
जीवन बदले साक्षरता -विजय गर्ग
निस्संदेह, भारत की साक्षरता का प्रतिशत करीब 81 फीसदी होना एक सराहनीय उपलब्धि व मील का पत्थर ही है। देश की आजादी के वक्त की साक्षरता स्थिति से इसकी तुलना करें तो इसे उपलब्धि की तौर पर देखा जाना चाहिए। किसी समाज में साक्षरता का स्तर उसकी प्रगति का आईना ही होता है। ये आंकड़े हमारे समाज की शिक्षा तक पहुंच में निरंतरता का पर्याय भी हैं। हालांकि, 2023-24 के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण यानी पीएलएफएस के आंकड़ों से यह भी उजागर होता है कि सार्वभौमिक साक्षरता की ओर राष्ट्र का यह कदम निरंतर कई असमानताओं से भी बाधित है। खासतौर पर यह भेद लिंग और क्षेत्रीय आधार पर नजर आता है। उदाहरण के लिए देखें तो शहरी क्षेत्रों में साक्षरता की दर ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक है। जिसका मुख्य कारण शहर केंद्रित विकास को तरजीह व शिक्षा के लिये अनुकूल परिस्थितियों का होना भी है। आंकड़े बताते हैं कि शहरी भारत में साक्षरता की दर 88.9 है, वहीं दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्रों में यह 77.5 फीसदी ही हो पायी है। निश्चित रूप से विभिन्न राज्यों में प्रतिध्वनित यह शहरी व ग्रामीण साक्षरता का अंतर शिक्षा के बुनियादी ढांचे, योग्य शिक्षकों की उपलब्धता और सीखने के अवसरों में असमानता को ही दर्शाता है। कमोबेश इसी प्रकार देश के विभिन्न राज्यों में लैंगिक असमानताएं भी नजर आती हैं। यह विडंबना की कही जाएगी कि कई राज्यों में लड़कियों की शिक्षा पर दशकों से नीतिगत स्तर ध्यान केंद्रित करने के बावजूद पुरुष साक्षरता महिला साक्षरता के मुकाबले कहीं आगे नजर आती है। निश्चित रूप से इसके मूल में सामाजिक रूढ़ियां, सामाजिक चेतना का अभाव व आर्थिक विकास की विसंगतियां निहित हैं। जिसके चलते लड़कियों को शिक्षा के पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाते। जटिल भौगोलिक परिस्थितियों के बीच स्कूलों की दूरी और आवागमन की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध न हो पाना भी महिला शिक्षा के प्रतिशत में गिरावट का कारक बनती है। इन तमाम कारणों को नये सिरे से संबोधित करने की जरूरत है।
लेकिन वहीं कुछ राज्यों में लक्ष्यों पर केंद्रित अभियानों व शासन-प्रशासन की सक्रियता के सकारात्मक परिणाम भी सामने आए हैं। लक्षद्वीप, दिल्ली, तमिलनाडु और त्रिपुरा के परिणाम दर्शाते हैं कि जब शासन की सक्रियता, लोगों की पहुंच और सामुदायिक जुड़ाव एक साथ आते हैं तो कुछ भी संभव है। दरअसल, आर्थिक विसंगतियों से जूझते व सामाजिक व आर्थिक सुधारों को अमल में न ला सकने वाले राज्य साक्षरता के लक्ष्य राष्ट्रीय अनुपात में नहीं प्राप्त कर सके। सबसे कम साक्षरता दर वाले बिहार की स्थिति गरीबी,अपर्याप्त स्कूली शिक्षा, सांस्कृतिक कारकों व शिक्षा की राह में बाधा डालने वाली सामाजिक बाधाओं के जटिल अंतर्संबंध को रेखांकित करती है। यहां इन उत्साहजनक आंकड़ों के बावजूद कई सवाल हमारे सामने पैदा होते हैं। प्रश्न यह भी है कि हम किस तरह की साक्षरता विकसित कर रहे हैं? क्या शिक्षा की गुणवत्ता इस स्तर की है कि वो लोगों के जीवन में व्यापक बदलावों का कारक बन सके? बात सिर्फ आंकड़ों की नहीं है पड़ताल इस बात की भी की जानी चाहिए कि साक्षरता क्या वास्तव में प्रगतिशील सोच, नागरिक दायित्वों और आर्थिक जीवन में सार्थक रूप से भाग लेने की क्षमता विकसित करती है? इन हालिया आंकड़ों में जो शामिल नहीं हो सके हैं, खासकर हाशिये पर गए समुदाय, उन्हें साक्षरता की सफलता से जोड़ना हमारा प्राथमिक लक्ष्य होना चाहिए। जरूरत इस बात की भी है कि स्कूली शिक्षा गुणवत्तापूर्ण हो, शिक्षकों को पर्याप्त प्रशिक्षण मिले, उनकी डिजिटल शिक्षा तक भी पहुंच हो तथा शिक्षा में निवेश बढ़ाया जाये। आवश्यकता यह भी है कि नई शिक्षा नीति के ही अनुरूप प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में दी जाए। इसके साथ यह भी जरूरी है कि वयस्क साक्षरता अभियानों को प्राथमिकता दी जाए। खासकर आर्थिक रूप से पिछड़े व संसाधनों के अभाव वाले राज्यों में। इस दिशा में हमारे प्रयास तभी सफल हो सकते हैं जब शासन-प्रशासन के प्रयासों के साथ सामुदायिक स्तर पर बड़ी कोशिश की जाए। जनजागरण और सूचना माध्यमों की रचनात्मक भूमिका साक्षरता अभियान के लक्ष्यों को हासिल करने में बदलावकारी साबित हो सकती है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब
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