषकर हिन्दू-परिप्रेक्ष्य में) ससुराल-परिवार, माता-पिता, संयुक्त-परिवार-सदस्यों के प्रति जिम्मेदारियाँ भी सम्मिलित हैं। यदि जीवनसाथी उन जिम्मेदारियों को निभाने में नाकाम रहे,तो उस व्यवहार को कानूनी रूप से क्रूरता माना जा सकता है।
साथियों बात अगर हम इस जजमेंट को अन्तर्राष्ट्रीयदृष्टिकोण से देखें, तो विवाह-दोस्त- परिवार -संरचना-के संबंध में पश्चिमी देशों और भारत के बीच अंतर पाया जाता है।जैसे कि संयुक्त- परिवार-प्रथा पश्चिमी देशों में इतनी प्रचलित नहीं है,इसलिए वहाँ “सास-ससुर देखभाल या “संयुक्त-वृद्ध-पदस्थ सदस्य- सदस्यता” जैसी अपेक्षाएँ इतनी ज़ोर से सामाजिक रूप से नहीं पाई जातीं। परिणामस्वरूप, वहाँ विवाह-क्रूरता के मामलों में प्रमुखत: अपेक्षित-देखभाल -उपेक्षा- वृद्ध-सदस्यों-की उपेक्षा जैसे तर्क कम-मिलते हैं।भारत में इस तरह की सामाजिक- पारिवारिक संरचना रहने के कारण, उपरोक्त निर्णय में वृद्ध-ससुराल-देखभाल-उपेक्षा-का आयाम विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है।इस दृष्टि से,भारत-जैसी संरचनाओं वाले समाजों में इस तरह का कानूनी निर्णय विशेष प्रेरणा देता है,कि पारिवारिक जिम्मेदारियों को सिर्फ सामाजिक -मानदंड नहीं, बल्कि कानूनी-अनिवार्यता के रूप में देखा जा सकता है।
अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे क़ि, भारत में ‘संयुक्त- परिवार’ का गढ़ना उस सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का परिणाम है जहाँ वृद्ध-सदस्यों के कार्य, वस्तु व सम्मान-संबंधी पारिवारिक दायित्वों का सांस्कृतिक आधार रहाहै।आज जब आधुनिक जीवनशैली -शहरीकरण-स्वतंत्रता जैसी प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं, तो इन पारंपरिक संरचनाओं में तनाव उत्पन्न हो रहा है। ऐसे समय में दिल्ली हाई कोर्ट का ताज़ा निर्णय,जिसमें सास-ससुर के प्रति उपेक्षा-उदासीनता को ‘मानसिक क्रूरता’मानकर तलाक-का आधार बताया जानासामाजिक -वैधानिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।यह निर्णय जीवन साथियों तथा परिवार- सदस्यों को स्पष्ट संदेश देता है कि वृद्ध-सदस्यों-के-प्रति व्यवहार -उपेक्षा-संवेदनहीनता सिर्फ नैतिक दृष्टि से नहीं,बल्कि कानूनी दृष्टि से भी विवाह संबंध को प्रभावित कर सकती है।
-संकलनकर्ता लेखक-क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यम सीए (एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र 9359653465