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एक अध्ययन के अनुसार, 8-14 वर्ष की उम्र के 65 फीसद बच्चे परिवार से धार्मिक मान्यताएं अपनाते हैं, जो उनकी स्वतंत्र सोच पर प्रभाव डालती हैं। यह उस सामाजिक अनुकूलन का नतीजा है, जो धर्म के नाम पर बच्चों की सोच को सीमित कर देता है। शिक्षा का असली उद्देश्य बच्चों के मन में सवालों को जन्म देना है, न कि उन्हें ऐसे अंधविश्वासों से भर देना, जो उनके आत्मनिर्णय की क्षमता को खत्म कर दें।
भारत जैसे विविधता वाले देश में, जहां महिलाओं को अपनी पसंद के कपड़े पहनने की स्वतंत्रता है, वहां धार्मिक कट्टरता की जड़ें इतनी गहरी कैसे जम रही हैं? एक ओर ईरान में महिलाएं संघर्ष कर रही हैं, तो दूसरी ओर भारत के कुछ हिस्सों में इसे धर्म की पहचान के रूप में थोपा जा रहा है। विडंबना यह है कि जिन बच्चियों को अपने अधिकारों और स्वतंत्रता की समझ होनी चाहिए, उन्हें पहले से ही यह सिखाया जा रहा है कि धर्म के नाम पर कुछ विशेष पहनावे ही ‘शुद्धता’ का प्रमाण हैं। कोई भी परिधान पहनना किसी की निजी पसंद हो सकता है, लेकिन जब यह डर और धार्मिक पूर्वाग्रह के साथ जोड़ा जाता है, तब यह महज कपड़ों की बात नहीं रहती, बल्कि एक मानसिक जकड़न का रूप ले लेती है। जिस उम्र में बच्चों को तार्किक सोच और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने की शिक्षा दी जानी चाहिए, उसी उम्र में उनके दिमाग में यह भरना कि खास परिधान न पहनने वाली औरतें ‘नापाक’ होती हैं, यह दर्शाता है कि सांप-बिच्छू से ज्यादा जहरीला विष समाज बच्चों के मन में घोल रहा है।
अन्य देशों में भी धर्म और शिक्षा के बीच टकराव
धर्म और शिक्षा के टकराव का यह मामला अकेले भारत तक सीमित नहीं है। अमेरिका में विकासवाद बनाम सृजनवाद की बहस हो, फ्रांस में हिजाब प्रतिबंध का मुद्दा हो या अफगानिस्तान में लड़कियों की शिक्षा पर पाबंदी, हर जगह धार्मिक विचारधारा और शिक्षा का संघर्ष साफ नजर आता है। चीन में तो सरकार स्वयं शिक्षा प्रणाली को नियंत्रित कर यह तय करती है कि बच्चों को क्या सोचना चाहिए और क्या नहीं।
विडंबना यह है कि जो शिक्षा व्यक्ति को स्वतंत्र विचारक बनाती है, वही अब पूर्वाग्रहों की जननी बन रही है। इसीलिए स्कूलों को ऐसी किसी भी शिक्षा से दूर रखना जरूरी है, जो बच्चों को पूर्वाग्रहों से भर दे। उन्हें स्वतंत्र रूप से सोचने, सवाल करने और नए विचारों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। राज्य सरकारों और शिक्षा नीति निर्माताओं की भी इसमें अहम भूमिका होनी चाहिए। शिक्षा केवल पाठ्यक्रम तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, बल्कि यह बच्चों को तार्किक सोच और वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने का अवसर देने वाली होनी चाहिए। जब तक शिक्षा में धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों का अंत नहीं होगा, तब तक स्वतंत्र और तार्किक सोच रखने वाली पीढ़ी का निर्माण संभव नहीं होगा।
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अब सवाल यह उठता है कि इस समस्या का समाधान क्या है? सबसे पहले, स्कूलों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि शिक्षा प्रणाली में किसी भी प्रकार के धार्मिक या सांस्कृतिक पूर्वाग्रह की जगह न हो। शिक्षकों को भी इस बात के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए कि वे बच्चों को स्वतंत्र रूप से सोचने और सवाल करने के लिए प्रेरित करें। अभिभावकों की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने बच्चों को धार्मिक कट्टरता से दूर रखते हुए उन्हें विवेकशील और तर्कशील बनाने का प्रयास करें। दूसरा महत्त्वपूर्ण कदम यह हो सकता है कि शिक्षा प्रणाली में विज्ञान और तार्किक सोच को और अधिक प्रोत्साहित किया जाए। पाठ्यक्रम इस तरह बनाया जाना चाहिए कि बच्चों को स्वतंत्र रूप से सोचने और अपनी राय बनाने की आदत विकसित करे। जब तक बच्चे खुद यह समझ नहीं पाएंगे कि उनके लिए क्या सही है और क्या गलत, तब तक वे किसी भी विचारधारा के प्रभाव में आसानी से आ सकते हैं।
शिक्षा का असली उद्देश्य होना चाहिए बच्चों को तर्कशील और स्वतंत्र सोच वाला बनाना
तीसरा समाधान यह हो सकता है कि समाज में व्यापक स्तर पर संवाद और बहस को बढ़ावा दिया जाए। यह जरूरी है कि लोग यह समझें कि किसी भी धार्मिक पहनावे को अनिवार्य बनाना, खासकर जब वह भय और दंड के साथ जोड़ा जाए, तो यह स्वतंत्रता का हनन है। अंतत:, शिक्षा का असली उद्देश्य बच्चों को तर्कशील और स्वतंत्र सोच वाला बनाना होना चाहिए, न कि उन्हें किसी खास विचारधारा की कठपुतली बना देना। जब तक स्कूलों में तार्किक और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा नहीं मिलेगा, तब तक समाज में धार्मिक कट्टरता और पूर्वाग्रहों का जहर फैलता रहेगा। बच्चों का मन एक खाली कैनवास की तरह होता है, जिसे या तो ज्ञान और तार्किकता के रंगों से भरा जा सकता है, या फिर अंधविश्वास और कट्टरता के काले धब्बों से। यह हम पर निर्भर करता है कि हम अगली पीढ़ी को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब
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