
लोकतंत्र का भविष्य: राजनीतिक, संवैधानिक और विधिक चुनौतियों का विश्लेषण
बृजेश चतुर्वेदी
रविवार को राहुल गांधी की ‘वोटर अधिकार यात्रा’ की शुरुआत और उसी समय चुनाव आयोग की प्रेस कॉन्फ्रेंस दो ऐसी घटनाएं हैं, जो भारतीय लोकतंत्र की वर्तमान स्थिति को स्पष्ट करती हैं। इन घटनाओं को केवल राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के रूप में देखना पर्याप्त नहीं है। यह हमारे संवैधानिक ढांचे, राजनीतिक नैतिकता और कानूनी प्रक्रिया की गहरी चुनौतियों को उजागर करता है।
राजनीतिक दृष्टिकोण: विश्वास का संकट
राजनीतिक स्तर पर, ये घटनाएं एक गहरे अविश्वास को दर्शाती हैं। विपक्ष का आरोप है कि सत्तारूढ़ दल मतदाता सूची में हेरफेर कर रहा है, जबकि चुनाव आयोग इन आरोपों को खारिज करता है। चंडीगढ़ मेयर चुनाव में सीसीटीवी फुटेज में धांधली और मोहित कुमार के मामले में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से विपक्ष के आरोप मजबूत होते दिखते हैं। जब एक राजनीतिक दल, अपने आरोपों को साबित करने के लिए अदालत का सहारा लेता है और जीतता है, तो यह दर्शाता है कि चुनावी प्रक्रिया पर राजनीतिक विश्वास कितना कम हो गया है।
राहुल गांधी की यात्रा यह भी साबित करती है कि विपक्ष ने इस मुद्दे को केवल एक राजनीतिक बयानबाजी तक सीमित नहीं रखा है, बल्कि इसे जनता के बीच ले जाकर एक जन आंदोलन का रूप देने की कोशिश की है। यह लोकतांत्रिक जवाबदेही को बहाल करने का एक प्रयास है। यदि जनता यह मानती है कि उनका वोट चोरी हो रहा है, तो वे मतदान में भाग लेने से हतोत्साहित होंगे, जो लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
संवैधानिक दृष्टिकोण: संस्थाओं की निष्पक्षता पर सवाल
भारतीय संविधान ने निर्वाचन आयोग को एक स्वायत्त और निष्पक्ष संस्था के रूप में स्थापित किया है ताकि वह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित कर सके। हालाँकि, हाल की घटनाओं ने इस संवैधानिक संस्था की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। जब मुख्य चुनाव आयुक्त विपक्ष के सवालों का सीधा जवाब देने के बजाय “सच, सच होता है” जैसे जुमले बोलते हैं, तो यह उनकी संवैधानिक जिम्मेदारी से भागने जैसा लगता है।
चुनाव आयोग का रवैया, जो विपक्ष को हलफनामा देने या माफी मांगने की चुनौती देता है, जबकि सत्तारूढ़ दल के नेताओं पर ऐसे आरोप लगाने पर कोई कार्रवाई नहीं करता, एक दोहरे मापदंड को उजागर करता है। संविधान के तहत, चुनाव आयोग का कर्तव्य सभी राजनीतिक दलों के साथ समान व्यवहार करना है। यदि आयोग स्वयं ही राजनीतिक पूर्वाग्रह का प्रदर्शन करता है, तो यह संविधान के मूल सिद्धांतों के विपरीत है।
इसके अलावा, मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी के आरोप, जैसे कि डुप्लिकेट एंट्री या मृत मतदाताओं के नाम हटाना, आयोग की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाते हैं। यदि आयोग इन कमियों को दूर करने में विफल रहता है, तो यह उसकी संवैधानिक भूमिका के साथ खिलवाड़ है।
विधिक दृष्टिकोण: कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग
कानूनी दृष्टिकोण से, यह मामला जटिल है। चंडीगढ़ और सोनीपत के मामले दिखाते हैं कि कानूनी लड़ाई के माध्यम से ही न्याय मिल सकता है। मोहित कुमार के मामले में सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप यह साबित करता है कि मौजूदा चुनावी प्रणाली में खामियां हैं जिन्हें केवल अदालत ही ठीक कर सकती है। यह दिखाता है कि एक आम नागरिक को अपने अधिकार के लिए सर्वोच्च न्यायालय तक जाना पड़ रहा है।
चुनाव आयोग का यह बयान कि “वोट चोरी” जैसा शब्द आपराधिक है, कानूनी रूप से विवादास्पद है। हालांकि, भारतीय दंड संहिता (IPC) में चुनावी धोखाधड़ी के कई प्रावधान हैं। यदि राहुल गांधी के आरोप सही हैं कि आयोग के अपने आंकड़ों में विसंगतियां हैं, तो यह कानूनी रूप से आयोग की जिम्मेदारी बनती है कि वह इन विसंगतियों की जांच करे, न कि आरोप लगाने वाले को ही दंडित करने की धमकी दे।
विपक्ष की यह मांग कि मतदाता सूची मशीन-रीडेबल फॉर्मेट में उपलब्ध कराई जाए, कानूनी और तकनीकी रूप से एक वाजिब मांग है। यह पारदर्शिता बढ़ाएगी और डेटा का विश्लेषण करना आसान बनाएगी, जिससे धांधली के आरोपों की स्वतंत्र जांच हो सकेगी। आयोग का इस मांग को अस्वीकार करना पारदर्शिता की कमी को दर्शाता है, जो विधिक जवाबदेही के विपरीत है।
कुल मिलाकर, ये घटनाएं केवल चुनावी धांधली का मामला नहीं हैं, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ है। यह दिखाता है कि राजनीतिक विश्वास, संवैधानिक संस्थाओं की निष्पक्षता और विधिक प्रक्रियाओं की प्रभावशीलता सभी दांव पर हैं। यदि इन चुनौतियों का समाधान नहीं किया गया, तो यह हमारे लोकतंत्र की नींव को कमजोर कर सकता है।
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