नेरेटिव की नगरी और नियमों की नकेल: यूट्यूबर्स पर हरियाणा सरकार का शिकंजा”
स्वतंत्रता कोई निरंकुश अधिकार नहीं होती। वह एक जिम्मेदारी होती है, एक मर्यादा होती है, जो नागरिक को सोचने, बोलने और अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता देती है — लेकिन इस शर्त पर कि उसकी अभिव्यक्ति किसी और की स्वतंत्रता को रौंदे नहीं। बीते वर्षों में डिजिटल मीडिया, विशेषकर यूट्यूब, एक ऐसा माध्यम बनकर उभरा है जिसने हर आम आदमी को “मीडिया संस्थान” बना दिया। लेकिन जब यह ताकत नियंत्रणहीन हो जाती है, तो इसका परिणाम सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर सकता है।
– डॉ सत्यवान सौरभ
हरियाणा की यूट्यूबर ज्योति मल्होत्रा द्वारा हाल ही में साझा किए गए वीडियो, जिसमें कथित रूप से राष्ट्र-विरोधी बयान दिए गए, ने पूरे राज्य और देश में हलचल मचा दी। न केवल जनता में रोष दिखा, बल्कि सरकार को भी हस्तक्षेप करना पड़ा। इस घटना के बाद हरियाणा सरकार ने यूट्यूबर्स के लिए नियम तय करने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं। सरकार ने यह स्पष्ट किया कि अब जो भी यूट्यूब पर सक्रिय है, उसे कानूनी ज़िम्मेदारियों, सत्यता की पुष्टि और सांप्रदायिक सौहार्द्र की मर्यादाओं का पालन करना होगा।
यह फैसला केवल एक यूट्यूबर के खिलाफ नहीं है, बल्कि उस पूरी डिजिटल संस्कृति के खिलाफ है जिसने “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” को “सस्ती लोकप्रियता और विभाजनकारी एजेंडे” का औजार बना दिया है।
यूट्यूब, जो एक समय ज्ञान, कला, विज्ञान, मनोरंजन और शिक्षा का भंडार बनकर उभरा था, आज ‘ट्रेंडिंग की बीमारी’ से ग्रसित होता जा रहा है। उसमें वही कंटेंट चलता है जो उत्तेजक हो, सनसनीखेज हो, और अक्सर किसी ना किसी वर्ग को भड़काता हो।
अब सवाल यह है कि क्या हर मोबाइल कैमरा लिए व्यक्ति पत्रकार है? क्या सच्चाई से ज़्यादा ज़रूरी अब यह हो गया है कि कौन कितने ‘व्यूज़’ बटोर सकता है? क्या कंटेंट की विश्वसनीयता और समाज पर उसके प्रभाव को अब ‘लाइक-कमेंट-शेयर’ के खेल में निगल लिया गया है?
हरियाणा सरकार का यह कदम उस बढ़ते डिजिटल अराजकता के खिलाफ एक आवश्यक हस्तक्षेप है।
यूट्यूबर्स का नया ‘धंधा’: नैरेटिव बनाम नैतिकता
भारत में यूट्यूबर्स की एक बड़ी संख्या आज एक विशेष राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक एजेंडे को प्रमोट करने में जुटी है। ये लोग तथ्यात्मक रिपोर्टिंग के बजाय ‘मायने’ गढ़ते हैं — और उन्हें इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि जनता उनकी बातों को “सच का अंतिम संस्करण” मान लेती है।
उदाहरण के तौर पर, ज्योति मल्होत्रा जैसे यूट्यूबर्स अपनी बातों को इस तरह ‘देशभक्ति’ या ‘धर्मरक्षा’ के लिबास में लपेटते हैं कि लोग आलोचना करना ही ‘देशद्रोह’ समझ लेते हैं।
वे आमतौर पर कमजोर शोध, विकृत इतिहास, और आधे-अधूरे तथ्यों के साथ वीडियो प्रस्तुत करते हैं। ये वीडियो इतने भावुक, इतने आक्रामक और इतने पक्षपाती होते हैं कि दर्शक तर्क नहीं, तात्कालिक उन्माद में डूब जाते हैं।
यह प्रवृत्ति समाज के लिए एक खतरनाक संकेत है — जहां सोचने-समझने की शक्ति खत्म होकर ‘क्लिकबेट राष्ट्रवाद’ और ‘वीडियो आधारित धर्मयुद्ध’ में बदल गई है।
नेरेटिव से राष्ट्रवाद तक: YouTube का प्रयोगशाला बनना
आज भारत में यूट्यूब केवल एक मनोरंजन मंच नहीं है। यह एक नेरेटिव वॉर ज़ोन है। यहां न केवल खबरें गढ़ी जाती हैं, बल्कि धर्म, जाति, लिंग और क्षेत्र के आधार पर मतभेद पैदा किए जाते हैं।
कई यूट्यूबर्स ऐसे हैं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से धार्मिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देते हैं। एक साधारण चोरी की घटना को जब ‘मुस्लिम लड़का हिन्दू लड़की’ के फ्रेम में ढाला जाता है, तो यह समाज को बांटने की कोशिश है। किसी प्रशासनिक गलती को ‘हिन्दू विरोधी शासन’ करार देना, किसी अपराधी के नाम से पूरी एक कौम को दोषी ठहराना — यही आज की डिजिटल पत्रकारिता है।
हरियाणा सरकार का कदम: देर से सही, पर जरूरी
सरकार ने अब यूट्यूबर्स के लिए आधारभूत नियम लागू करने की दिशा में कदम बढ़ाया है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित पहलुओं पर नियंत्रण लाने की बात की जा रही है:
1. पंजीकरण: यूट्यूब चैनल संचालकों को अपनी पहचान, लोकेशन और उद्देश्य का पंजीकरण करवाना अनिवार्य हो सकता है।
2. फैक्ट-चेकिंग अनिवार्यता: किसी भी संवेदनशील विषय पर वीडियो अपलोड करने से पहले तथ्यों की प्रमाणिकता सुनिश्चित करनी होगी।
3. भाषा और नैरेटिव पर नियंत्रण: सांप्रदायिक, जातिवादी, क्षेत्रवादी या किसी धर्म विशेष को अपमानित करने वाली भाषा पर पाबंदी लगेगी।
4. विज्ञापन और आर्थिक लाभ की पारदर्शिता: यह भी स्पष्ट करना होगा कि यूट्यूबर किस स्रोत से आर्थिक लाभ प्राप्त कर रहा है।
यह नियम केवल एक सीमांकन नहीं, बल्कि चेतावनी है — अब डिजिटल दुनिया में भी जवाबदेही की परंपरा शुरू होगी।
क्या यह सेंसरशिप है?
यह सवाल स्वाभाविक है — क्या यह सब कुछ सेंसरशिप की ओर इशारा करता है? क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लग रहा है?
इसका जवाब है — नहीं, यह सेंसरशिप नहीं है; यह “नैतिक उत्तरदायित्व” की पुनः स्थापना है।
अगर कोई अखबार झूठी खबर छापे, तो उसे प्रेस काउंसिल से जवाब देना होता है। टीवी चैनलों के लिए ट्राई और बीसीसीआई गाइडलाइन्स होती हैं। तो यूट्यूब जैसे बड़े मंचों को क्यों ‘मुक्त मंच’ माना जाए?
समाज को चाहिए जागरूक उपभोक्ता, अंधभक्त नहीं
एक यूट्यूब वीडियो केवल तभी प्रभावी होता है जब हम उसे देख कर उस पर भरोसा करते हैं। इसका अर्थ है कि जितना दोष निर्माता का है, उतना ही दोष उपभोक्ता का भी है।
आज हमें तय करना होगा कि हम तथ्य-आधारित संवाद को चुनेंगे या भावना-आधारित नफरत को। यूट्यूब पर फैलते कंटेंट की ज़िम्मेदारी अब केवल यूट्यूबर्स की नहीं, बल्कि समाज की भी है।
हमें यह भी समझना होगा कि कैमरा पकड़ना जितना आसान है, सच्चाई को पकड़ना उतना ही मुश्किल।
अभिव्यक्ति की आज़ादी बनाम समाज की अखंडता
संविधान ने हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है, पर साथ ही कुछ प्रतिबंध भी दिए हैं – जैसे राष्ट्र की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और दूसरों की प्रतिष्ठा की रक्षा।
यदि कोई यूट्यूबर इन सीमाओं का उल्लंघन करता है, तो वह अभिव्यक्ति नहीं, अपराध कर रहा है।
आखिरी बात: कैमरा बड़ा हो गया है, जिम्मेदारी भी बड़ी होनी चाहिए
आज का यूट्यूबर केवल एक कंटेंट क्रिएटर नहीं है। वह एक विचार निर्माता है, समाज में परोक्ष रूप से शिक्षक है, और कभी-कभी न्यायाधीश भी। ऐसे में उसके कंटेंट से समाज के विचार गढ़े जाते हैं।
अगर कैमरे के पीछे खड़ा व्यक्ति तटस्थ, सचेत और जिम्मेदार नहीं है, तो वह समाज में नफरत, असत्य और भ्रम फैला सकता है — और यही आज की सबसे बड़ी चुनौती है।
हरियाणा सरकार का यह फैसला केवल एक राज्य की नीति नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए एक संकेत है — कि अब डिजिटल मीडिया को भी संविधान के दायरे में लाना ज़रूरी है।
क्योंकि राष्ट्र कोई वायरल वीडियो नहीं होता, जिसे ‘ट्रेंड’ करा कर ताकतवर बनाया जा सके। राष्ट्र एक विचार है, जो न्याय, समानता और सत्य पर टिका है। और जो लोग इस विचार को गिरवी रख कर व्यूज़ कमाना चाहते हैं, उन्हें अब जवाब देना ही होगा।
—