प्राचीन काल से ही भारत की नारियों ने अपने आचार, विचार, व्यवहार, तप, चारित्रिक दृढ़ता एवं पातिव्रत्य धर्म आदि के विषय में आदर्श प्रस्तुत किए हैं। सुकन्या एक ऐसी ही भारतीय नारी थी जिसने अज्ञानतावश हुई भूल का प्रायश्चित करने के लिए अपने पूरे अस्तित्व को दांव पर लगा दिया। सुकन्या ने अपनी नियति को अपने संकल्प के बल पर परिवर्तित करके सिद्ध कर दिया कि यदि स्त्री चाह ले तो वह असंभव को भी संभव कर सकती है। महाभारत के वनपर्व में इस कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है।
प्राचीनकाल की बात है, उस समय एक प्रतापी राजा शर्याति हुए। वे अत्यंत न्यायप्रिय, प्रजासेवक एवं कुशल प्रशासक थे। सद्गुणी राजा की संतति भी गुणवान थी। उनकी संतानें अपने पिता के पदचिह्नों पर ही चल रहे थीं। राजा शर्याति अपने परिवार के सदस्यों के आचरण को देखकर स्वयं प्रसन्न रहा करते थे। एक दिन राजा शर्याति सपरिवार वन विहार के लिए निकले। राजा-रानी तो एक सरोवर के निकट विश्राम के लिए बैठ गए। उनकी पुत्री राजकुमारी सुकन्या अपनी सखियों के साथ भ्रमण कर रही थी। सहसा उसने मिट्टी के टीले में दो चमकदार मणियां देखीं। कुतूहलवश सुकन्या उस मणि के निकट आई। निकट से देखने पर भी वह उस चमकती वस्तु को जब समझ न पाई तो उसने कौतुहलवश सूखी लकड़ी की सहायता से दोनों चमकदार मणियों को निकालने का यत्न किया। उसके इस प्रयास से मणि तो ना निकली, अपितु वहां से रक्त निकलने लगा। इस कृत्य के परिणामस्वरूप राजा के सैनिकों को मल-मूत्र विसर्जन बाधित हो गया। कारण पता करने पर ज्ञात हुआ कि सुकन्या ने जहां लकड़ी से छिद्र किया था, वे तपस्यारत ऋषि च्यवन के नेत्र थे। राजा ने राजकुमारी से कहा कि,’ पुत्री ! तुमसे अपराध हो गया है। महर्षि च्यवन यहां पर तपस्यारत हैं। आंधी-तूफान और वर्षा के कारण इनके चारों तरफ मिट्टी का टीला बन गया है। इसी कारण तुम्हारी दृष्टि को दोष हो गया। मात्र दो आंखें मणि के समान चमकती हुई दिखाई दीं।’ राजा शर्याति क्षमादान की प्रत्याशा से ऋषि के निकट पहुंचे। इतने में च्यवन ऋषि का पीड़ा कराहने का स्वर भी सुनाई दिया। इस स्वर को सुनकर राजकन्या सुकन्या को अत्यंत पीड़ा और ग्लानि का अनुभव हुआ। उसने मन ही मन कुछ निश्चय किया और कहा कि, ‘पिताजी ! मैं इस पाप का प्रायश्चित करके इस हानि की क्षतिपूर्ति करूंगी।’ राजा ने कहा कि, ‘तुम्हारे प्रायश्चित से ऋषि की आंखें तो वापस नहीं आएंगी।’ इस पर राजकुमारी ने एक क्षण सोचा और कहा, “मेरे ही कारण अनजाने में ही सही ऋषिवर की यह स्थिति हुई है, अब मैं इनके नेत्र बनूंगी।’ राजा अचंभित होकर अपनी सुकुमार पुत्री की ओर देखने लगे और बोले, ‘क्या कह रही हो पुत्री ?’ सकुमारी सुकन्या ने बिना संकोच किए कहा, ‘भूल मुझसे हुई है उसके लिए और कोई दंड क्यों भुगते। अतः मैं उचित कह रही हूं पिताजी। मैं ऋषिदेव की दृष्टि बनूंगी। मैं मात्र भूल व क्षमा का बहाना बनाकर अपराध मुक्त नहीं होना चाहती। न्याय-नीति के समान अधिकार को स्वीकार कर चलने में ही मेरा व विश्व का कल्याण है, मैंने यही सब तो सीखा है। मैं च्यवन ऋषि से विवाह करूंगी और अपने जीवनपर्यंत उनकी ज्योति बनकर सेवा करूंगी।’ राजा इस कठोर निर्णय से कांप उठे और कहने लगे, ‘किंतु पुत्री ! यह तो अत्यंत जर्जर व कृशकाय शरीर के हैं और तू युवा।’ राजा शर्याति ने कहा। सुकन्या बोली, ‘पूज्य पिताजी ! यहां पात्रता और योग्यता का प्रश्न नहीं है। मुझे तो सहर्ष प्रायश्चित करना है। मैं इस कार्य को धर्म समझकर तपस्या के माध्यम से आनंदपूर्वक पूर्ण करके रहूंगी। मुझे अपना आशीर्वाद प्रदान करें।’ बेटी सुकन्या की जिद के समक्ष राजा शर्याति की एक न चली। वे विवश थे अतएव विवाह की तैयारी में जुट गए। महर्षि च्यवन के साथ बेटी सुकन्या का पाणिग्रहण हुआ। सुकन्या की इस अद्भुत त्याग भावना को देखकर देवगण भी अत्यंत प्रसन्न हुए। राजा की सेना का कष्ट भी दूर हो गया। इस प्रकार संकट से मुक्त होकर, मुनि से विदा लेकर, वह सावधानी से अपनी राजधानी की ओर चल पड़ा।. सुकन्या ने अत्यंत क्रोधी च्यवन को पति रूप में प्राप्त करके उसकी मानसिक प्रवृत्तियों को समझकर, सावधानीपूर्वक आज्ञापालन द्वारा उसे जीत लिया। इसके कुछ समय पश्चात्, अश्विनीकुमार नामक देवगण उनके आश्रम में आये। अतिथि के रूप में विधिपूर्वक उनकी पूजा करके उनको प्रसन्न किया। अश्विनी कुमार उसकी परीक्षा लेना चाहते थे। ऋषिपत्नी सुकन्या ने विनती की, ‘हे देव चिकित्सकों ! मुझे मेरा यौवन लौटाने की कृपा करें।यद्यपि तुम लोग सोमरस में हिस्सा लेने के योग्य नहीं हो, फिर भी मैं तुम दोनों को सोम-यज्ञ में सोम का प्याला पिलाऊँगी। कृपया मेरे पति को युवा और कांतिवान बनाने की कृपा करें।’
श्रेष्ठ वैद्यों ने उनके प्रस्ताव पर प्रसन्नतापूर्वक कहा, ‘आपके आराध्य सिद्धों द्वारा निर्मित इस कुंड में डुबकी लगाकर स्वस्थ हों।’
ऐसा कहकर, वृद्धावस्था से ग्रसित, उभरी हुई नसों से आच्छादित तथा झुर्रियों और सफेद बालों के कारण घृणित प्रतीत होने वाले च्यवन को अश्विन देवयुगल ने कुण्ड में प्रवेश कराया। अश्विनीकुमारों और ऋषि सहित उस कुण्ड में से तीन पुरुष निकले। आश्चर्य की बात ये थी कि वे सभी मोहक सुन्दर, स्त्रियों को मोहित करने वाले, कमल-मालाओं और कुण्डलों से सुशोभित, सुन्दर वस्त्र पहने हुए, एक दूसरे के समान आकार वाले थे। उन सभी को एक दूसरे के समान आकार वाला तथा सूर्य के समान तेजस्वी देखकर पतिव्रता सुकन्या की बुद्धि भ्रमित हो गई। वह अपने पति को पहचानने में असमर्थ हो गई। उसने अश्विनीकुमारों की शरण ली। अश्विनीकुमार उसके इस निश्छल पतिप्रेम से प्रभावित हुए। उसके पतिव्रता स्वभाव से प्रसन्न होकर अश्विनीकुमारों ने उसके पति को उसके सम्मुख उपस्थित किया और ऋषि दंपत्ति से विदा लेकर अपने दिव्य रथ पर सवार होकर स्वर्गलोक को चले गये।
एक दिन राजा शर्याति यज्ञ करने के संकल्प के साथ च्यवन ऋषि के आश्रम में गये। उन्होंने अपनी पुत्री के पास सूर्य के समान तेजस्वी एक पुरुष को देखा। जब पुत्री ने उन्हें देखकर प्रसन्नचित्त होकर उन्हें प्रणाम किया तो राजा को उससे अधिक प्रसन्नता नहीं हुई और उसने उसे आशीर्वाद देने के स्थान पर निन्दा की। उन्होंने कहा, ‘तुमने क्या करने का विचार किया है ? तुम्हारे पति, जो समस्त संसार द्वारा आदरपूर्वक प्रणाम किये जाने वाले एक ऋषि हैं, को तुमने त्याग दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि तुमने अपने द्वारा झूठे रूप से स्वीकृत वृद्ध पति को त्यागकर, एक यात्री को अपना प्रेमी बना लिया है। हे पतिव्रता स्त्री ! तुम्हारी मानसिकता इतनी निकृष्ट कैसे हो गई ? अन्यथा, तुम एक महान परिवार में पैदा हुई हो और यह परिवार पर एक घृणित कलंक है। तुम अपनी मर्यादा खो चुकी हो और एक प्रेमी को आश्रय दे रही हो, जिससे तुम्हारे पिता और पति के परिवार नरक की अँधेरी गहराई में जा रहे हैं।’ सुकन्या समझ गई कि पिताजी को वन में घटित घटनाक्रम ज्ञात नहीं है।इसलिए बिना विचलित हुए जब उसके पिता ने उसे इस प्रकार दोषी ठहराया तो सुकन्या ने शुद्ध मृदु मुस्कान के साथ हल्की हंसी के साथ उत्तर दिया, ‘पिताजी ! यह आपके जामाता च्यवन हैं, जो भृगु के वंशज हैं।’ तदनंतर उसने अपने पिता को बताया कि किस प्रकार ऋषि ने पुनः अपनी युवावस्था और सुन्दरता प्राप्त कर ली है। आश्चर्यचकित होकर और उससे अत्यंत प्रसन्न होकर राजा ने अपनी पुत्री की भूरि-भूरि प्रशंसा की और उसको गले लगा लिया। च्यवन ने वीर राजा शर्याति से सोम यज्ञ करवाया, जिसमें उन्होंने अपनी तप शक्ति से अश्विनकुमारों के जोड़े को सोम का प्याला पिलाया। वैद्य होने के कारण वे उस समय तक वे सोम में हिस्सा पाने के अधिकारी नहीं थे। इस बात से क्रुद्ध हुए देवराज इंद्र ने तुरन्त क्रोधित होकर राजा को मारने के लिए अपना वज्र उठाया। लेकिन भृगुवंशी च्यवन ने वज्र से इंद्र की भुजा को भी पत्थर बना दिया। ऐसा देखकर सभी देवगणों ने अश्विनीकुमारों को सोम रस में भाग देने पर सहमति व्यक्त की, क्योंकि वे चिकित्सक थे, इसलिए उन्हें पहले सोम की आहुति देने का निषेध किया गया था। प्रायश्चित व सेवाभावना के कारण सुकन्या का नाम च्यवन ऋषि ने ‘मंगला’ रख दिया। वह आज भी अपने गुणों के कारण नारी-जगत में वंदनीय हैं।राजमहल में असीमित सुख-साधनों का उपभोग कर बड़ी हुई राजकन्या सुकन्या ने ना केवल अपनी अज्ञानतावश हुई भूल का प्रायश्चित किया वरन अश्विनीकुमारों को भी अपनी पातिव्रत्य धर्म से प्रभावित किया। उसने अपनी निष्ठा और सेवाभावना से अपने पति का यौवन पुनः प्राप्त कर अपनी नियति को बदल दिया। उसके कारण ही अश्विनीकुमारों को देवता होने का सम्मान प्राप्त हुआ। भारत की नारी के उच्च आदर्श को प्रतिष्ठित करने वाली सुकन्या का नाम सदैव आदर के साथ लिया जाता रहेगा।
डा•आकांक्षा दीक्षित