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सरकार की प्राथमिकताओं में गुणवत्ता पूर्ण और निशुल्क प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने पर काफी बातें होती हैं, लेकिन इसमें जुटा सरकारी तंत्र और विद्यालय जो नतीजे दे रहे हैं, वे चिंताजनक हैं। भारत जैसे देश में निजी संस्थाओं को छोड़ दें, तो सरकारी विद्यालय कैसे हैं, यह सर्वविदित है। एक कटु सत्य भी है कि प्राचीन काल में हमारी बाल शिक्षा, जिसे अब प्राथमिक कह सकते हैं, विश्व में सबसे अलग थी। गुरुकुल की सबसे पुरानी परंपरा का उदाहरण आज भी दुनिया देती है। इसी कारण भारत विश्व गुरु कहलाया । गुरुकुलों को पहले मुगलों ने प्रभावित किया, फिर अंग्रेजों ने बंद ही करवा दिया। इस पद्धति में दंड नहीं दिया जाता था, लेकिन मुगलों दौर में बदलाव लाकर शिक्षक को दंड पकड़ा दिया गया। अंग्रेजी हुकूमत ने गुरुकुलों को गैर-कानूनी तक घोषित कर दिया।
प्राथमिक शिक्षा की गुरुकुल पद्धति कैसी थी, इसके उदाहरण दिए जाते हैं। यह कैसे नष्ट हुई, इस पर विदेशी विद्वानों की भी चिंताएं सामने आईं। अमेरिका के प्रसिद्ध लेखक, इतिहाकार एवं दार्शनिक विलियम जेम्स डुरांट की किताब ‘द स्टोरी आफ सिविलाइजेशन’ में बड़ी साफगोई से काफी कुछ लिखा गया है। इसकी कुछ पंक्तियां सच्चाई दर्शाती हैं, ‘भारत से ही हमारी सभ्यता की उत्पत्ति हुई थी। संस्कृत सभी यूरोपीय भाषाओं की मां है। हमारा समूचा दर्शन संस्कृत से उपजा है। हमारा गणित इसकी देन है। लोकतंत्र और स्वशासन भी भारत से ही उपजा है।’ विडंबना देखिए कि आज कि आज उस देश में शिक्षा व्यवस्था को लेकर पीड़ा व्यक्त की जाती है, लेकिन जो सत्य है, वह के सामने है। इसी पुस्तक में वे लिखते हैं कि ‘भारत के बारे में पुख्ता ढंग से मामले में मैं के पूर्व और बहुत गरीब सिद्ध हुआ हूँ। लिखने के पहले दो लिखने के पश्चिम की यात्राएं की। उत्तर से लेकर दक्षिण के शहर देखें।
पुरानी सभ्यता के सामने मेरा ज्ञान सामने मेरा ज्ञान बहुत तुच्छ और टुकड़ का है। इसके दर्शन, साहित्य, धर्म और कला का विश्व में कोई सानी नहीं है। इस देश की अंतहीन धनाढ्यता इसकी ध्वस्त हो चुकी शान और ‘स्वतंत्रता के लिए शस्त्रहीन संघर्ष’ से अब भी झांकती है। यहां मेहनतकश स्तकश लोगों को अपने सामने भूख से मरते देखा। ये अकाल या जनसंख्या वृद्धि से नहीं, बल्कि ब्रिटिश शासन की चाल से तिल-तिल कर मर रहे थे। भारतीयों के साथ घिनौना अपराध इतिहास में दर्ज हो चुका है। अमेरिकी होकर भी मैं ब्रितानियों के इस अत्याचार की निंदा करता है।’
जब अंग्रेज भारत आए तो देश में शिक्षा का एक सुगठित ढांचा था। बच्चे गुरुकुल में में पढ़ते थे। अंग्रेजों ने इस प्राचीन शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त कर व्यावसायिक विद्यालयों को बढ़ावा दिया। उन्होंने प्राचीन शिक्षा व्यवस्था का आधा हिस्सा तो आते ही तबाह कर दिया। इसके बाद भारत में शिक्षा आमजन के लिए आसान नहीं रही। यहां 1850 तक सात लाख 32 हजार गुरुकुल थे। यानी प्रत्येक गांव में एक प्राथमिक विद्यालय था, जिसकी शिक्षा व्यवस्था अत्यंत उन्नत थी। वर्ष 1858 में भारतीय शिक्षा कानून’ बनाया गया, जिसका मसविदा मैकाले का था। इस तरह बड़ी साजिश के तहत गुरुकुलों का अस्तित्व समाप्त कर उसे पाश्चात्य रंग में रंगने और फूट डालो शासन करो की नीति के तहत षडयंत्र हुए। गुरुकुलों का दमन कर ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनाई कि स्वतंत्रता के 77 वर्षों के बाद भी यह भटकी हुई लगती है।
भारत के बाद डेनमार्क दुनिया का पहला देश कहलाया, जिसने अनिवार्य सामूहिक शिक्षा की सरकार नियंत्रित प्रणाली शुरू की। यहां 1721 में स्कूल विकसित हुए। वर्ष 1814 में समन्वय आयोग की रपट बाद शिक्षा प्रणाली का आधार बना। जबकि इंग्लैंड में प्राथमिक शिक्षा की अंग्रेजी प्रणाली पश्चिमी यूरोप के दूसरे देशों की तुलना विकसित हुई। उन्नीसवीं सदी में ज्यादातर प्राथमिक शिक्षा चर्च द्वारा मुख्य रूप से गरीब बच्चों को दी जाती थी। शिक्षा के विस्तार में सरकार की रुचि नहीं थी। * 1860 में प्राथमिक विद्यालयों के संगठन से संबंधित नियमों की एक राज्य संहिता तैयार कराई और 1862 2 में इसे समायोजित किया। स्कूली पाठ्यक्रमों की गुणवत्ता और निरीक्षण की छात्रों के पढ़ने-लिखने के स्तर राष्ट्रीय प्रणाली बनाई गई। इसमें कुछ स्कूलों के लिए वित्तपोषण और गणित कौशल की जांच जांच होती थी। तय होता था। वर्ष 1900 तक उत्तरी अमेरिकी देशों, देशों आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और उत्तरी-पश्चिमी यूरोप के कुछ देशों ने स्कूली शिक्षा के प्रसार में अग्रणी भूमिका निभाई। उत्तरी यूरोपीय देशों के अधिकांश | देशों में नामांकन 60 से 75 फीसद तक था, जबकि अन्य क्षेत्रों में, विशेषकर एशिया (जापान को छोड़ कर), मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में स्कूली शिक्षा का प्रसार काफी न्यून था। प्राथमिक शिक्षा के प्रसार में जापान की उन्नीसवीं सदी में सबसे उल्लेखनीय स्थिति रही। जापान की तुलना थाईलैंड में प्राथमिक शिक्षा का प्रसार ज्यादा सफल रहा। समझा जा सकता है कि इसकी प्रेरणा भारतीय गुरुकुल पद्धति से ही से ही मिली।”
पूरे विश्व ने भारतीय गुरुकुलों की शिक्षा के महत्त्व को समझा। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि प्राथमिक शिक्षा, “जिसकी सदियों पहले भारत ने गुरुकुल परंपरा से शुरुआत की, वह विश्व का अग्रदूत बना। उसने शिक्षा, विशेषकर प्राथमिक शिक्षा, पर सबको संदेश दिया। मगर विद्वेष, आपसी फूट फूट और र गुलामी के चलते इसे समाप्त करने की साजिश हुई। इसमें मैकाले की चाल सफल रही। फिर भी विश्व, बाल शिक्षा के महत्त्व का भारतीय संदेश समझ चुका था। हो भी क्यों न, राष्ट्रों के निर्माण और शक्ति के लिए जन शिक्षा के महत्त्व का अलख भारत ने ही
जगाया था। गुलामी से | से मुक्ति के बाद भारत में भी शिक्षा, विशेषकर र प्राथमिक शिक्षा, को लेकर बदलाव होते रहे। यह कैसी विडंबना है कि 1823 में सौ फीस साक्षरता वाला देश 1947 में महज 12 फीसद साक्षरता पर आ गया। इसी चुनौती से निपटने के लिए आज कई प्रयास हो रहे हैं। हो स्वतंत्रता के सतहत्तर वर्षों के बाद भी शिक्षा को लेकर अव्यवस्था, लिंग, भाषाई तथा भौगोलिक अंतर की खाई को नहीं पाटा जा सका। यह प्राथमिक शिक्षा में साफ झलकती है। 2023 की वार्षिक शिक्षा स्थिति रपट के अनुसार, आठवीं कक्षा के तीन में से एक छात्र दूसरी कक्षा के छात्र के स्तर पर नहीं पढ़ सकता है तथा आधे से अधिक बुनियादी विभाजन नहीं कर सकते हैं। 14 से 18 वर्ष की आयु के एक चौथाई अपनी क्षेत्रीय | भाषाओं में दूसरी कक्षा का पाठ धाराप्रवाह नहीं पढ़ सकते हैं। आज सरकार नियंत्रित प्राथमिक विद्यालयों पर और ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। नए दौर में शिक्षकों को ज्यादा सुविधाएं देकर यदि हम अपनी नींव को मजबूत करने की दिशा में बढ़ेंगे, तो पूरे देश में नया वातावरण बनेगा। शिक्षकों को भी पूर्ण समर्पण से जुटना होगा। शिक्षा में अमीर-गरीब, जात-पात और ऊंच-नीच का भेदभाव समाप्त कर हम देश को दोबारा गुरुकुल परंपरा की ओर ले जा सकते हैं।