चुनावी प्रचार सोशल मीडिया पर, तो विधानसभा क्यों नहीं?”
सदन की मर्यादा या जनता का अधिकार – गरिमा की रक्षा या जनता से दूरी?
यदि विधानसभा की कार्यवाही सोशल मीडिया पर प्रसारित करना प्रतिबंधित है तो फिर नेताओं और दलों को भी चुनाव प्रचार के लिए सोशल मीडिया का प्रयोग नहीं करना चाहिए। आज वोट माँगने के लिए रैलियों और टीवी के साथ-साथ फेसबुक, यूट्यूब, इंस्टाग्राम और ट्विटर पर बड़े पैमाने पर प्रचार किया जाता है। ऐसे में केवल सदन की कार्यवाही को रोकना अनुचित प्रतीत होता है। लोकतंत्र में नियम सबके लिए समान हों, तभी व्यवस्था पर जनता का विश्वास कायम रह सकता है। भारत में 82 करोड़ इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं, जिनमें से 45 करोड़ से अधिक सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। टीवी दर्शकों की संख्या घट रही है और लोग मोबाइल पर सीधे समाचार देखना पसंद करते हैं। विधानसभा की कार्यवाही केवल टीवी चैनलों तक सीमित करने का निर्णय लोकतांत्रिक पारदर्शिता को सीमित कर सकता है। बेहतर उपाय यह होगा कि विधानसभाएँ अपने आधिकारिक डिजिटल प्लेटफॉर्म बनाएँ, जहाँ कार्यवाही का सम्पूर्ण और सत्य प्रसारण हो। इस तरह सदन की गरिमा भी बनी रहेगी और जनता को सूचना तक पहुँच का अधिकार भी मिलेगा।
– डॉ. प्रियंका सौरभ
लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताक़त उसकी पारदर्शिता और जनता की भागीदारी में निहित है। संसद और विधानसभाएँ जनता की आवाज़ का प्रतिनिधित्व करती हैं और वही स्थान हैं जहाँ नीतियाँ, कानून और जनहित से जुड़े अहम मुद्दे तय किए जाते हैं। ऐसे में सदन की कार्यवाही तक जनता की पहुँच किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र की बुनियादी ज़रूरत कही जा सकती है। हाल ही में हरियाणा प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष द्वारा लिया गया यह निर्णय कि फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब, ट्विटर और वेब चैनलों पर अब विधानसभा की कार्यवाही का प्रसारण नहीं किया जाएगा, कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े करता है। यह फैसला पारदर्शिता को सीमित करने वाला है या फिर सदन की गरिमा को बचाने वाला—यही इस संपादकीय का मूल प्रश्न है।
पिछले एक दशक में सोशल मीडिया ने भारतीय लोकतंत्र में एक नई क्रांति ला दी है। पहले जहाँ लोग टीवी समाचार चैनलों या अख़बारों के भरोसे रहते थे, वहीं अब फेसबुक लाइव, यूट्यूब स्ट्रीमिंग और ट्विटर अपडेट्स से उन्हें तुरंत जानकारी मिल जाती है। विधानसभा या संसद जैसी संस्थाओं की कार्यवाही अब केवल दीवारों के भीतर सीमित नहीं रही, बल्कि सीधे जनता के मोबाइल स्क्रीन पर पहुँचने लगी।
यह बदलाव सकारात्मक भी था। आम नागरिक, खासकर युवा, लोकतांत्रिक विमर्श से जुड़ने लगे। उन्हें यह समझने का अवसर मिला कि उनके चुने प्रतिनिधि सदन में उनके मुद्दों पर किस तरह की बहस कर रहे हैं। लेकिन साथ ही इसके नकारात्मक पहलू भी सामने आए। कई बार सदन की गंभीर बहस के छोटे-छोटे अंश निकालकर सोशल मीडिया पर वायरल कर दिए गए, जिनका प्रयोग राजनीतिक प्रचार, व्यंग्य या ग़लतफ़हमियाँ फैलाने के लिए किया गया। नतीजतन, कार्यवाही का वास्तविक उद्देश्य पीछे छूट गया और विवादों ने ज़्यादा सुर्ख़ियाँ बटोरीं।
हरियाणा प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हरिविंद्र कल्याण का कहना है कि इंटरनेट मीडिया पर वायरल होते वीडियो-संदेशों ने सदन की गरिमा को ठेस पहुँचाई है। कई बार असंसदीय शब्दों, हंगामों और कटाक्षों के छोटे-छोटे हिस्सों को बार-बार प्रसारित किया जाता है, जिससे जनता तक केवल नकारात्मक छवि ही पहुँचती है। उन्होंने आदेश जारी करते हुए स्पष्ट किया है कि अब से केवल मान्यता प्राप्त टीवी चैनल ही कार्यवाही का सीधा प्रसारण कर सकेंगे, जबकि किसी भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर लाइव या रिकॉर्डिंग डालने पर सख़्त प्रतिबंध रहेगा। उनका तर्क यह भी है कि सदन की कार्यवाही से हटाए गए शब्दों और अंशों को सोशल मीडिया पर प्रसारित करना सीधा नियमों का उल्लंघन है। इसलिए इस पर रोक लगाना आवश्यक है। आदेश में यह भी कहा गया है कि उल्लंघन करने वालों पर कार्रवाई की जाएगी।
हालाँकि यह तर्क सतही तौर पर सही प्रतीत होता है, लेकिन लोकतांत्रिक दृष्टि से कई प्रश्न भी खड़े करता है। विधानसभा जनता के टैक्स से चलती है, और वहाँ की हर गतिविधि का सीधा संबंध नागरिकों से है। ऐसे में सूचना तक पहुँच को सीमित करना लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत माना जा सकता है। आज की युवा पीढ़ी टीवी नहीं देखती। वह यूट्यूब, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर सक्रिय है। यदि केवल टीवी चैनलों तक कार्यवाही सीमित कर दी जाएगी, तो एक बड़ी आबादी लोकतांत्रिक विमर्श से वंचित रह जाएगी। जब केवल चुनिंदा माध्यमों को अनुमति होगी, तो यह संदेश जाएगा कि सूचना पर नियंत्रण किया जा रहा है। लोकतंत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही कमज़ोर होगी।
भारत में 82 करोड़ से अधिक लोग इंटरनेट का प्रयोग करते हैं।लगभग 45 करोड़ लोग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स (फेसबुक, यूट्यूब, इंस्टाग्राम, ट्विटर आदि) पर सक्रिय हैं। टीवी देखने वालों की संख्या घट रही है, जबकि मोबाइल पर समाचार देखने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। संसद टीवी और राज्य विधानसभाओं के चैनल बहुत कम दर्शकों तक पहुँच पाते हैं, जबकि यूट्यूब पर एक लाइव स्ट्रीम लाखों दर्शक जुटा सकती है। विशेषज्ञों के अनुसार, लोकतंत्र में डिजिटल पारदर्शिता ही जनता का विश्वास बनाए रखने का सबसे बड़ा साधन है।
टीवी चैनल अब भी सीमित वर्ग तक ही पहुँचते हैं, जबकि सोशल मीडिया की पहुँच गाँव-गाँव और युवाओं तक है। भारत जैसे देश में जहाँ डिजिटल इंडिया की बात होती है, वहाँ सूचना को केवल टीवी चैनलों तक सीमित करना समय की माँग से मेल नहीं खाता। आज की राजनीति और समाज का बड़ा विमर्श ट्विटर ट्रेंड्स और यूट्यूब डिबेट्स में ही आकार लेता है।
यह सही है कि सदन की कार्यवाही को असंदर्भित तरीके से सोशल मीडिया पर फैलाना उचित नहीं। कई बार मज़ाक या राजनीतिक हमले के लिए हिस्से काटकर वायरल कर दिए जाते हैं। इससे जनता तक अधूरी और ग़लत तस्वीर पहुँचती है। लेकिन समाधान यह नहीं कि पूरी तरह से रोक लगा दी जाए।
बेहतर उपाय यह हो सकता है कि विधानसभा खुद एक आधिकारिक यूट्यूब चैनल, ट्विटर हैंडल और इंस्टाग्राम अकाउंट बनाए। वहाँ से कार्यवाही का सम्पूर्ण और बिना संपादन वाला प्रसारण किया जाए। साथ ही स्पष्ट नियम बनाए जाएँ कि अन्य लोग इस आधिकारिक कंटेंट को संदर्भ बदलकर नहीं इस्तेमाल कर सकते। इस तरह मर्यादा भी बनी रहेगी और पारदर्शिता भी सुनिश्चित होगी।
दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों में संसद और विधानसभा की कार्यवाही लाइव स्ट्रीमिंग के माध्यम से जनता तक पहुँचाई जाती है। ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने अपनी संसद की कार्यवाही को ऑनलाइन सुलभ कर रखा है। वहाँ भी असंसदीय शब्द या हंगामे होते हैं, लेकिन फिर भी जनता को सम्पूर्ण जानकारी दी जाती है ताकि लोकतंत्र में विश्वास बना रहे। भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में जहाँ युवा वर्ग राजनीतिक चेतना की ओर बढ़ रहा है, वहाँ सोशल मीडिया पर रोक लगाना पीछे की ओर कदम उठाने जैसा है।
तकनीक अपने आप में न तो अच्छी होती है न बुरी, उसका उपयोग ही उसे अर्थ देता है। विधानसभा कार्यवाही के सोशल मीडिया पर प्रसारण को पूरी तरह बंद करना एक तरह से तकनीक की शक्ति को नकारना है। बेहतर होगा कि इसके लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश बनाए जाएँ—केवल आधिकारिक चैनलों से लाइव प्रसारण हो। कार्यवाही से हटाए गए अंश प्रसारित न किए जाएँ। संदर्भ से हटाकर बनाए गए वीडियो पर दंडात्मक कार्रवाई हो। मीडिया और जनता के बीच संवाद बना रहे।
यदि विधानसभा की ओर से एक केंद्रीयकृत डिजिटल प्लेटफॉर्म बनाया जाए, तो जनता को सीधे और बिना कटे-फटे कंटेंट तक पहुँच मिलेगी। इससे न तो गलतफहमियाँ फैलेंगी और न ही सदन की मर्यादा को ठेस पहुँचेगी। इसके अलावा यह कदम युवाओं को लोकतांत्रिक विमर्श से जोड़ने का भी सबसे सरल और सशक्त माध्यम साबित होगा।
लोकतंत्र की सफलता जनता की भागीदारी और पारदर्शिता पर निर्भर करती है। विधानसभा केवल विधायकों की नहीं, बल्कि जनता की भी संस्था है। ऐसे में उसकी कार्यवाही तक जनता की सहज पहुँच लोकतंत्र की सेहत के लिए आवश्यक है। विधानसभा अध्यक्ष का यह निर्णय सदन की गरिमा बचाने की कोशिश है, लेकिन इसमें पारदर्शिता की कीमत चुकानी पड़ सकती है।
सही रास्ता यही है कि मर्यादा और पारदर्शिता, दोनों के बीच संतुलन साधा जाए। सोशल मीडिया पर रोक लगाने के बजाय इसे सुव्यवस्थित किया जाए, ताकि न केवल लोकतंत्र की गरिमा बनी रहे, बल्कि नागरिक भी अपने प्रतिनिधियों के कार्यकलापों से पूरी तरह परिचित रह सकें। यही स्वस्थ लोकतंत्र की सबसे बड़ी पहचान होगी।