डा• आकांक्षा दीक्षित(BREAKING NEWS EXPRESS)
‘क्या हुआ पुत्री !’
यह प्रश्न पूछते हुये ऋषि की हम कल्पना कर सकते है कि अपनी प्रिय कन्या को दुखी देख उसके नेत्रों में भरे जल में पिता को अपना अस्तित्व निमग्न होता सा लगा होगा ।अपाला को भी संभवतः हमारे जैसे ही प्यार करने वाले माता-पिता मिले, इसीलिये उन्होंने कहा होगा ,’पुत्री तुम केवल एक शरीर नहीं हो एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व हो ।उठो और अपना उद्धार स्वयं करो।’ये मिथ्या कल्पना नहीं है इसका जीवंत सत्य आप शीरोज कैफे में देख सकते है, जहां सौन्दर्य के प्रतिमानों से विलग स्वयंसिद्धायें अपनी पूरी आभा से प्रतिष्ठित है । एक दृढ़संकल्पित व्यक्तित्व सहस्रों के लिये उदाहरण प्रस्तुत करता है ।अपाला एक वैसा ही उदाहरण है जिसने अपनी कमी से अपना आत्मबल टूटने ना दिया वरन उसे आधार बना कर अपनी आध्यात्मिक उन्नति की और यहीं नहीं अपनी शारीरिक कमी को भी विजित कर लिया ।
अत्रि ऋषि वैदिक ऋषियों में एक आदरणीय स्थान रखते है।मंत्रदृष्टा अत्रि ऋषि की कोई संतान नहीं थी ।बहुत समय पश्चात उन्हें एक कन्या की प्राप्ति हुई।ऋषि दम्पत्ति प्रसन्नता पूर्वक अपनी कन्या का पालन-पोषण करने लगे।उन्होंने प्रेम से अपनी पुत्री का नाम अपाला रखा।संस्कारशील,विद्वान, मंत्रदृष्टा और शिक्षा का महत्व जानने वाले ऋषि की पुत्री का संस्कारवान और विदुषी होना स्वाभाविक सा है।अपाला के शुभ आचार से ऋषि का आश्रम और भी अधिक पवित्र हो गया। तभी अपाला के सुन्दर शरीर पर श्वेत कुष्ठ के चिह्न दृष्टिगोचर हुये।महर्षि का सम्पूर्ण हर्ष, विषाद मे बदल गया।बहुत सी औषधियों का प्रयोग भी सार्थक सिद्ध ना हुआ । अपनी एकमात्र संतान के इस शारीरिक दोष से ऋषि का दुखी होना स्वाभाविक था पर वे ऋषि थे, ज्ञानी थे ,उन्हें ज्ञात था कि इसका उपाय यहीं है व्यक्तित्व का विकास उच्चतम स्तर तक करने का प्रयास किया जाये।उन्होंने अपाला की शिक्षा पर विशेष ध्यान देना और उसे हर संभव ज्ञान देना आरंभ किया।परिणामतः ब्रह्मवादिनी अपाला विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न बन गयी।ऋषि कुमार कृशाश्व ने अपाला से विवाह की इच्छा प्रकट की और इसप्रकार अपाला पतिगृह आ गई । कुछ समय तक सब ठीक रहा फिर अपाला ने अपने पति की उदासीनता अनुभव की ।वे इसका कारण भी समझ गई ।
उनके पति उनसे प्रभावित होते हुये भी वाह्य सौंदर्य की अपेक्षा रखते है इस बात ने उन्हें आत्मिक कष्ट पहुँचाया।अपाला ने भारतीय नारी की तेजस्विता और स्वाभिमान का परिचय देते हुये तपश्चर्या का निश्चय किया। अपने पिता की कुटिया को अपने कलनाद से निनादित करने वाली ,अपने प्रखर व्यक्तित्व और वैदुष्य से वैदिक मण्डली को अभिभूत कर देने वाली ऋषि कन्या को लगा कि बाहरी सौंदर्य के अभाव में यह ज्ञान भी सार्थक नहीं है,यहीं सोचकर वे इंद्र की प्रसन्नता हेतु तप में लीन हो जाती है।यह बात भी उस समय की नारी की निर्णय लेने की क्षमता और स्वतंत्रता दोनों को स्पष्ट करती हैं ।
अपाला का दृढ़ विश्वास था कि मानसिक और शारीरिक दुर्बलता को दूर करने का सर्वोत्तमसाधन तप है। तपस्या की अग्नि में तपकर मानव कंचन बन जाता है। वृत्रहंता इंद्र को अपाला ने अपने तप से प्रसन्न किया । उन्हें पता था कि इंद्र को सोमलता का रस प्रिय है उनको अर्पित करने के लिये कोई साधन ना होने पर अपने दाँतो से रस निकाला । तदननंतर अपाला ने ‘सुलोमा’ बनने की इच्छा प्रकट की। इंद्र ने अपने रथ के छिद्र से अपाला का शरीर तीन बार निकाला, जिससे अपाला की त्वचा तीन बार उतरी। पहली अपहृत त्वचा ‘शल्यक'[ बन गई, दूसरी ‘गोधा’ और तीसरी अपहृत त्वचा ‘कृकलास’ बनी। इस प्रकार अपाला का कुष्ट पूर्ण रूप से ठीक हो गया। ऋग्वेद के अनुसार अपाला की दृढ़इच्छाशक्ति,निश्छल भावना ने इंद्र देव को प्रभावित किया ।
उनकी शुद्ध भावना देख इंद्र ने दांतों से निकाले सोमरस को भी पी लिया और उन्हें तीन वर दिये। ऋग्वेद के अष्टम मण्डल के 91वें सूक्त की मंत्रदृष्ट्री ब्रह्मवादिनी ” अपाला ” है।संहिताकाल में कन्याओं का अपने मातृ-पितृ कुल के लिये कितना स्नेह और आदर था इसका परिचय अपाला द्वारा रचित मंत्र 5और 6 से मिलता है।इनमें अपाला इंद्र से वरदान मांगते समय कहती है –
‘हे इंद्र!सर्वप्रथम मेरे पिता(अत्रि) के खल्वाट सिर पर केश हो जाये।
मेरे पिता के ऊसर खेत उपजाऊ हो।’
अंत मे सुलोमा(शरीर के सौन्दर्य का और कुष्ठ दाग दूर करने का) होने का वर मांगती है
“इमामि त्रीणि विष्टपा तानीन्द्र वि रोहय।
शिरस्ततस् र्योर्वरामादिदं म उपोदरे ।।
अस् च या नं उर्वरामिदमां तन्वं मम् ।
अथो ततस्य यच्छिरः सर्वा ता रोमशा कृधि।।”
अपाला द्वारा यह सूक्त साहित्यिक सौंदर्य से भी अनुपम है। इंद्रदेव को प्रसन्न करने में पंक्ति एवं अनुष्टुप छन्द का निर्वाह भली-भांति किया गया है।धन्य है भारत भूमि और धन्य है यहां की संकल्प शक्ति की धनी अपाला जिन्होंने अपनी नियति बदल दी।अपाला के पति भी नारी शक्ति के आगे नतमस्तक भी हो गये। अपने व्यवहार पर लज्जित भी हुये तथा उन्होंने अपाला की मुक्तकंठ से सराहना की।अपनी तपश्चर्या से सुलोमा बनने वाली इस नारी रत्न ने सात मंत्रो का साक्षात्कार किया ।इस बात की पुष्टि सातवें मंत्र से होती है जिसमें मंत्रदृष्ट्री ने अपने नामोच्चारण के साथ इंद्र की स्तुति करते हुये कृतज्ञता व्यक्त की है-‘सोमरसपायो इंद्र ने प्रसन्न होकर त्वचा दोष को दूर करके अपाला के शरीर को सूर्य के समान दैदीप्यमान कर दिया है।’
“अपालामिन्द्र त्रिष्पूत्व्यकृणोः सूर्यत्वचम्।।”
एक भारतवासी होने के कारण हमें सदैव अपनी संस्कृति पर गर्व
होना चाहिए।यह विश्व की प्राचीनतम जीवित सभ्यता होने का गौरव रखने के साथ एकमात्र ऐसी संस्कृति है जो नारी को देवी मानती है, मातृशक्ति का पूरा आदर करती है। हमारे देश में विदुषी स्त्रियों की एक लम्बी परम्परा रही हैं । ऐसी ही एक विदुषी का नाम है अपाला। वे इसलिये भी आदरणीय है क्योंकि अपनी तपश्चर्या से उन्होंने लगभग असंभव को संभव किया। यहां यह भी विचारणीय है कि हम हजारों वर्ष पूर्व के कालखण्ड की चर्चा कर रहे है।
इसप्रकार की अनेक विदुषी नारियां हमारे अतीत का अविभाज्य अंग है । हमारी वर्तमान और भावी पीढ़ी का परिचय यदि इस प्रकार के अनेकानेक चरित्रों से हो, जो विस्मृत कर दिये गये हैं, तो निःसंदेह एक स्वस्थ समाज की स्थापना में सहायक होगा।
डा• आकांक्षा दीक्षित