
वाणी का विद्रूप बनाम हास्य का सौंदर्य -विजय गर्ग
किसी से मजाक करने और किसी का मजाक उड़ाने की स्थिति को विभाजित करने वाली रेखा बहुत महीन होती है। बहुधा लोग मजाक करते-करते मजाक उड़ाने पर उतर आते हैं। मजाक करना स्निग्ध हास्य का रूप है, लेकिन अगर हम सामाजिक जीवन की मर्यादाओं को ध्यान में नहीं रखते हैं, तो इस स्निग्धता पर विद्रूपता हावी हो जाती है। दुर्भाग्य से, अब हास्य के नाम पर यही हो रहा है।
भारतीय मानस कभी शिष्ट हास्य के विरुद्ध नहीं रहा। किसी के व्यक्तित्व की विसंगतियों को भी शिष्ट तरीके से रेखांकित किया जा सकता है। अथर्ववेद में इसीलिए हास्य के विविध प्रकारों का विश्लेषण विस्तार से किया गया है। विसंगतियों को रेखांकित करने के नाम पर विद्रूपताओं को को अपनाना किसी भी तरह से सभ्य समाज में स्वीकार नहीं किया जा सकता। बेशक, हास्य उस स्थिति में पनपता है, जो सहज और सामान्य नहीं होती। मगर पिछले कुछ जा दिनों से हास्य के नाम हास्य के पर विविध कार्यक्रमों में और सोशल मीडिया पर जो कुछ जा रहा है, यदि उसे हास्य कहा जाए, तो फिर विद्रूपता किसे कहा जाएगा?
भारतीय लोक जीवन एक हद तक असहज प्र न प्रवृत्तियों का शिष्ट उल्लेख भी सहजता से स्वीकार कर लेता है। दुनिया में शायद ही ऐसा कोई और समाज हो, जहां विवाह जैसे शुभ अवसरों पर गालियां गाए जाने की एक समृद्ध परंपरा है। लेकिन गालियों के गायन के पीछे प्रेम होता है, द्वेष नहीं। कहा यों भी जा सकता है कि हम उस समाज से हैं, जहां गालियों को गाया भी जाता है। गायन के मूल में माधुर्य होता है। गालियां गाने और गालियां देने के बीच जो अंतर होता है, उसे शिशुपाल वध के प्रसंग से समझा जा सकता है। शिशुपाल चार हाथों के साथ पैदा हुआ था । भविष्यवाणी हुई कि जिसकी गोदी में जाते ही इसके दो हाथ गायब हो जाएंगे, उसी के उसी के हाथों इसका वध होगा। शिशुपाल कृष्ण की बुआ का लड़का था। कृष्ण ने शिशुपाल को अपने अंक में थामा, तो उसके दो अतिरिक्त हाथ गायब हो गए।
शिशुपाल की मां घबरा गई। बुआ ने अपने भतीजे से वचन मांगा कि ह शिशुपाल न की गलतियों को माफ करता रहेगा। कृष्ण ने वादा किया कि वो शिशुपाल की ऐसी सी गलतियों को माफ कर देंगे, जिस पर उसका वध कर दिया जाना चाहिए। शिशुपाल बड़ा हुआ। पांडवों के क राजसूय यज्ञ के समय उसने कृष्ण को अपशब्द कहना शुरू किया। | कृष्ण चुपचाप मुस्कुराते रहे। दरअसल, वे मन ही मन शिशुपाल द्वारा दी जाने वाली गालियों को गिन रहे थे। सौ गालियों के बाद उन्होंने सुदर्शन चला कर शिशुपाल का सिर धड़ से अलग कर दिया। इस प्रसंग का एक प्रतीकात्मक संदेश यह भी है कि वाणी की मर्यादा का प्रत्येक उल्लंघन एक जघन्य अपराध होता है और इसकी भी एक सीमा है।
दुर्भाग्य यह है कि हमारे दौर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर लगातार वाणी की मर्यादा का उल्लंघन हो रहा है। ऐसा नहीं कि भारतीय समाज में जिम्मेदार लोग अपनी आलोचना या अपने व्यक्तित्व की विसंगतियों पर व्यंग्य सुनने के पक्षधर नहीं रहे। प्राचीन काल में तो जिम्मेदार शासक अपने दरबार में विदूषकों को इसीलिए रखते थे कि वे सहन करने योग्य अभिव्यक्ति में विसंगतियों से शासक को परिचित कराते रहें। विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय के दरबार के तेनालीराम और मुगल बादशाह अकबर के दरबार के बीरबल के तो कई किस्से आज भी सुने जाते हैं। बेशक, अपने-अपने दरबार में बीरबल और तेनालीराम का दर्जा सामान्य दरबारी से कहीं अधिक था विसंगतियों पर प्रहार करने का उनका तरीका व्यंग्य प्रधान ही हुआ करता था।
राजस्थान और मालवा में आज से कुछ दशक पहले तक हरबोले बहुत लोकप्रिय हुआ करते थे। ये हरबोले दरअसल, अपने समय के व्यंग्य कवि ही हुआ करते थे। ये जब कभी किसी बस्ती में आते थे, बस्ती जिम्मेदार लोगों के व्यक्तित्व की विसंगतियों के बारे में सार्वजनिक स्थानों -गाकर बताते थे। इनको प्रस्तुतियों का कोई बुरा नहीं मानता था, क्योंकि इनका मूल मंतव्य किसी का उपहास उड़ाना नहीं होता अपितु सामाजिक उन्नयन होता था। बाद में उस परिवार से भी इन्हें भेंट मिला करती थी, जिस परिवार के किसी सदस्य को ये लक्ष्य कर कविता बना लेते थे। यह भारतीय जनजीवन की उदारता का प्रमाण है। कबीर ने अपने समय की विसंगतियों पर खुल कर प्रहार किया। क्या कबीर के काव्य में में कहीं मर्यादा का उल्लंघन प्रतीत होता है।
व्यंग्य इसलिए वरेण्य है, क्योंकि वह अपने समय की विसंगतियों पर प्रहार करने का साहस करता है। कहते हैं कि एक बार नागार्जुन ने स्वयं जवाहरलाल नेहरू की उपस्थिति में एक पढ़ दी थी- ‘आओ रानी! हम ढोएंगे पालकी/ यही हुई है राय जवाहरलाल की।’ तब जवाहरलाल नेहरू ने शांति और धैर्य के साथ नागार्जुन के इस काव्य पाठ को सुना। क्या आज के दौर हम सामान्य राजनेताओं से इस धैर्य की उम्मीद कर सकते हैं। यदि कलाकारों और रचनाकारों/ कवियों से वक्रतापूर्वक बात कहने का कहने का अधिकार छीन लिया जाएगा, तो
जीवन से हास्यबोध ही गायब हो जाएगा। क्योंकि हास्य के दौर में जो कुछ परोसा जा रहा है, उसमें से या तो फूहड़ता है या उच्छृंखलता। स्टूडियों में कुछ लोगों के बीच बैठ कर माता-पिता के दैहिक संबंधों या भाई-बहन के रिश्ते रिश्ते की शुचिता पर भोंडी टिप्पणियां करके ठहाके लगाने को हास्य की ऐसी किसी भी श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, जिसकी चर्चा हमारे प्राचीन शास्त्रों में की गई है।समय का साधु कबीर के उस सूप की तरह होता है, जो सार्थक बातों को अपनी स्मृतियों में सहेज लेता है जबकि थोथी बातें सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के बावजूद कहीं नहीं टिकती क्या हास्य के नाम पर अभिव्यक्ति की मर्यादा को लांघ रहे लोग इस बात को समझेंगे ?
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब
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