संयुक्त परिवार रूपी संस्था को आज सबसे बड़ा खतरा !
विजय गर्ग
भारतीय संयुक्त परिवारों की पृष्ठभूमि उस मानवीय संवेदना से जुड़ी हुई है जिसमें पूरे विश्व को अपना परिवार माना जाता है। हजारों वर्षों से भारतीय परिवारों की पहचान धन, पद, संपत्ति से नहीं बल्कि उनमें निहित मूल्यों, मान्यताओं, नियमों और अवधारणाओं से होती रही है। राजतंत्र में भी परिवारों का महत्व वैसा ही रहा जैसा आज लोकतंत्र में व्यक्ति ही परिवार की इकाई है। इसलिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति के आपसी संबंध और व्यवहार बेहतर हों। यत्र विश्वं भवति एक आवश्यकताम् अर्थात विश्व एक परिवार के समान है। हमारी परंपरा विश्व से जुड़ने और मानवीय संस्कृतियों के सभी रूपों को अपनाने में उदार रही है। परिवार समाज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई है। विश्व के प्रत्येक सभ्य व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह इस इकाई का सम्मान करे और इसका हिस्सा बने तथा परिवार के साथ-साथ अपना महत्व भी बनाए रखे।
हमारी वैदिक सनातन परंपरा में महिलाओं को विशेष महत्व दिया गया है। परिवार की महिला को वह सम्मान दें जिसकी वह हकदार है। दुनिया में महिलाओं के प्रति पुरुषों के नजरिए में बदलाव आया है, लेकिन उसे वह सम्मान नहीं दिया गया जिसकी वह हकदार है। एक आदर्श परिवार के निर्माण से एक आदर्श समाज का निर्माण होता है, इस दृष्टि से भी संयुक्त परिवार महत्वपूर्ण है। सर्वेक्षण बताते हैं कि पारिवारिक समस्याओं में निरंतर वृद्धि हुई है। भारत में, जहां परिवार कभी भी सबसे मजबूत नहीं रहा है। जो कभी एक इकाई थी, उसकी ताकत कई समस्याओं और पारिवारिक मूल्यों के क्षरण के कारण लगातार कमजोर हो रही है। परिवारों में नई समस्याएं सामने आती हैं। यदि आज भारत में कोई एक संस्था है, तो वह संयुक्त परिवार है। संयुक्त परिवारों के लगातार टूटने से न केवल सामाजिक रिश्तों का महत्व प्रभावित हुआ है, बल्कि भारतीय समाज के मूल्य, मानदंड, आचार, व्यवहार और पहचान भी प्रभावित हुई है। समाज में बुजुर्गों के महत्व और सम्मान का कारण संयुक्त परिवार की संरचना, मूल्यों और आपसी विश्वास से जुड़ा था पश्चिम भारत में न केवल अपनी संस्कृति लेकर आया, बल्कि अपनी सामाजिक संरचना और मूल्यों को भी लेकर आया। परिणामस्वरूप भारत में संयुक्त परिवार पश्चिमी मॉडल के छोटे परिवारों का रूप लेने लगे, जहाँ केवल व्यक्तिगत उन्नति को महत्व दिया जाता था। भारत में छोटे परिवारों की स्थिति भी पक्षियों जैसी हो गई। जिस प्रकार पक्षी के बच्चे बड़े होकर अपने परिवार से अलग होकर अपना परिवार बना लेते हैं। ऐसा उन भारतीय परिवारों में भी होने लगा, जिन्होंने संयुक्त परिवार को छोड़कर अपना अलग परिवार बसाना शुरू कर दिया। संयुक्त परिवार की संरचना, कार्य, प्रकृति, संबंध, मूल्य और मजबूती से पूरी तरह अलग इन छोटे नवगठित परिवारों का समाज में योगदान भी लगभग समाप्त हो गया। इससे समाज की व्यापकता, मजबूती और परस्पर पूरकता भी लुप्त होने लगी। यदि व्यक्ति और समाज के बीच संवेदनहीनता और परस्पर विश्वास का अभाव दिखता है, तो इसका बड़ा कारण उन मानवीय और सामाजिक मूल्यों का कमजोर होना है, जो व्यक्ति और आदर्श समाज का निर्माण करते हैं। ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण’ के अनुसार परिवारों में बहुत कुछ बदल गया है। इस हिसाब से परिवारों में महिलाओं की स्थिति में बदलाव आया है। 2019-2021 के सर्वेक्षण के अनुसार, 18 प्रतिशत घरों में महिलाएं घर की मुखिया थीं। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, 11 प्रतिशत घर ऐसे थे जिनमें महिलाएं मुखिया थीं। यानी सात प्रतिशत का अंतर है। उस समय महिला प्रधान घरों की संख्या सबसे अधिक 43.7 प्रतिशत लक्षद्वीप में और 23 प्रतिशत केरल में थी। भारतीय परिवारों में महिलाएं घर की मुखिया होती हैं।
कई देशों में विस्तारित परिवार का प्रचलन है। शोध के अनुसार 38 प्रतिशत परिवार इसी व्यवस्था में रह रहे हैं। ऐसे परिवारों में दादा-दादी, माता-पिता, चाचा-चाची और बच्चे एक साथ रहते हैं। फिर कुछ छोटे परिवार होते हैं, जहां माता-पिता और नाबालिग बच्चे एक साथ रहते हैं। भारत में 50 प्रतिशत परिवार अब एकल परिवारों में बदल रहे हैं। वहीं भारत में केवल 17 प्रतिशत परिवार संयुक्त परिवार के रूप में रहते हैं, जहां माता-पिता, दादा-दादी और पोते-पोतियां एक साथ रहते हैं। संयुक्त परिवारों का युग धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है। इसका कारण उन देशों की सामाजिक संरचना, उनकी जीवनशैली, परंपराएं और वित्तीय स्थिति है। पश्चिमी देशों का समाज विकासशील देशों के समाज से अधिक समृद्ध है। पारस्परिक वैचारिक पूरकता बहुत कम है। पश्चिम के समृद्ध देश में बहुत कम संयुक्त परिवार बचे हैं। आंकड़े बताते हैं कि दुनिया के अधिकांश देशों में संयुक्त परिवार कम हो रहे हैं। न केवल ईसाई बहुल देशों में, बल्कि भारत जैसे मुस्लिम देशों में भी संयुक्त परिवारों की संख्या लगातार कम हो रही है। पचास साल पहले सभी मुस्लिम देशों में संयुक्त परिवारों की संख्या आज की तुलना में दस गुना अधिक थी। वहां भी पश्चिमी देशों का प्रभाव रहा है। परिवारों को बचाना एक बड़ी चुनौती है। परिवार से जुड़े मुद्दों, समस्याओं और मतभेदों को समझना समय की मांग है। परिवार के महत्व को ठीक से समझने के लिए परिवार की आर्थिक, सामाजिक और जनसांख्यिकीय प्रक्रियाओं को समझना जरूरी है। परिवार की खुशियां उसकी तरक्की की कहानी बयां करती हैं, लेकिन परिवार के बुजुर्गों की उपेक्षा ने परिवारों की स्थिति पर सवाल खड़े कर दिए हैं। ऐसे में पीढ़ियों के बीच के अंतर को समझना और एक-दूसरे के प्रति सम्मान और प्रेम की भावना पैदा करना किसी चुनौती से कम नहीं है। भारत जैसे देश में जहां पूरे विश्व को एक परिवार मानने की संस्कृति है, वहां परिवारों के महत्व को बनाए रखने को लेकर जागरूकता बढ़ी है। एक परिवार में वे लोग होते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी मूल्यों को आगे बढ़ाते हैं। सर्वेक्षण बताते हैं कि भारत में संयुक्त परिवारों को टूटने से बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। शहरों और कस्बों की तरह गांवों में भी संयुक्त परिवारों में काफी कमी आई है। इसके पीछे की वजह लोगों का खेती से अलग होना है संयुक्त परिवार मॉडल के कमजोर होने से गांवों में कई समस्याएं पैदा हो गई हैं। इसलिए सामाजिक सुधार के लिए काम करने वाली संस्थाओं को फिर से अधिक सक्रिय होने की जरूरत है। इससे न केवल कृषि बचेगी, बल्कि संयुक्त परिवार और गांव भी बचेंगे।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार मलोट पंजाब