
शोध की विश्वसनीयता का संकट
विजय गर्ग
वैज्ञानिक जर्नलों का मूल उद्देश्य है- संबंधित विषय में रुचि रखने वाले पाठकों को नए शोधों और अध्ययनों की सटीक, समकक्ष-समीक्षित (पीयर रिव्यूड) रिपोर्ट प्रदान करना, लेकिन हाल में ‘प्रोसीडिंग्स आफ नेशनल एकेडमी आफ साइंसेज’ (पीएनएएस) में प्रकाशित एक सांख्यिकीय विश्लेषण के अनुसार वैज्ञानिक साहित्य में धोखाधड़ीपूर्ण वैज्ञानिक अनुसंधान से उत्पन्न नकली नतीजे तेजी से घुस रहे। हैं, जिससे यह उद्देश्य पूरी तरह से विफल हो रहा है। विश्लेषणकर्ताओं का निष्कर्ष है कि वैज्ञानिक अनुसंधानों में धोखाधड़ी बड़े पैमाने पर होती है और वह तेजी से बढ़ रही है। ये निष्कर्ष 70,000 जर्नलों में प्रकाशित 50 लाख से अधिक वैज्ञानिक शोधपत्रों के विश्लेषण से सामने आए हैं। शोधकर्ताओं को ऐसे संदिग्ध संगठनों के प्रमाण मिले हैं, जो औद्योगिक स्तर पर नकली या निम्न- गुणवत्ता वाले शोधपत्र तैयार कर रहे हैं। और उनका उत्पादन तेजी से बढ़ रहा है, जिससे वैज्ञानिक शोध की विश्वसनीयता प्रभावित हो रही है। नार्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के डाटा विज्ञानी और पीएनएएस जर्नल में प्रकाशित हालिया अध्ययन के लेखक लुइस ए. नून्स अमरल का कहना है कि ‘अगर इन खतरनाक प्रवृत्तियों को नहीं रोका गया, तो वर्तमान वैज्ञानिक तंत्र नष्ट हो जाएगा!’
पिछली कुछ शताब्दियों में विज्ञान ने अभूतपूर्व प्रगति की है, केवल इसलिए क्योंकि विज्ञानियों की नई पीढ़ियां पिछली पीढ़ियों की उपलब्धियों के बारे में पढ़ सकीं। हर बार जब कोई नया शोधपत्र प्रकाशित होता है, तो बाकी विज्ञानी उस खोज का अध्ययन कर सकते हैं और अपनी खोजों को आगे बढ़ाने के तरीके के बारे में सोच सकते हैं। उल्लेखनीय है कि विज्ञान दूसरों के काम पर भरोसा करने पर निर्भर करता है, इसलिए शोधकर्ताओं को हर चीज दोहराने की जरूरत नहीं पड़ती है। जहां वैज्ञानिक शोधपत्रों की संख्या प्रत्येक 15 वर्ष में दोगुनी होती है, वहीं धोखाधड़ीपूर्ण लेखों की संख्या मात्र 1.5 साल में दोगुनी हो रही है। यह स्थिति न सिर्फ बेहद चिंताजनक है, बल्कि विज्ञानी समुदाय की साख को भी गहरी चोट पहुंचा रही है। धोखाधड़ी केवल व्यक्तिगत स्तर पर नहीं हो रही, बल्कि इसके पीछे पेपर मिलों और ब्रोकरेज फर्मों जैसी समन्वित संस्थाओं का नेटवर्क सक्रिय है। ये संस्थाएं नकली शोधपत्र तैयार करती हैं, जिनमें सावधानी से गढ़े हुए आंकड़े और झूठे प्रयोग सम्मिलित होते हैं। अक्सर एआइ का सहारा लेकर ये पाठ्य तैयार किए जाते हैं। फिर उसे इच्छुक अकादमिक लोगों को बेचा जाता है, जो अपनी प्रकाशन संख्या बढ़ाना चाहते हैं ।
यह स्थिति मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकती है। इस समस्या से निपटने के लिए कठोर निगरानी और पारदर्शी समीक्षा प्रक्रिया की आवश्यकता है। नहीं तो, विज्ञान की सबसे बड़ी शक्ति ‘उसकी विश्वसनीयता’ पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा हो जाएगा !
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब
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