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कैंसर बीमारी-भारत की चुनौतियाँ और नीति सुधार की अनिवार्यता

News-Desk by News-Desk
December 16, 2025
in ट्रेंडिंग न्यूज़, दिल्ली, राष्ट्रीय, विशेष, स्वास्थ्य
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कैंसर बीमारी का बढ़ता प्रकोप- 21वीं सदी की वैश्विक महामारी- सुप्रीम कोर्ट की हस्तक्षेपकारी भूमिका, एक ऐतिहासिक मोड़-एक समग्र विश्लेषण

कैंसर बीमारी-भारत की चुनौतियाँ और नीति सुधार की अनिवार्यता

आधुनिक जीवनशैली, पर्यावरणीय प्रदूषण, तंबाकू, शराब का बढ़ता सेवन,तनाव और शारीरिक निष्क्रियता से कैंसर अब केवल वृद्धावस्था तक सीमित नहीं रही,कार्यशील आयु वर्ग को भी तेजी से अपनी चपेट में ले रही- एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र
गोंदिया – वैश्विक स्तरपर कैंसर आज केवल एक चिकित्सकीय बीमारी नहीं रह गया है,बल्कि यह वैश्विक स्तरपर मानवसभ्यता के लिए एक गंभीर सामाजिक, आर्थिक औरनीतिगत चुनौती बन चुका है।दुनियाँ के लगभग हर देश में कैंसर मृत्यु के प्रमुख कारणों में शामिल है और विश्व स्वास्थ्य संगठन सहित अनेक अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं इसे नॉन- कम्युनिकेबल डिजीज के सबसे खतरनाक रूपों में गिनती हैं। कैंसर की भयावहता इस तथ्य से समझी जा सकती है कि यह मानवीय शरीर पर विभिन्न स्वरूपों में हमला करता है कभी फेफड़ों के रूप में, कभी स्तन, सर्वाइकल, प्रोस्टेट, लिवर या रक्त कैंसर के रूप में,और कई बार तब तक पहचान में नहीं आता जब तक यह जीवन के लिए गंभीर खतरा यानें स्टेज फोर या अंतिम समय न बन जाए। मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र यह मानता हूं क़ि आधुनिक जीवनशैली, पर्यावरणीय प्रदूषण, खानपान में बदलाव, तंबाकू और शराब का बढ़ता सेवन, तनाव और शारीरिक निष्क्रियता ने कैंसर को एक ऐसी बीमारी बना दिया है जो अब केवल वृद्धावस्था तक सीमित नहीं रही, बल्कि कार्यशील आयु वर्ग को भी तेजी से अपनी चपेट में ले रही है।वैश्विक रिपोर्टों और स्वास्थ्य अध्ययनों के अनुसार, 40 से 50 वर्ष की आयु के लोगों में कैंसर के मामलों में आने वाले वर्षों में तीव्र वृद्धि की आशंका जताई जा रही है।2030 तक यह आयु वर्गकैंसर के सबसे बड़े जोखिम समूहों में शामिल हो सकता है।यह स्थिति इसलिए और भी चिंताजनक है क्योंकि यही वर्ग किसी भी देश की अर्थव्यवस्था,सामाजिक संरचना और पारिवारिकव्यवस्था की रीढ़ माना जाता है। यदि इस आयु वर्ग में बड़ी संख्या में लोग गंभीर बीमारियों से ग्रस्त होते हैं, तो इसका प्रभाव केवल स्वास्थ्य तक सीमित नहीं रहेगा,बल्कि उत्पादकता,रोजगार गरीबी, सामाजिक असमानता और मानसिक स्वास्थ्य तक गहराई से महसूस किया जाएगा।यही कारण है कि आज कैंसर से मुकाबला केवल अस्पतालों और डॉक्टरों की जिम्मेदारी नहीं रह गया है, बल्कि यह सार्वजनिक नीति,शासन व्यवस्था और सामाजिक व्यवहार में मूलभूत परिवर्तन की मांग करता है।
साथियों बात अगर हम कैंसर से प्रतिरक्षात्मक उपायों की करें तो जीवनशैली परिवर्तन, कैंसर रोकथाम की पहली सीढ़ी है,कैंसर के बढ़ते मामलों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि केवल इलाज पर आधारित रणनीति पर्याप्त नहीं है। रोकथाम,समय पर जांच और प्रारंभिक निदान ही इस बीमारी से लड़ने के सबसे प्रभावी हथियार हैं। जीवनशैली में बदलाव जैसे संतुलित आहार, नियमित व्यायाम,तंबाकू और शराब से दूरी, मानसिक तनाव को नियंत्रित करना और प्रदूषण से बचाव,कैंसर के जोखिम को काफी हद तक कम कर सकते हैं। विकसित देशों में सार्वजनिक स्वास्थ्य नीतियों का एक बड़ा हिस्सा इन्हीं निवारक उपायों पर केंद्रित है।स्कूल स्तर से लेकर कार्यस्थलों तक स्वास्थ्य जागरूकता अभियान चलाए जाते हैं, ताकि लोग बीमारी के शुरुआती संकेतों को समझ सकें और समय रहते जांच करा सकें। भारत जैसे विकासशील देश में, जहां स्वास्थ्य संसाधनों पर पहले से ही भारी दबाव है, जीवनशैली आधारित रोकथाम और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।
साथियों बात अगर हम भारत में कैंसर: बढ़ता संकट और असमानताएँ इसको समझने की करें तो,भारत में कैंसर की स्थिति वैश्विक रुझानों से अलग नहीं है,बल्कि कई मामलों में यह और अधिक गंभीर है। जनसंख्या का विशाल आकार, सामाजिक- आर्थिक असमानताएँ, ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच स्वास्थ्य सुविधाओं का अंतर, और जागरूकता की कमी,ये सभी कारक कैंसर के प्रभाव को कई गुना बढ़ा देते हैं। शहरी क्षेत्रों में जहां निजी अस्पताल और उन्नत जांच सुविधाएं उपलब्ध हैं, वहीं ग्रामीण इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भी कई बार बुनियादी संसाधनों से वंचित रहते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि ग्रामीण मरीजों में कैंसर का पता अक्सर बहुत देर से चलता है, जब इलाज की संभावनाएं सीमित हो जाती हैं। इस असमानता का सीधा असर मृत्यु दर पर पड़ता है और यही कारण है कि भारत में कैंसर से होने वाली मौतों का अनुपात कई विकसित देशों की तुलना में अधिक है।
साथियों बात अगर हम सुप्रीम कोर्ट की हस्तक्षेपकारी भूमिका, एक ऐतिहासिक मोड़ इसको समझने की करें तो,भारत में कैंसर प्रबंधन की खामियों को उजागर करने में न्यायपालिका की भूमिका हाल के वर्षों में और अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। चीफ जस्टिस सूर्यकांत की अध्यक्षता वाली बेंच द्वारा कैंसर को देशव्यापी अधिसूचित बीमारी घोषित करने की मांग से जुड़ी जनहित याचिका पर केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी करना इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह याचिका एम्स के सेवानिवृत्त विशेषज्ञ डॉ. अनुराग श्रीवास्तव द्वारा दायर की गई, जिसमें देश के सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे में कैंसर प्रबंधन से जुड़ी गंभीर कमियों की ओर अदालत का ध्यान आकर्षित किया गया। 12 दिसंबर 2025 को केंद्रीयस्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को औपचारिक नोटिस जारी किया जाना यह दर्शाता है कि अब इस मुद्दे को केवल नीति-स्तर की चर्चा तक सीमित नहीं रखा जा सकता।सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को केवल एक कानूनी प्रश्न के रूप में नहीं, बल्कि एक व्यापक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के रूप में देखा है। अदालत ने स्पष्ट रूप से यह संकेत दिया है कि यदि सरकारें समय रहते ठोस कदम नहीं उठातीं, तो इसका खामियाजा लाखों नागरिकों को अपनी जान देकर चुकाना पड़ सकता है।न्यायपालिका का यह रुख भारत में स्वास्थ्य अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में स्थापित करने की दिशा में एक और महत्वपूर्ण पड़ाव माना जा सकता है।
साथियों बात अगर हम कैंसर को अधिसूचित बीमारी का दर्जा क्यों है यह इतना जरूरी? इसको समझने की करें की करें तो किसी बीमारी को अधिसूचित घोषित करने का अर्थ यह होता है कि उसके मामलों की रिपोर्टिंग कानूनी रूप से अनिवार्य हो जाती है।अस्पतालों प्रयोगशालाओं और डॉक्टरों को ऐसे मामलों की जानकारी सरकार को देनी होती है,जिससे बीमारी के प्रसार,भौगोलिक वितरण और जोखिम कारकों का सटीक आकलन किया जा सके।भारत में टीबी, मलेरिया, कोविड-19 जैसी कई बीमारियां अधिसूचित हैं, जिसके कारण इनके मामलों पर निगरानी और नियंत्रण अपेक्षाकृत बेहतर ढंग से किया जा सका। कैंसर को अभी तक देशव्यापी स्तर पर अधिसूचित न किया जाना एक गंभीर नीतिगत चूक मानी जा रही है। याचिकाकर्ता की ओर से अदालत को बताया गया कि देश के 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से केवल 17 ने ही अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य कानूनों के तहत कैंसर को अधिसूचित बीमारी घोषित किया है। इसका अर्थ यह है कि देश का लगभग आधा हिस्सा अभी भी कैंसर मामलों की अनिवार्य रिपोर्टिंग से बाहर है।जब बीमारी के वास्तविक आंकड़े ही सरकार के पास नहीं होंगे, तो प्रभावी नीति निर्माण कैसे संभव हो पाएगा? यही वह बुनियादी प्रश्न है जिसने सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में हस्तक्षेप के लिए प्रेरित किया।
साथियों बात अगर हम आईसीएमआर कैंसर रजिस्ट्री: सीमित कवरेज,सीमित समझ इसको समझने की करें तो, भारत में कैंसर के आंकड़ों का मुख्य स्रोत इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) द्वारा संचालित कैंसर रजिस्ट्री है। लेकिन याचिका के अनुसार, यह रजिस्ट्री फिलहाल देश की केवल लगभग 10 प्रतिशत आबादी को ही कवर करती है। ग्रामीण इलाकों में यह कवरेज मात्र 1 प्रतिशत के आसपास है। इसका सीधा अर्थ यह है कि देश में कैंसर के वास्तविक मामलों का एक बड़ा हिस्सा कभी आधिकारिक आंकड़ों में दर्ज ही नहीं हो पाता।जब डेटा अधूरा होगा,तो उस पर आधारित रणनीतियां भी अधूरी और अप्रभावी ही होंगी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो कई देशों में कैंसर रजिस्ट्री की कवरेज 80 से 100 प्रतिशत तक है। इन देशों में कैंसर की रोकथाम, स्क्रीनिंग और इलाज की योजनाएं इसी व्यापक डेटा के आधार पर बनाई जाती हैं। भारत में डेटा की यह कमी न केवल नीति निर्माण को कमजोर करती है, बल्कि शोध और नवाचार की संभावनाओं को भी सीमित कर देती है। नई दवाओं, उपचार पद्धतियों और रोकथाम कार्यक्रमों के विकास के लिए सटीक और व्यापक आंकड़े अनिवार्य होते हैं।
साथियों बात अगर हम ग्रामीण भारत और कैंसर एक अदृश्य संकट इसको समझने की करें तो,ग्रामीण भारत में कैंसर की स्थिति को अक्सर अदृश्य संकट कहा जाता है। जागरूकता की कमी,सामाजिक रूढ़ियां,आर्थिक तंगी और स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव ये सभी कारक मिलकर कैंसर को एक मूक हत्यारा बना देते हैं। कई बार मरीज शुरुआती लक्षणों को सामान्य बीमारी समझकर नजरअंदाज कर देते हैं। जब तक वे किसी बड़े अस्पताल तक पहुंचते हैं,तब तक बीमारी उन्नत अवस्था में पहुंच चुकी होती है। अधिसूचित बीमारी का दर्जा मिलने से ग्रामीण क्षेत्रों में भी कैंसर मामलों की पहचान और रिपोर्टिंग बेहतर हो सकती है, जिससे समय पर हस्तक्षेप संभव होगा।
साथियों बात अगर हम अंतरराष्ट्रीय अनुभव: भारत के लिए सबक इसको समझने की करें तो,अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई देशों ने कैंसर को सार्वजनिक स्वास्थ्य आपात स्थिति के रूप में देखा है। यूरोप,उत्तरी अमेरिका और कुछ एशियाई देशों में कैंसर स्क्रीनिंग कार्यक्रमों को सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली का अभिन्न हिस्सा बनाया गया है। नियमित मैमोग्राफी, पैप स्मीयर, कोलोनोस्कोपी और लो-डोज सीटी स्कैन जैसे परीक्षणों को उच्च जोखिम समूहों के लिए अनिवार्य या अत्यधिकप्रोत्साहित किया गया है। इन देशों में कैंसर को अधिसूचित बीमारी के रूप में देखने का लाभ यह हुआ कि नीति निर्माण डेटा- आधारित और लक्ष्य-उन्मुख बन सका।भारत यदि इन अंतरराष्ट्रीय अनुभवों से सीख लेकर कैंसर को देशव्यापी अधिसूचित बीमारी घोषित करता है, तो यह न केवल आंकड़ों की गुणवत्ता में सुधार करेगा, बल्कि स्वास्थ्य प्रणाली की जवाबदेही भी बढ़ाएगा। केंद्र और राज्य सरकारों के बीच बेहतर समन्वय स्थापित हो सकेगा और संसाधनों का आवंटन वास्तविक जरूरतों के अनुसार किया जा सकेगा।
साथियों बात अगर हम नीति सुधार और भविष्य की दिशा इसको समझने की करें तो,कैंसर को अधिसूचित बीमारी घोषित करना केवल पहला कदम होगा। इसके साथ-साथ व्यापक नीति सुधारों की भी आवश्यकता है। प्राथमिक स्वास्थ्य स्तर पर स्क्रीनिंग सुविधाओं का विस्तार, जिला स्तर पर कैंसर उपचार केंद्रों की स्थापना, स्वास्थ्य कर्मियों का प्रशिक्षण और डिजिटल हेल्थ रिकॉर्ड्स का एकीकृत ढांचा ये सभी कदम समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा, स्वास्थ्य बीमा योजनाओं में कैंसर उपचार को पर्याप्त कवरेज देना और मरीजों के लिए आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करना भी जरूरी है।सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मुद्दे पर जवाब तलब करना यह संकेत देता है कि अब कैंसर को नजरअंदाज करने की गुंजाइश नहीं बची है।यह मामला केवल कानूनी बहस का विषय नहीं, बल्कि करोड़ों भारतीयों के जीवन और भविष्य से जुड़ा हुआ प्रश्न है। यदि समय रहते ठोस कदम उठाए गए, तो भारत न केवल कैंसर से होने वाली मौतों को कम कर सकता है, बल्कि एक मजबूत, डेटा-आधारित और न्यायसंगत सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की ओर भी बढ़ सकता है।
अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे क़ि एक साझा जिम्मेदारी, अंततः कैंसर से लड़ाई सरकार, न्यायपालिका चिकित्सा समुदाय और समाज,सभी की साझा जिम्मेदारी है। जीवनशैली में बदलाव से लेकर नीति सुधार तक, हर स्तर पर समन्वित प्रयासों की आवश्यकता है। सुप्रीम कोर्ट की पहल ने इस बहस को राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में ला दिया है।अब यह सरकारों पर निर्भर करता है कि वे इस अवसर को एक ऐतिहासिक सुधार में बदलती हैं या इसे भी एक और फाइल में बंद कर देती हैं। कैंसर जैसी भयावह बीमारी के संदर्भ में देरी का अर्थ है अनगिनत जिंदगियों का नुकसान। इसलिए समय की मांग है कि भारत कैंसर को देशव्यापी अधिसूचित बीमारी घोषित कर, एक मजबूत और संवेदनशील सार्वजनिक स्वास्थ्य भविष्य की नींव रखे।
-संकलनकर्ता लेखक – क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए(एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र 9284141425

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Tags: कैंसर बीमारी-
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