BREAKING NEWS EXPRESS
— डॉ. रामावतार सागर,सहायक आचार्य हिंदी,
राजकीय कला महाविद्यालय, कोटा (राज.)
गंगापुर सिटी (राजस्थान) के पास एक छोटे-से ग्राम पिपलाई में 30 जून 1979 में जन्मे ए.एफ. नज़र मूलत: ग़ज़लकार हैं। उनका राजस्थान साहित्य अकादमी के सहयोग से पहला ग़ज़ल संग्रह ‘पहल’ प्रकाशित हुआ, फिर दूसरा ग़ज़ल संग्रह ‘सहरा के फूल’, ये दोनों संग्रह बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित हुए। किताबगंज प्रकाशन, गंगापुरसिटी से उनकी ग़ज़लों का तीसरा गुलदस्ता ‘लोबान’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। यहाँ से ए.एफ. नज़र आलोचना के क्षेत्र में अपने कदम बढ़ाते हैं और हिंदी ग़ज़ल की आलोचना पर उनकी पहली पुस्तक ‘हिंदी ग़ज़ल के इम्कान’ शीर्षक से 2021 में प्रकाशित होती है। हिंदी आलोचना, विशेषकर हिंदी ग़ज़ल की आलोचना में यह एक ऐसा मौलिक कार्य है, जिसकी कमी आलोचना के क्षेत्र में बड़ी शिद्दत से महसूस की जा रही थी। अपने दौर के साहित्य को कसौटियों पर परखना एक संवेदनशील हृदय के साथ-साथ नीर-क्षीर विवेक का भी कार्य है और ए.एफ. नज़र साहब इस क्षेत्र में भी सफल आलोचक के रूप में नज़र आते हैं। इसी कड़ी में ‘कविता के नए प्रतिमान : एक पुनर्विचार’ उनकी नई आलोचनात्मक पुस्तक है, जिसमें बदलते समय और समाज के साथ कविता के बदले हुए प्रतिमानों पर न केवल पुनर्विचार किया है, बल्कि कुछ नए प्रतिमान भी गढ़े हैं, जो इक्कीसवीं सदी की कविता का सटीक मूल्यांकन करने में पाठकों की सहायता करते हैं।
इस पुस्तक की आवश्यकता क्यों अनुभव हुई। इसका प्रत्युत्तर पुस्तक की भूमिका में देते हुए ए.एफ. नज़र साहब लिखते हैं— तारसप्तक के प्रकाशन को 80 वर्ष और कविता के नए प्रतिमान के प्रकाशन को 56 वर्ष हो चुके हैं। हम देखते कि जनसंचार के मुद्रण आदि दृश्य माध्यमों के बाद रेडियो, टेलीविज़न, कम्प्यूटर आदि श्रव्य और श्रव्य-दृश्य माध्यमों और इन्टरनेट, सोशल मीडिया, यूट्यूब, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि के आगमन से वाचिक कविता और श्रोता के संबंध भी अब नया रूप ग्रहण कर चुके हैं।”
डॉ. नामवर सिंह की पुस्तक ‘कविता के नए प्रतिमान’ में नई कविता के संदर्भ में नए प्रतिमानों की खोज की गई थी, जिसके केंद्र में ‘तार सप्तक’ और नई कविता के कवि थे।ए.एफ. नज़र की पुस्तक के केंद्र में इक्कीसवीं सदी की कविता है, मुख्य रूप से हिंदी ग़ज़ल है।ए.एफ. नज़र ने डॉ. नामवर सिंह के प्रतिमानों के साथ-साथ 21वीं सदी के दौर के परिप्रेक्ष्य में नए प्रतिमानों को उजागर किया। ‘कविता के नए प्रतिमान : एक पुनर्विचार’ पुस्तक— 1.कविता क्या है?, 2. मुक्तछंद : द्वंद्वों की अराजकता बनाम अनुकूल छंद की तलाश, 3.आधुनिक कविता के संदर्भ में रस सिद्धांत, 4. काव्य भाषा और सृजनशीलता, 5. काव्य बिंब और सपाटबयानी, 6. काव्य संरचना : प्रगीतात्मक और नाटकीयता, 7. विसंगति और विडंबना, 8. अनुभूति की जटिलता और तनाव, 9. ईमानदारी और प्रामाणिक अनुभूति, 10.परिवेश और मूल्य, 11. पठनीयता और श्रवणीयता, 12. अनेकार्थ और इबहाम, 13.औचित्य और काव्यत्व, 15. सोशल मीडिया के युग में वाचिक कविता की प्रासंगिकता;
शीर्षकों में विभाजित है, जिसमें अधिकांश नामवर सिंह की पुस्तक पर आधारित है। लेखक ने उन पर आधुनिकता, उत्तरआधुनिकता संरचनावाद, विखंडनवाद जैसे नए सिद्धांतों के आधार पर मूल्यांकन किया है। ए.एफ. नज़र की इस कृति में इक्कीसवीं सदी की कविता में मुक्तछंद और छंदयुक्त कविता में जो विवादित परिस्थियाँ हैं, उन पर भी दृष्टिपात करने का गहन और सफल प्रयास किया गया है। जहाँ नामवर सिंह ने अपनी पुस्तक में नई कविता अर्थात् मुक्तछंद की कविता को महत्व दिया था वहीं ए.एफ. नज़र ने अपनी पुस्तक में यह निष्कर्षत: कहा है कि ग़ज़ल ने छंदयुक्त कविता की अगुवाई की है और छंदयुक्त कविता के दौर को एक बार फिर ज़िंदा किया है। इसी पुस्तक के एक लेख “मुक्तछंद : छंदों की अराजकता बनाम अनुकूल छंद की तलाश” में वे लिखते हैं कि— “इस प्रकार अनुकूल छंद की तलाश प्रयोगों की श्रृंखला के रास्ते मुक्तछंद से होते हुए ग़ज़ल तक आ पहुँची”। अपने आलेख ‘आधुनिक कविता के संदर्भ में रस सिद्धांत’ में नज़र साहब ने अपने गहन स्वाध्याय का परिचय दिया है। भारतीय रस सिद्धांत के साधारणीकरण की विवेचना के साथ-साथ पाश्चात्य संरचनावाद एवं उत्तर संरचनावाद की मीमांसा करते हुए वे जहाँ एक ओर आचार्य रामचंद्र शुक्ल की रस-दशा का वर्णन करते हैं, वहीं दूसरी ओर पाश्चात्य समीक्षा पद्धित में ‘अहम का विसर्जन’ (इम्पर्सनालिटी) नि:संगता (डिटैचमेंट) का भी उदाहरण देते हुए निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि; का अभाव कविता का अभाव है। रस कविता का प्राण है। अत:कविता में रस की सत्ता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। आधुनिक युग की आवश्यकताओं के अनुरूप रस-सिद्धांत का विकास किया जा सकता है। एक और नया रस
;द्वंद्व रसजिसका स्थायी भाव द्विविधा है, को मानने से नई कविता की रस संबंधी समस्याओं का समाधान संभव है।”यहाँ उल्लेखनीय है कि नज़र साहब आधुनिक कविता में रस की अनिवार्यता को स्वीकार तो करते ही हैं साथ ही आधुनिक कविता में रस संबंधी निराकरण हेतु एक नवीन रस ‘द्वंद्व रस’ को भी स्वीकार करते हैं।
इस पुस्तक में ए.एफ. नज़र ने कई स्थानों पर डॉ. नामवर सिंह के विचारों से भी असहमति जताई है। मसलन— नामवर सिंह के काव्यभाषा और सृजनशीलता के प्रतिमान की पड़ताल करते हुए ए.एफ. नज़र लिखते हैं— “सृजनशीलता-दुरूहता पर्याय मान ली गई, इसी प्रकार जीवनानुभवों की जटिलता- भाषायी जटिल के रूप में ढल गई, मानसिक तनाव, दुविधा और उलझन- भाषायी तनाव, दुविधा और उलझन मान लिया गया। इस अवधारणा का परिणाम यह हुआ कि दुरूह और जटिल भाषा का आविष्कार व प्रयोग कवि के जटिल युग-बोध की अनुभूति और अभिव्यक्ति का प्रमाण माना जाने लगा।” ए.एफ. नज़र की आलोचकीय प्रतिभा उनके द्वारा बनाए गए कविता के नए प्रतिमानों में और अधिक निखर कर सामने आती है— ‘पठनीयता और श्रवणीयता’, ‘अनेकार्थता और इबहाम’, ‘औचित्य और
काव्यत्व’, ‘सोशल मीडिया के युग में वाचिक कविता की प्रासंगिकता’ आदि विषयों पर वे खूब विस्तार से चिंतन-मनन करते हैं और अपना निष्कर्ष भी देते हैं। ‘पठनीयता और श्रवणीयता’ लेख में ए.एफ. नज़र लिखते हैं—“ इस प्रकार हम अपने विवेचन में पाते हैं कि चूँकि लेखक या कवि अपने;व्यक्ति-सत्य; को ;व्यापक-सत्य बनाना चाहता है या वह अपनी बात को पाठक-वर्ग तक संप्रेषित करना चाहता है। अत: कवि /लेखक कविता या पाठ की काव्य वस्तु और काव्य-भाषा पाठक-वर्ग या श्रोता-वर्ग के अनुसार प्रयुक्त करे अर्थात् पाठ की पठनीयता या भाषण की श्रवणीयता उसके लिए प्रथम शर्त है।”
इस प्रकार वे मानते हैं कि— “साधारणीकरण में बाधक जटिलता अथवा;गूढ़ार्थता (इबहाम) को दोष ही माना जाना चाहिए।” इसी प्रकार सोशल मीडिया के युग में वाचिक कविता की प्रासंगिकता पर विचार करते हुए वे लिखते हैं— “अत: यह प्रमाणित सत्य है कि मुद्रित कविता मृत कविता है और पुस्तक उसकी .कब्र है। मुद्रित कविता भी अपने पठन अथवा वाचन की अवस्था में ही जीवंत होती है। यह कहना आवश्यक नहीं कि मुद्रित कविता गुज़रे जमाने की वस्तु है, लेकिन यह सत्य है कि वाचिक कविता अब पहले से अधिक प्रासंगिक और श्रोता के लिए अधिक सहजग्राह्य और स्वाभाविक है।”
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि नज़र साहब की यह पुस्तक आधुनिक कविता के प्रतिमानों का न केवल गहन विश्लेषण करती है, वरन् कई स्थापनाएं भी करती है। अनेक पुस्तकों के अध्ययन और विवेचन के पश्चात नज़र साहब की यह नायाब पुस्तक पाठक संसार के सामने आई है। इस पुस्तक का परिणाम है कि कई प्रकार की बहस अब सोशल मीडिया पर प्रारंभ हो गई है। मुक्तछंद और छंदयुक्त कविता पर नए सिरे से विचार किया जाने लगा है। यह नज़र साहब की उपलब्धि है।
वेरा प्रकाशन ने 232 पृष्ठ की इस पुस्तक को बड़े ही आकर्षक आवरण पृष्ठ के साथ प्रकाशित किया है। आलोचना के क्षेत्र में यह पुस्तक मील का पत्थर साबिल होगी, और शोधार्थियों के बीच समादृत भी होगी, ऐसी कामना है। एक नायाब पुस्तक के लिए नज़र साहब को बहुत-बहुत बधाई।
पुस्तक : कविता के नए प्रतिमान : एक पुनर्विचार