संस्कारों की आड़ में बढ़ती फूहड़ता: समाज और टीवी मनोरंजन का गिरता संतुलन
जब परंपरा मंच बने और फूहड़ता प्रदर्शन—सांस्कृतिक गिरावट की इस रफ्तार में टीवी सिरियलों की भूमिका सबसे ज्यादा चिंताजनक
– डॉ सत्यवान सौरभ
हमारे समाज में परिवर्तन अनिवार्य है, लेकिन कुछ परिवर्तन ऐसे होते हैं जिनका मूल्य हमें सिर्फ समय नहीं, भावनाएँ, विश्वास और संस्कृति चुकाकर देना पड़ता है। आज का भारत एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ आधुनिकता का स्वागत करते-करते हम अनजाने में ही अपनी मूल संवेदनाओं और संस्कारों को चोट पहुँचा रहे हैं। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि यह गिरावट किसी बाहरी ताकत से नहीं, बल्कि हमारे ही मनोरंजन माध्यमों के भीतर से फैल रही है। धीरे-धीरे, संस्कारों और रीति–रिवाजों के नाम पर ऐसी फूहड़ता परोसी जा रही है जो न सिर्फ असहज करती है, बल्कि समाज की सोच और परिवारों की संरचना तक को प्रभावित कर रही है। और इस पूरी प्रक्रिया को तेज़ करने में टीवी सिरियलों की भूमिका सबसे बड़ी दिखती है।
एक समय था जब टीवी सिरियल परिवार के साथ बैठकर देखने वाली चीज़ हुआ करते थे। कथानक में जीवन की असल भावनाएँ, रिश्तों की गर्माहट और समाज की अच्छाई–बुराई के बीच संतुलन होता था। अब वही माध्यम दिखावट, शोर, अतिनाटकीयता और व्यर्थ के विवादों के सहारे TRP का खेल खेलने में लग गया है। आज के कई सीरियल जिस तरह ‘संस्कारों’ का ताना बुनते हैं, वह बस सतही है—अंदर की परतों में छल, धोखा, कपड़े और शरीर की नुमाइश, अनर्गल संवाद, और अव्यावहारिक रिश्ते दिखाते हुए ऐसी फूहड़ता परोसी जा रही है जो न तो भारतीय परंपरा का हिस्सा है और न ही किसी स्वस्थ मनोरंजन का।
टीवी की दुनिया ने ‘परिवारिक ड्रामा’ के नाम पर जिस नयी संस्कृति को गढ़ा है, वह संस्कारों का मुखौटा पहनकर फूहड़ता को सामान्य बनाने का काम कर रही है। सैटिन की साड़ियों में 24 घंटे सजकर घूमती नायिकाएँ, हर पाँच मिनट में बदलते रिश्ते, अविश्वास को सामान्य बनाती कहानियाँ, और घर–परिवार के संस्कारों को केवल दिखावे का औजार बनाना—ये सब दर्शक को धीरे–धीरे यह भरोसा दिलाने लगते हैं कि यही जीवन का यथार्थ है। यही कारण है कि कई लोग अनजाने ही इन काल्पनिक स्थितियों को अपने वास्तविक जीवन में लागू करने लगते हैं। संस्कार जहाँ दृढ़ता, संयम और मर्यादा का आधार होते हैं, वहीं सीरियल इन्हें “अत्यधिक नाटकीय जीवनशैली” में बदल देते हैं।
सबसे अधिक चिंताजनक पहलू यह है कि इन सीरियलों में फूहड़ता अब किसी एक दृश्य या पात्र तक सीमित नहीं रहती; बल्कि पूरी कहानी की धुरी बन जाती है। अक्सर त्योहारों, रीतियों या पारिवारिक परंपराओं को लुभावने सेट, चमकदार पोशाकों और अनावश्यक कैमरा एंगल्स के सहारे ऐसा पेश किया जाता है कि वास्तविक संस्कृति कहीं खो जाती है। पूजा–पाठ के दृश्य हों या शादी–समारोह, कैमरा उन चीज़ों पर ज्यादा टिकता है जिन्हें परंपरा नहीं, बाजारवाद बढ़ावा देता है। परिणामस्वरूप, रीति–रिवाजों का अर्थ बदलकर महज एक दृश्यात्मक तमाशे में बदल जाता है।
टीवी की इस नई दुनिया में ‘फूहड़ता’ सिर्फ कपड़ों या दृश्यों में ही नहीं दिखती; सबसे बड़ी फूहड़ता तो संवादों और विचारों में घुस चुकी है। रिश्तों को तोड़ना मज़ाक बन गया है, विवाह एक इस्तेमाल की वस्तु की तरह दिखाया जा रहा है, और स्त्री–पुरुष संबंधों को संदेह, षड्यंत्र और अविश्वास की बुनियाद पर खड़ा किया जा रहा है। संस्कारों और मूल्यों की बात करने वाले पात्र भी अक्सर दिखावे के लिए होते हैं—कहानी की दिशा फिर भी वहीं जाती है जहाँ सनसनी और फूहड़ता अधिक TRP दिला सके।
कई बार यह बहस उठती है कि टीवी पर दिखाया जाने वाला कंटेंट समाज को बदलता है या समाज के बदलते रूप को दिखाता है। लेकिन यहाँ इसका उत्तर काफी स्पष्ट है—सिर्फ दिखाने भर से कोई चीज़ इतनी बड़ी लहर नहीं बनती कि वह व्यवहार और सोच को बदल दे। टीवी की पहुँच और उसकी विश्वसनीयता ही उसे खतरनाक बनाती है। छोटे-बड़े शहरों से लेकर ग्रामीण इलाकों तक टीवी सीरियल वह मूल माध्यम है जिससे कई परिवार ‘समाज’ की परिभाषा तय करते हैं। जब बार–बार फूहड़ संवाद, भौंडे दृश्य और अतिनाटकीय जीवनशैली सामने आती है तो यह धीरे–धीरे सामान्य लगने लगती है। इसे ही ‘नॉर्मलाइज़ेशन’ कहते हैं—जहाँ असामान्य चीज़ें भी सामान्य प्रतीत होने लगती हैं।
यही कारण है कि आज कई परिवारों में बच्चे और किशोर जिस प्रकार का आचरण अपनाने लगते हैं, उसमें टीवी की बड़ी भूमिका है। कई पैरेंट्स तो इसे समझ भी नहीं पाते कि स्क्रीन पर दिखने वाली “ग्लैमर–लाइफ” के असर से बच्चों की अपेक्षाएँ, सोच और व्यवहार में अनजाने बदलाव आ रहे हैं। संस्कृति, परंपरा और मर्यादा की जगह अब “कंपीटिशन ऑफ़ शो–ऑफ़” ने ले ली है। परिवारिक पर्वों को भी आज के कई युवा उसी दृष्टि से देखते हैं जैसी टीवी स्क्रीन उन्हें दिखाती है—अतिरिक्त सजावट, गैरजरूरी नाटक और फूहड़ता के साथ।
एक और बड़ा खतरा यह है कि टीवी सीरियल दर्शक की मानसिकता को विभाजित करते हैं। समाज के वास्तविक मुद्दे—शिक्षा, बेरोज़गारी, महिला सुरक्षा, पर्यावरण, परिवार की वास्तविक समस्याएँ—इन सब पर बातचीत नहीं होती। इसके स्थान पर छल–कपट, तिल का ताड़, और आपसी कलह को केंद्र में रखकर हर एपिसोड तैयार किया जा रहा है। इससे मानसिक थकान बढ़ती है, सकारात्मकता घटती है और समाज में अविश्वास की भावना को बढ़ावा मिलता है। संस्कारों का अर्थ जहाँ शांति, सहयोग, सहअस्तित्व और सामंजस्य से जुड़ा होता है, वहाँ टीवी की दुनिया उन्हें “सतही परिधान” बना देती है।
सवाल यह नहीं है कि टीवी बंद कर दिया जाए या मनोरंजन पर रोक लगा दी जाए। सवाल यह है कि मनोरंजन किस दिशा में जा रहा है, और समाज को किस दिशा में ले जा रहा है। मनोरंजन और फूहड़ता में अंतर होता है। संस्कार और दिखावा एक नहीं होते। परंपरा और तमाशा दो अलग चीज़ें हैं। और दुर्भाग्य यह है कि आज टीवी सीरियल इन सभी सीमाओं को मिटा चुके हैं।
जरूरत इस बात की है कि मीडिया संस्थान अपनी जिम्मेदारी समझें। दर्शकों को भी यह तय करना होगा कि वे क्या चुन रहे हैं। TRP तभी बढ़ती है जब दर्शक किसी चीज़ को देखने का फैसला करते हैं। इसलिए परिवर्तन की शुरुआत दर्शकों से भी हो सकती है। परंपरा का सम्मान केवल शब्दों से नहीं होता; वह व्यवहार, मूल्य और प्रस्तुति से होता है। यदि टीवी संस्कारों की आड़ में फूहड़ता परोस रहा है, तो उसका विरोध आवश्यक है—विचारों से भी और चयन से भी।
संस्कृति किसी देश की आत्मा होती है। अगर मनोरंजन के नाम पर उसी आत्मा को खोने दिया गया, तो आने वाली पीढ़ियाँ क्या याद रखेंगी? उन्हें टीवी पर चमकते कृत्रिम संस्कार याद रहेंगे या घर–परिवार में जीते हुए वास्तविक मूल्य? यह फैसला आज हमें करना है। समाज का भविष्य सिर्फ कानून नहीं बनाते; समाज का भविष्य उसकी संस्कृति बनाती है। और संस्कृति तभी बचेगी जब हम फूहड़ता को मनोरंजन मानने की भूल नहीं करेंगे।
टीवी सिरियलों को अपने मूल उद्देश्य—मनोरंजन, शिक्षा और परिवार की कहानी—पर लौटना ही होगा। वरना संस्कारों के नाम पर जो फूहड़ता आज दिखाई दे रही है, वह कल समाज के मूल चरित्र को ही बदल देगी। यह सिर्फ चिंता नहीं; चेतावनी भी है।