
आज के बच्चे अंकों में तो अव्वल हैं पर जीवन की परीक्षा में अक्सर असफल ?
विजय गर्ग
यह वाक्य सुनने में भले ही कठोर लगे, लेकिन हमारे समय की कड़वी सच्चाई को पूरी तरह उजागर करता है। भारत के शिक्षा बोर्ड सीबीएसई, आईसीएसई और राज्य बोर्ड हर वर्ष शानदार परीक्षा परिणामों की घोषणा करते हैं। बच्चों के अंक 100 प्रतिशत आने लगे हैं। शहर, जिला और राज्य स्तर पर टॉप करने वाले छात्रों की तस्वीरें अखबारों और सोशल मीडिया पर छपती हैं। स्कूल और कोचिंग सेंटर बड़े-बड़े बैनर लगाकर दावा करते हैं- हमारे यहां से टॉपर निकले हैं।
बाहरी दुनिया को देखकर लगता है। – देश में एक होनहार पीढ़ी तैयार हो रही है। लेकिन जब हम शिक्षा की आंतरिक परतों को टटोलते हैं, तो मन में यह सवाल गूंजने लगता है • क्या हम बच्चों को इंसान बना रहे हैं या सिर्फ अंक लाने की मशीन ?
अंक किसके ? श्रेय किसे ?
एक ओर कोचिंग संस्थान और ट्यूशन सेंटर बच्चों की सफलता का श्रेय लेते हैं। वे कहते हैं, हमारी गाइडेंस से टॉपर बना। दूसरी ओर स्कूल प्राचार्य और प्रबंधन कहते हैं, हमारे शिक्षक और पाठ्यक्रम की बदौलत यह परिणाम आया। लेकिन जब उन्हीं बच्चों से बात करें, तो वे कहते हैं, मैंने किसी ट्यूशन की मदद नहीं ली, ये मेरी मेहनत है। यह विरोधाभास कुछ और नहीं, बल्कि एक दिखावटी व्यवस्था की उपज है, जिसमें सच को छुपाना ही सामान्य हो गया है।
शिक्षा का मकसद- समझ या नंबर ?
हमारे यहां परीक्षा का मतलब अब रट्टा मारो और अंक लाओ बन चुका है। सोचने समझने की जगह शॉर्टकट्स और गाइड्स ने ले ली है। एक बच्चा जो 99 प्रतिशत लाता है, वह जरूरी नहीं कि जीवन की समस्याओं से जूझने का हुनर भी जानता हो।
उदाहरण: एक बार दिल्ली की एक छात्रा ने 96 प्रतिशत अंक लाने के बाद आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसे लगा वह अपने माता-पिता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरी। बिहार में एक छात्र को जब 100 में 100 अंक मिले, तो टीवी पर पूछे गए सामान्य ज्ञान के सवाल का जवाब तक नहीं आया। यह आंकड़े हमें चौंकाते हैं कि शायद हम गलत दिशा में जा रहे हैं।
टॉपर संस्कृति बनाम इंसानी मूल्य
बच्चे अब दूसरों को हराने के लिए पढ़ते हैं, खुद को बेहतर बनाने के लिए नहीं। टॉपर बनने की होड़ में मित्रता, सहृदयता, खेल, संगीत, आत्मचिंतन – सब कुछ पीछे छूट गया है। माता-पिता बच्चों की तुलना पड़ोसी के बेटे-बेटी से करते हैं- देखो वो 98 प्रतिशत लाया है, तुम क्यों नहीं ? इस तुलना ने बच्चों की आत्मा से सीखने की सहजता को छीन लिया है।
और क्या खो रहे हैं हम ?
मानसिक स्वास्थ्यः डिप्रेशन, एंग्जायटी, आत्महत्या की घटनाएं दिनोंदिन बढ़ रही हैं। जीवन कौशल: 12वीं में 99त्र लाने वाला छात्र, कॉलेज में आत्मनिर्भर होना नहीं सीख पाता।
आत्मविश्वासः एक परीक्षा में कम अंक आने पर बच्चा खुद को असफल मान लेता है।
समाधान क्या है?
अंकों से अधिक कौशल पर ध्यान: कक्षा में बच्चों की रचनात्मकता, तर्कशक्ति, नेतृत्व और भावनात्मक बुद्धिमत्ता को स्थान मिले।
मूल्य आधारित शिक्षाः ईमानदारी, सहयोग, सहिष्णुता, और सामाजिक जिम्मेदारी जैसी बातों को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए।
कोचिंग कल्चर पर पुनर्विचार: स्कूलों को इतना सक्षम बनाना होगा कि बच्चों को अलग से ट्यूशन की आवश्यकता ही न हो। माता-पिता की भूमिका: अपेक्षाओं से अधिक समझ, प्यार और संवाद जरूरी है।
अंत में एक सवाल: क्या हम उस समाज की ओर बढ़ रहे हैं जहां 99 प्रतिशत अंक लाने वाला बच्चा भी खुद से पूछे क्या मैं खुश हूं? अगर उत्तर नहीं है, तो हमें अपनी पूरी शिक्षा प्रणाली पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है। हमें इंसान बनाना है, न कि सिर्फ टॉपर ।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब
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