



श्यामलाल राजवाड़े: छत्तीसगढ़ का दशरथ माँझी- सीताराम गुप्ता
(जब एक आदमी अकेले के दम पर तालाब खोद सकता है, तो हम सब मिलकर क्या कुछ नहीं कर सकते?)
(BREAKING NEWS EXPRESS ) ये लड़का रोज सुबह अपने मवेशी चराने के लिए जंगल में जाता, तो इसके कंधों पर लाठी के बजाय एक बहँगी लटकी होती और उसमें एक फावड़ा और कुछ दूसरी चीज़ें रखी होतीं। ये लड़का कौन था और अपने साथ लटकी बहँगी में फावड़ा और कुछ दूसरी चीज़ें अपने साथ क्यों ले जाता था? ये सब जानने के लिए छत्तीसगढ़ चलते हैं। छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले में एक गाँव है, जिसका नाम है साजा पहाड़ गाँव। यह कोरिया ज़िले के चिरमिरी क्षेत्र के वार्ड नंबर एक में पड़ता है। यहाँ के लोग सालों से पानी की समस्या से बुरी तरह से जूझ रहे थे। गाँव में पानी के स्रोत के रूप में केवल कुछ पुराने कुएँ ही थे, जिनका पानी गाँव वालों के लिए पूरा नहीं पड़ता था। गाँव के लोगों के सामने मवेशियों को पानी पिलाने की सबसे बड़ी समस्या थी। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। सरकार की तरफ से भी गाँव वालों को कोई मदद नहीं मिली। गाँव के हालात ये हैं कि न तो गाँव तक पहुँचने के लिए कोई सड़क ही है और न गाँव में बिजली ही है।
इसी अभाव व असुविधाओं से ग्रस्त साजा पहाड गाँव में ये बहँगी वाला लड़का रहता था, जिसका नाम है श्यामलाल राजवाड़े। जब श्यामलाल की उम्र पंद्रह साल थी, तो वो मवेशी चराने के लिए पास के जंगल में जाता था। घास चरने के बाद पशुओं को प्यास लगती, तो वो इधर-उधर भागने लगते, क्योंकि वहाँ आसपास पानी का कोई साधन नहीं था। लोग चाहते तो आपसी श्रमदान द्वारा पानी की समस्या को हल किया जा सकता था, लेकिन ये बात किसी के मन में ही नहीं आई। यदि आई भी होगी तो पहल कौन करे? तभी श्यामलाल ने ख़ुद अपने बूते पर गाँव में एक तालाब खोदने का फ़ैसला किया। जब गाँव वालों को उसके फैसले के बारे में पता चला, तो लोग उसे सहयोग देने के बजाय उसकी हँसी उड़ाने लगे। जितने मुँह उतनी बातें। लेकिन श्यामलाल ने लोगों की हँसी की कुछ परवाह नहीं की। लोगों की हँसी के कारण उसके संकल्प में कोई कमी नहीं आई। जो लोग संकल्प के धनी होते हैं, वे कब किसी की परवाह करते हैं? और जो संकल्प लोगों के उपहास के कारण डगमगा जाए वो संकल्प ही नहीं। श्यामलाल को सचमुच दृढ़ संकल्प का धनी कहा जा सकता है। उसने इस बात की परवाह नहीं की कि लोग उसके बारे में क्या कह रहे हैं।
श्यामलाल ने गाँव के पास ही जंगल में एक अच्छी सी जगह देखकर तालाब खोदने का काम शुरू कर दिया। वह रोज़ अपने पशुओं को वहाँ पर चरने के लिए छोड़ देता और ख़ुद तालाब की ख़ुदाई करने लग जाता। वह अपने फावड़े से मिट्टी खोदता और उसे अपनी बहँगी में भर-भरकर, बनने वाले तालाब के चारों ओर डालता रहता। धीरे-धीरे तालाब गहरा होता गया और उसके चारों ओर मेड़ भी बनती गई। वह अकेला ही सालों तक अपने काम में लगा रहा और लगभग एक एकड़ जमीन में 15 फुट गहरा तालाब खोद डाला। श्यामलाल को इस तालाब को खोदने में पूरे 27-28 साल लग गए। 27-28 साल यानी लगभग दस हज़ार दिन। जब ये ख़बर ज़िले के अधिकारियों और नेताओं तक पहुँची तो सबने श्यामलाल की ख़ूब तारीफ़ की। एक स्थानीय जनप्रतिनिधि ने अपने सहायता कोश से उसे दस हज़ार रुपए भी दिए। दस हज़ार दिन की मेहनत का पुरस्कार दस हज़ार रुपए! बेशक ये उसकी मेहनत का उचित पुरस्कार अथवा प्रतिफल नहीं था, लेकिन उसके काम को महत्त्व दिया गया, ये भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं।
जो भी हो तालाब बन जाने के बाद तो गाँव के लोग भी बहुत ख़ुश हैं, क्योंकि श्यामलाल के खोदे गए इस तालाब से गाँव के लोगों का जीवन ही बदल गया है। अब उन्हें पानी के लिए इधर-उधर नहीं भटकना पड़ता। लोग जब श्यामलाल के इस काम की प्रशंसा करते हैं, तो उसे बड़ी ख़ुशी होती है, लेकिन उसका कहना है, कि यदि इस काम में गाँव के लोगों ने भी उसकी मदद की होती, तो बहुत पहले ही यह तालाब खुद कर तैयार हो जाता और लोगों की परेशानी भी बहुत पहले ही दूर हो जाती। जब एक आदमी सालों लगे रहकर इतना बड़ा काम अकेले के दम पर कर सकता है, तो हम सब मिलकर क्या कुछ नहीं कर सकते? इतिहास गवाह है कि दुनिया में लोगों ने संयुक्त प्रयास करके नदियों के रुख मोड़ दिए हैं और समुद्रों को पीछे धकेल दिया है। अब श्यामलाल 48 साल का हो चुका है और अपने इस काम के लिए पूरे इलाके में प्रसिद्ध हो चुका है। श्यामलाल का यही कहना है कि उसने समाजसेवा के लिए यह तालाब खोदा है। लोगों को ख़ुश देखकर श्यामलाल भी बहुत ख़ुश है। यदि श्यामलाल जैसे लोगों के साथ पूरा समाज भी एकजुट हो जाए, तो संसार की तस्वीर ही बदल जाए।
इस दुनिया में धुन के पक्के ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो असंभव को संभव कर दिखलाते हैं। जो लोग कहते हैं कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, वे उन्हें ग़लत साबित कर देते हैं और इसके लिए चाहे उन्हें अपना पूरा जीवन ही क्यों न लगाना पड़े। बिहार के गया ज़िले के गहलौर गाँव के दशरथ माँझी ने तो अकेले के दम पर पूरा पहाड़ ही काटकर सड़क बना डाली थी। पिछले दिनों महाराष्ट्र राज्य के वाशिम जिले के एक छोटेे से गाँव में बापूराव ताजने ने भी कुछ ऐसा ही कर दिखाया। पूरे क्षेत्र में भयंकर सूखे के समय जब बापूराव ताजने की पत्नी गाँव में ऊँची जाति वालों के कुएँ से पानी भरने गई, तो उन्होंने उसे वहाँ पानी भरने से मना कर दिया। बापूराव ताजने ने अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया, कि चाहे जो हो जाए, वह अपना अलग कुआँ खोद कर ही रहेगा। बापूराव ताजने लगातार चालीस दिन तक, दिन-रात खुदाई का कार्य करते रहे और कुआँ खोद डाला। आज बापूराव ताजने ही नहीं उसके समुदाय के सभी लोग उस कुएँ से पानी भरते हैं। श्यामलाल का नाम भी उसी सूची में सम्मिलित हो गया है, लेकिन उसका काम कई औरों के मुक़ाबले में बहुत बड़ा है। अब श्यामलाल राजवाड़े को छत्तीसगढ़ का दशरथ माँझी कहें अथवा छत्तीसगढ़ का बापूराव ताजने कहें, वह प्रशंसा और सम्मान का पात्र ही नहीं, बड़े बड़ों के लिए प्रेरणास्पद व अनुकरणीय भी है।