कहानी: जिस पल प्रेम को साबित करना पड़े
लेखक: डॉ. सत्यवान सौरभ
1. प्रारंभ: किताबें और कविताएं
पुस्तक मेले की भीड़ में वह अकेली खड़ी थी, जैसे कोई कविता शोर के बीच खुद को पढ़े जाने की प्रतीक्षा कर रही हो। हाथ में एक किताब — “ग़ालिब की ग़ज़लें”, होंठों पर धीमी मुस्कान और आँखों में हलकी बेचैनी। आरव की नज़र उस पर अनायास टिक गई।
“अच्छी पसंद है,” उसने धीरे से कहा।
रीमा ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा — मुस्कान अब पूरी थी।
“ग़ालिब को समझने के लिए दर्द भी चाहिए,” उसने जवाब दिया।
वो पहली बातचीत थी, जो आगे चलकर अनगिनत चाय की प्यालियों, शाम की सैरों और किताबों की अदला-बदली में बदल गई। दोनों के बीच न कोई इज़हार हुआ, न कोई प्रस्ताव। बस प्रेम, धीरे-धीरे बारिश की तरह उतरता रहा — बिना शोर, बिना शर्त।
2. प्रेम का विस्तार
आरव एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था। तनख्वाह ज़्यादा नहीं थी, पर ज़िंदगी में संतोष था। रीमा एक स्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ाती थी। दोनों के लिए प्रेम कोई फिल्मी तमाशा नहीं था — वह एक आदत था, जिसमें हर दिन एक-दूसरे का इंतज़ार होता, हर हफ्ते एक किताब साझा होती, और हर महीने एक नई जगह की यात्रा।
पर जब प्रेम जीवन की रोज़मर्रा में बसने लगे, तो समाज के दस्तक देने की शुरुआत होती है।
“क्या मम्मी को हमारे बारे में बताया?” रीमा ने एक शाम पूछा, जब वे पार्क में बैठकर सर्द हवा में चाय पी रहे थे।
आरव ने गर्दन झुकाई, “वो बहुत सख्त हैं रीमा, जात-पात की पक्की… थोड़ा वक्त दो।”
रीमा चुप हो गई। पर वह चुप्पी संवाद से भी ज़्यादा बोलने लगी।
3. समय या साहस?
समय बीतता रहा। रीमा के सवाल भी धीरे-धीरे कम होते गए। और आरव के जवाब — वही पुराने, घिसे-पिटे।
“थोड़ा और वक्त…”
“तुम समझती हो ना…”
“माँ को धीरे-धीरे समझाऊँगा…”
फिर एक दिन, रीमा ने एक चिट्ठी थमाई।
“मैंने तुम्हें कभी किसी और के सामने साबित करने के लिए नहीं कहा। पर अब लगता है कि मुझे खुद को तुम्हारे सामने साबित करना पड़ रहा है — कि मैं तुम्हारे योग्य हूँ। मैं थक गई हूँ आरव।”
आरव कुछ कह नहीं पाया।
रीमा चली गई — बिना आंसू, बिना विदाई।
4. टूटन का आलाप
पहले कुछ दिन, आरव को यकीन ही नहीं हुआ।
वो सोचता — “थोड़ा गुस्सा होगी, फिर लौट आएगी।”
पर रीमा नहीं लौटी।
ना कोई कॉल, ना कोई मैसेज।
उसने माँ से बात की।
पहली बार आवाज़ ऊँची की।
“माँ, मैं रीमा से शादी करना चाहता हूँ।”
माँ का चेहरा पत्थर-सा सख्त हो गया।
“नीची जात की लड़की? समाज में क्या मुंह दिखाओगे?”
आरव ने चुपचाप अपना दरवाज़ा बंद कर लिया। पहली बार उसने बगावत की, पर बहुत देर हो चुकी थी।
5. पुनर्मिलन की तलाश
कई महीने बाद, एक शाम आरव उसी पुस्तक मेले में फिर पहुंचा — वही जगह जहाँ वो पहली बार रीमा से मिला था।
उसने ग़ालिब की वही किताब उठाई — शायद किसी उम्मीद में।
एक कोना खाली पड़ा था, जहाँ पहले रीमा बैठी थी।
वो बैठा रहा, कई घंटे।
शायद रीमा आएगी।
शायद फिर से कहेगी — “ग़ालिब को समझने के लिए दर्द भी चाहिए।”
पर कोई नहीं आया।
6. उत्तर-अंत का आरंभ
कुछ समय बाद, आरव को एक मित्र से पता चला — रीमा ने शहर छोड़ दिया है। किसी पहाड़ी कस्बे में एक स्कूल में पढ़ा रही है।
वह जाना चाहता था, माफ़ी मांगना चाहता था।
लेकिन अब प्रेम को शब्दों से नहीं, सिर्फ़ मौन से ही महसूस किया जा सकता था।
आरव ने अपने कमरे की दीवार पर एक वाक्य लिख रखा था:
“जिस पल प्रेम को साबित करना पड़े — वही पल उसका अंत होता है।”
वह अब यह समझ चुका था कि प्रेम कोई गवाह मांगने वाला मुकदमा नहीं होता।
प्रेम या तो होता है, या नहीं।
और अगर उसे साबित करना पड़ जाए,
तो उसमें कुछ टूट चुका होता है —
कुछ ऐसा जो शब्दों से नहीं जुड़ता।
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अंतिम पंक्तियाँ:
आज भी जब बारिश होती है, आरव चाय की प्याली लेकर खिड़की के पास बैठता है।
बाहर की भीगी हवा में उसे रीमा की आवाज़ सुनाई देती है,
“ग़ालिब को समझने के लिए दर्द भी चाहिए।”
आरव मुस्कुराता है।
वह प्रेम में अकेला नहीं है।
वह उस स्मृति में जी रहा है —
जो कभी प्रमाण नहीं मांगती।