LUCKNOW-बहुत बुरा हाल है यूपी में स्वास्थ्य सेवाओं का। 

मरीज बेहाल अधिकारी और मंत्री लगे हैं तबादला उद्योग में  

खबरें हटके

LUCKNOW-बहुत बुरा हाल है यूपी में स्वास्थ्य सेवाओं का। 

मरीज बेहाल अधिकारी और मंत्री लगे हैं तबादला उद्योग में  

बृजेश चतुर्वेदी
उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं का बहुत बुरा हाल है। देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य में अगर देखा जाए तो यहां पर सरकारी अस्पतालों की संख्या बहुत कम है और जो है भी वहां पर ना तो समय से डॉक्टर बैठते हैं न स्टोर रूम में दवाई मिलती हैं। अधिकारी और डॉक्टर सब मरीजों को लूटने में लगे प्रदेश की आबादी 24 करोड़ से ऊपर पहुंच गई है किंतु देखा जाए तो प्रदेश में अस्पतालों की संख्या 5834 है इसमें से 2949 सरकारी अस्पताल और 2410 प्राइवेट या निजी अस्पताल है सरकारी अस्पतालों का हाल यह है वहां मरीजों को न तो कोई देखने वाला है और न ही उन्हें दवाई सुलभ हो पाती है आज भी सरकारी अस्पतालों में बाहर से दवाइयां खरीदने का पर्चा लिखने का दस्तूर जारी है। उत्तर प्रदेश में इस समय कुल 76 जिले हैं। हर जिले में एक एक मेडिकल कॉलेज अभी हाल में ही खुला हैं इसके अलावा प्रदेश में तहसीलों की संख्या 351 और विकासखंड की संख्या 822 है तहसीलों में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और ब्लॉक स्तर पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की स्थापना की बात कही जाती है लेकिन एक सर्वे से पता चला है कि तहसील में स्थित अस्पतालों में डॉक्टरों की उपस्थिति की संख्या 30% से अधिक नहीं है इसी प्रकार ब्लॉक स्तर के अस्पतालों का भी बुरा हाल है किसी भी केंद्र पर जाकर देखा जा सकता है कि सवेरे से ही मरीजों की लंबी-लंबी लाइन लगी रहती हैं और डॉक्टर मरीज को देखने के बजाय व्यस्त नजर आते हैं। सरकारी अस्पतालों में मरीजों की उपेक्षा के चलते ही प्रदेश में निजी अस्पताल और प्राइवेट नर्सिंग होम फल फूल रहे हैं। इन प्राइवेट अस्पतालों में जहां मरीजों का खून सूई लगाकर निकाला जाता है वहीं पर निजी नर्सिंग होम का एक मरीज का बिल लाखों में आता है। मरता क्या न करता मरीजों को फिर भी मजबूरी में प्राइवेट अस्पतालों का ही सहारा लेना पड़ता है। सरकारी अस्पतालों में देखा जाए तो एक अस्पताल पर सालाना 80000 से अधिक और कहीं-कहीं पर तो लाख के ऊपर मरीजों का बोझ रहता है ऐसे में उनके पास न मरीजों को देखने का समय होता है और न ही उन्हें स्टोर से दवाई मिल पाती है। राजधानी लखनऊ का ही हाल देखा जा सकता है यहां पर लगभग आधा दर्जन मेडिकल कॉलेज और इतने ही अस्पतालों की संख्या है लेकिन कहीं भी भीड़ को देख करके अंदाजा लगाया जा सकता है कि लोग कितने परेशान हैं। मरीज को सही से इलाज मिले और उन्हें उन पर ज्यादा खर्च न करना पड़े इसके लिए भारत सरकार ने कुछ अच्छी योजनाएं शुरू की है इन्हीं में से एक है प्रधानमंत्री आयुष्मान कार्ड योजना लेकिन यह योजना राजनीति और नौकरशाही के मकड़ जाल में इस कदर जकड़ गई है जिसका सही लाभ लोगों को मिल नहीं पाता है उत्तर प्रदेश की आबादी 24 करोड़ से ऊपर पहुंच गई है लेकिन 3 साल की मशक्कत के बाद यहां पर अभी एक करोड़ से कुछ ही अधिक आयुष्मान कार्ड बन पाए हैं कारण स्पष्ट है कि पूरे देश में आयुष्मान कार्डों की संख्या 5.13करोड़ ही पहुंच पाई है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि अस्पतालों में जितनी परेशानी इलाज के लिए होती है उससे कहीं अधिक परेशानी आयुष्मान कार्ड बनाने में होती है। सबसे पहले तो आयुष्मान कार्ड का आवेदन करने की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि सामान्य आदमी तो छोड़िए अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे आदमी भी इस योजना में फॉर्म भरना नहीं चाहते हैं अगर किसी ने फॉर्म भर दिया तो कम से कम एक हफ्ता इंतजार करेगा कि उसका फार्म स्वीकार हुआ कि नहीं परिवार में जितने लोगों का नाम उसने फॉर्म में भरा है उसमें से एकाध के नाम कार्ड आ जाए तो बहुत बड़ी बात है। सबसे पहले दिक्कत यह आती है की तमाम ऐसे अस्पताल हैं जहां पर आयुष्मान कार्ड स्वीकार नहीं किया जाता यदि कोई मरीज लेकर गया तो उनको टका सा जवाब दिया जाता है हमारे यहां यह कार्ड मान्य नहीं है जबकि सरकार दावा करती है कि यह प्राइवेट और सरकारी दोनों अस्पतालों में मान्य है लेकिन वहां के डॉक्टर और नौकरशाही को जैसे आदत पड़ गई है कि मरीजों को जानबूझकर परेशान किया जाए। इसकी वजह यह है कि अगर आयुष्मान कार्ड से इलाज किसी का हुआ तो उनका प्राइवेट अस्पतालों में इलाज करने का जो ठेका है वह बंद हो जाएगा और डॉक्टरों की मोटी कमाई नहीं हो पाएगी। दूसरी बात यह है कि अगर इसी अस्पताल में आयुष्मान कार्ड को स्वीकार किया गया तो वहां का स्टाफ अफसर कार्ड को जमा करवा लेता है और चार दिन के अंदर ही फर्जी बिल बनाकर सारा पैसा खर्च कर दिया जाता है। ऐसे कई उदाहरण मिले हैं जहां मरीजों को इलाज करने के बजाय उनके कार्ड पर पैसे की उगाही की गई यह बात अलग है कि इस मामले की अब सीबीआई जांच हो रही है लेकिन सीबीआई जांच से भी कोई बहुत फायदा नहीं है क्योंकि इसकी प्रक्रिया बहुत लंबी और उलझाने वाली है। ऐसे में जब तक आयुष्मान कार्ड का मामला क्लियर होता है तब तक वह मरीज भगवान को प्यारा हो जाता है। उत्तर प्रदेश में इस समय हर जिला मुख्यालय पर एक एक मेडिकल कॉलेज खुलने की बात कही जाती है लेकिन वहां पर इलाज कितना हो पाता है यह जांच का विषय है। इन मेडिकल कॉलेज के अलावा तीन जगह पर स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान चल रहे हैं उनके नाम है लखनऊ में संजय गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान, रायबरेली में और सैफई में नए-नए खुले आयुर्विज्ञान संस्थान और चौथा अब गोरखपुर में खुल रहा है। इन संस्थानों में पहली बात तो मरीजों का एडमिशन ही मुश्किल हो जाता है और होता भी है तो इतना खर्चा आता है इलाज करना सबके बस की बात नहीं है। ऐसे में मरीजों के और उनके तीमारदारों के पास भगवान भरोसे रहने के अलावा और कोई चारा नहीं है।
उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य विभाग का बजट कुल बजट का 6.7% है जो लगभग 27.86 हजार करोड़ होता है। इसमें से 74.6 प्रतिशत हिस्सा कर्मचारियों और अधिकारियों के वेतन भत्ते तथा वाहन आदि खरीदने में खर्च हो जाता है अब जो पैसा बचता है उसमें दवाओं का इंतजाम करना मरीज के लिए बेड की व्यवस्था करना और बिजली पानी आदि पर व्यय किया जाना प्रस्तावित होता है। अगर एक अस्पताल में औसतन, हिसाब लगाया जाए तो 80000 से अधिक मरीज इलाज के लिए आते हैं और जो बजट इन अस्पतालों को दिया जाता है अगर वह पूरा खर्च कर दे तो एक मरीज के ऊपर दवा और तीमारदारी आदि पर ₹10 से भी कम का खर्चा बैठता है ऐसे में किसी मरीज का इलाज कैसे संभव है। जहां तक मेडिकल कॉलेज की बात है वहां के 30% से अधिक डॉक्टर निजी प्रैक्टिस करते हैं और आश्चर्य की बात तो यह है सरकारी अस्पतालों में जो मरीज उनकी देखरेख में भर्ती होता है उन्हें निजी अस्पतालों में जाने के लिए  मजबूर किया जाता है। वहां से इनका कमीशन पहले से ही बंधा हुआ है। अगर किसी प्राइवेट अस्पताल में कोई मरीज पहुंच गया तो कभी-कभी ऐसे भी उदाहरण मिले हैं कि मरीजों को मरने के बाद भी दो-तीन दिनों तक जिंदा रखा जाता है और उन्हें वेंटिलेटर पर रखा जाता है। ऐसा इसलिए कि उनका इलाज का बिल बढ़ता रहता है। राजधानी में कुछ ऐसे निजी अस्पताल है जिन्हें मैं अच्छी तरह से जानता हूं जहां पर एक दिन के इलाज का खर्चा एक लाख रुपए से भी अधिक आता है अब बताइए क्या किसी गरीब मरीज की हैसियत है वह इन अस्पतालों में इलाज करने के लिए जाए। अगर जाता भी है तो उसकी खेती बाड़ी और बैंक बैलेंस सब कुछ समाप्त हो जाता है ।
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार हर कीमत पर चाहती है कि वह अपने नागरिकों को अच्छे से अच्छा और सस्ता इलाज उपलब्ध कारण लेकिन कुछ अधिकारी और यहां तक की मंत्रीगण उनका मरीज के इलाज से कुछ भी लेना-देना नहीं है उनका ज्यादातर ध्यान ट्रांसफर पोस्टिंग में ही बीत जाता है और यह धंधा कभी-कभी तेजी से और कभी-कभी मंदे से चलता है इसमें करोडो का वारा न्यारा होता है। इसी योगी सरकार में एक मंत्री हुआ करते थे जो इसलिए बदनाम हुए का 25 से 50 लाख रुपए तक  तबादले का रेट बांध रखा था  बाद में जब इसका खुलासा हुआ तो उन्हें विभाग से विरत कर दिया गया और दूसरी बार उन्हें मंत्री तक नहीं बनाया गया। आज भी यह धंधा बदस्तूर जारी है स्वास्थ्य विभाग का प्रभार एक फेसबुककिया मंत्री के पास है जो इस बात का प्रचार करते हैं कि उन्होंने किसी समारोह में कितनी बार मुख्य अतिथि के रूप में भाग लिया और कितनी बार उनकी फोटो फेसबुक और इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया में आई। उनसे इस बात का कोई तालुकात नहीं है कि अस्पताल में कौन सा डॉक्टर कितनी देर बैठ रहा है और कितने मरीज को देख रहा है तथा कितने मरीज का उसने इलाज किया है इन मंत्री महोदय को यह भी पता नहीं होगा कि किस अस्पताल में अथवा किसी मेडिकल कॉलेज में कितने बेड हैं दवाओं का बजट कितना आ रहा है और कितना खर्च हो रहा है इसकी भी बहुत ज्यादा जानकारी इन्हें नहीं है इनका दरबार सवेरे घर पर ही सज जाता है और कि सीएमओ को कहां पर तैनात करना है कि सीएमओ को अच्छा जिला देना है और किसी डॉक्टर को सीएमओ या सलाहकार बनाना है इसी बात में उलझ कर रह जाता है। तीन-चार लोग इनके जानने वाले हैं जो डॉक्टर अस्पताल के अधीक्षकों और मुख्य चिकित्सा अधिकारियों के तबादला और पोस्टिंग में बड़ी रुचि दिखाते हैं। अस्पतालों में दावों के लिए अच्छा खासा बजट है और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का साफ निर्देश है कि सभी मरीजों को दवाएं अस्पताल से ही दी जाए लेकिन अस्पतालों के आसपास मेडिकल स्टोर्स का सर्वे किया जा सकता है। पता चल जाएगा वहां पर अस्पताल की पर्ची पर रोजाना कितनी दवाई बिक रही हैं। डॉक्टर भी आमतौर पर वही दवाएं पर्चे पर लिखते हैं जो अस्पतालों में नहीं होती हैं मजबूर होकर मरीजों को बगल के स्टोर से दवाई खरीदनी पड़ती है जिसका कमीशन पर्चा लिखने वाले डॉक्टर के पास शाम तक पहुंच जाता है। अस्पतालों में एक धंधा और भी जोरों से चलता है वह है लोकल परचेज। यहां से प्रभावशाली और जनप्रतिनिधियों को तथा सरकारी अधिकारियों को मनचाही दवाएँ लोकल परचेज पर मिल जाती है। हमारे जनप्रतिनिधियो को यद्यपि इलाज का महीने का भत्ता मिलता है और जब दवाएं अस्पताल से देनी होती हैं तो एक परचे पर लिखी हुई दवाएं उनके घर पहुंच जाती है।
डॉक्टर और वहां के स्टाफ की मनमानी से मरीज आए दिन त्रस्त रहता है और तीमारदारों तथा डॉक्टर में मारपीट की सूचनाऐं मिलती रहती हैं। इसके अलावा अस्पतालों में गुंडे और मवालियों का भी बोलबाला देखा गया है। इन गुंडो को डॉक्टर अस्पताल के वरिष्ठ अधिकारियों का संरक्षण प्राप्त होता है। अस्पतालों में वाहनों के ठेके आदि का काम  गुंडो को और डॉक्टर के चाहतों को ही मिलता रहता है। महिला अस्पतालों की हालत तो और भी खराब है यहां पर बच्चों की अदला बदली की घटनाएं भी सामने आई है। ऐसे मामलों में जांच बैठाने की बात कह कर अधिकारी लोग पल्ला झाड़ लेते हैं लेकिन कुछ पता नहीं। हमारी राज्य सरकार ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि किसी भी मरीज को लाने ले जाने के लिए मुफ्त में एंबुलेंस की सेवाएं दी जाएगी लेकिन जब मरीज को जरूरत पड़ती है तो ऐसी एंबुलेंस का या तो नंबर उठता नहीं है और उठता भी है तो व्यस्तता की बात बात कर वाहन चालक फोन रख देते हैं। मजबूरी में मरीज को प्राइवेट वाहनों का सहारा लेना पड़ता है।
सबसे अमानवीय स्थिति अस्पतालों के पोस्टमार्टम घरों की है जहां पर सामान्य लोगों की लाशों का पोस्टमार्टम करने के लिए दो-दो तीन-तीन दिन का इंतजार करना पड़ता है और नंबर तभी आता है जब पोस्टमार्टम करने वाले व्यक्ति को ऊपर से चढ़ावा दिया जाता है। इस दिशा में आज तक कोई कार्यवाही नहीं हुई है दूसरी चीज यह है कि हर जिले में यह काम केवल जिला स्तर के अस्पतालों पर ही किया जाता है अगर इसका विकेंद्रीकरण किया जाए तो लोगों को काफी राहत मिल सकती है। एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश में 100000 की आबादी पर अस्पतालों में केवल 24 बिस्तर है इनमें आसानी से लोगों को इलाज नहीं मिल पाता है। यही कारण है कि निजी अस्पताल फल फूल रहे हैं और सरकारी अस्पतालों की दिनों दिन दुर्दशा होती जा रही है। इन सरकारी अस्पतालों के आसपास एक चीज और देखी गई है कि निजी अस्पताल के दलालों का गुट मड़राता रहता है जो मरीज को बहला फुसलाकर निजी अस्पतालों में भर्ती करता है और वह अपना कमीशन कमाता है। अस्पतालों की इन अवस्थाओं के बारे में ऊपर से कभी कोई ध्यान नहीं दिया गया सारा ध्यान इस बात पर रहता है कि मरीजों को कैसे चूसा जाए कैसे पैसा वसूला जाए उनका मुख्य उद्देश्य इलाज करना रहता ही नहीं केवल कमाई करना ही रहता है।

Related Posts

Next Post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Archive By Months

Premium Content

Browse by Category

Welcome Back!

Login to your account below

Create New Account!

Fill the forms below to register

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.