1. शकुनी की परछाइयाँ
मैं वह परछाई हूँ, जो छिप न पाई,
मन के आँगन में घर कर गई।
जहाँ चालों की परतें बिछी थीं,
वहाँ मेरा दर्द दबा रह गया।
फुसफुसाती हूँ अंदर के तूफ़ान को,
पर कोई सुनता नहीं मेरी ज़ुबान को।
एक राज़ हूँ, जिसे खोल न सका कोई,
मौन की आड़ में मेरी कहानी छुपी है।
मैं वह साया, जो झूठ के रंगों में रंगा,
पर अंदर से टूटा, जख्मों में डूबा।
कभी पहचान, कभी बेगानी राह,
मैं चली उस पथ पर जो भीड़ से हटता।
हर छल में, हर धोखे के पीछे,
छुपी है मेरी तन्हाई की पीड़ा।
क्या दोष मेरा है, या जीवन का विधान?
मैं शकुनी, पर भी एक अकेला इंसान।
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2. चुप्पियों के चक्रव्यूह
मौन की दीवारें ऊँची हो चलीं हैं,
जहाँ शब्द भी डरते हैं टूटने से।
स्त्री का मन जब चुप्पी अपनाता है,
तो भीतर एक संसार जलता है।
यह चुप्पी, नीरव पीड़ा की भाषा है,
जो बाहर नहीं आती, पर जलाती रहती है।
हर सांस में दबा एक युगों का युद्ध है,
जो अनसुना, अधूरा, अकेला रहता है।
कोई समझ न सके इसे, पर यह सच है,
कि चुप रहना भी एक विद्रोह है।
यह क्रांति का मूक स्वर है,
जो मन के जख्मों को सहता है।
जब बोलने का साहस न रहे,
तब चुप्पी ही आवाज़ बन जाती है।
पर यह आवाज़ कभी-कभी खुद को भी डराती है,
और चक्रव्यूह में खो जाती है।
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3. स्त्रियाँ जो द्रौपदी नहीं बनना चाहतीं
मैं वह स्त्री हूँ, जो युद्ध नहीं चाहती,
पर अपने अस्तित्व के लिए लड़ती हूँ।
द्रौपदी की तरह शौर्य की आंधी नहीं,
मगर अपनी राह खुद चुनती हूँ।
मेरा हौसला सागर सा गहरा है,
मेरा मन पहाड़ सा अडिग है।
मैं किसी की कहानी का हिस्सा नहीं,
अपनी कहानी की रचयिता हूँ।
ना किसी की पत्नि, ना किसी की जंजीर,
मैं हूँ वह जो अपने सपनों की रानी।
मैं नयी ज़मीन जोतती हूँ हर दिन,
और स्वयं के लिए खड़ी होती हूँ।
मेरे भीतर की कोमलता,
साहस से भरी एक आग है।
मैं द्रोपदी नहीं, पर खुद में एक प्रचंड शक्ति हूँ,
जो शांत, पर अटल है।
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4. कभी घर भी युद्धभूमि होता है
यह घर, जहाँ एक दिन सपने पलते थे,
अब केवल सन्नाटे और शब्दों की तलवारें हैं।
माँ की ममता कठोर हो गई है,
और पिता की बातों में कड़वाहट छा गई।
यहाँ प्रेम और अपमान एक साथ रहते हैं,
और खामोशी ज़हर सी फैलती है।
कोई सुनता नहीं, कोई समझता नहीं,
बस जख्म गहरे होते चले जाते हैं।
घर की दीवारें भी दर्द को छुपाती हैं,
और आँखें आँसूओं को दबा लेती हैं।
यह युद्धभूमि है, जहां मन घिर जाता है,
और प्रेम का रूप बदल जाता है।
कभी वह छत थी, जहां शांति थी,
अब वह छत है, जहां बहस होती है।
पर इस अंतर्मन के युद्ध में,
हम हर रोज़ हारते और जीतते हैं।
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5. अर्जुन घर लौट आया है
मैं लौटा उस घर में, जो अब अधूरा था,
जहाँ प्यार की जगह सन्नाटा था।
धनुष-तीर छोड़कर आया मैं,
पर दिल में वह शांति न थी।
घर की दीवारें सुनसान थीं,
रिश्ते जैसे टूटे हुए तार।
मौन का घेराव था हर ओर,
और मन भीतर से टूट रहा था।
मैं वह अर्जुन, जो बाहर तो विजेता,
पर अंदर अकेला और हारा।
कहां गई वो हँसी, वो अपनापन?
जो मुझे फिर से जीना सिखाता।
घर की खाली खिड़कियाँ पुकारती थीं,
पर कोई जवाब न आता था।
मैं उस वीर की तरह हूँ,
जो लड़ता रहा अपने ही मन के खिलाफ।
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6. कृष्ण की चुप सलाहें
मेरे शब्द कम, पर अर्थ गहरा था,
मेरी चुप्पी में भी प्यार झलकता था।
मैं वह साथी, जो समझता था सब कुछ,
पर खुद को दिखा नहीं पाता था।
मेरी सलाहें कभी तीखी, कभी मधुर थीं,
पर उनमें प्रेम की गहराई थी।
मैं था वह सहारा, जो खामोशी में छुपा,
और बुद्धिमत्ता से सबको राह दिखाता।
साथी तो थे, पर समझ की दूरी थी,
जो दिलों को जोड़ न सकी।
क्या प्रेम केवल कहने की बात है?
या चुप रहकर भी निभाने का हुनर?
मेरी चुप्पी की वह भाषा,
जो कोई न समझ पाया।
कभी वह दोस्ती,
कभी वह अकेलापन था।
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7. गांधारी की आँखें
मैंने आंखें बंद कर लीं,
पर मन ने देखना बंद न किया।
दुनिया की पीड़ा, अपने कष्ट को,
मैंने चुपचाप सहा, और सहा।
देखना था, पर अनदेखा करना था,
यह मेरा बलिदान था।
मेरी आँखें कहती थीं,
पर मन को चुप्पी करनी पड़ी।
यह अनदेखा करना,
मेरा सबसे बड़ा उपहार था।
दर्द में भी शक्ति थी,
जो मैंने अपने भीतर रखा।
मैं वह महिला, जो जानती थी सब कुछ,
फिर भी अपने आँसू छुपा लेती थी।
मेरी आंखें उस सच को देखती थीं,
जो शब्दों से परे था।
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8. भीष्म की प्रतिज्ञा
मैंने सब कुछ छोड़ दिया,
अपने प्रेम को त्याग दिया।
अपने कर्तव्य को चुना,
और जीवन को प्रतिज्ञा बना लिया।
पर क्या त्याग प्रेम की मृत्यु है?
क्या बलिदान से दिल मर जाता है?
मैं वह भीष्म हूँ,
जो धर्म से बँधा है, पर अकेला है।
मेरी प्रतिज्ञा, मेरी शक्ति,
पर मेरी एक अधूरी कहानी भी है।
मन में छुपा दर्द कोई नहीं जानता,
पर मैं मजबूर था इस पथ पर चलने को।
यह त्याग मेरा धर्म था,
पर यह प्रेम की हत्या भी थी।
मैं वह पुरुष,
जो अपनी मर्जी से दूर हो गया।
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9. द्रोणाचार्य की वर्ग नीति
ज्ञान बाँटना मेरा कर्म था,
पर न्याय कहीं खो गया।
पक्षपात की तलवार बनी मेरी नीति,
जिससे टूटे रिश्ते कई।
मैं वह शिक्षक था,
जो अपना कर्तव्य भूल गया।
ज्ञान मेरा धर्म था,
पर वर्ग नीति ने उसे बंदी बना लिया।
न्याय के बंधनों में उलझकर,
मैं खुद एक कैदी बन गया।
मेरी शिक्षा ने दी ठोकरें,
और मैंने रिश्ता तोड़ा।
क्या ज्ञान सही मायने में ज्ञान था?
या केवल सत्ता का हथियार?
यह प्रश्न मन में घुल गया,
और चुप्पी छा गई।
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10. तुम शकुनि नहीं, पर बनते क्यों हो?
तुम शकुनि नहीं, पर बनते हो,
चलाते हो चालें, छुपते हो परछाइयों में।
अपने मन के युद्ध को समझो,
क्यों खुद से लड़ते हो?
आत्मनिरीक्षण की सबसे कठिन यात्रा है,
जहाँ हर कदम सवाल बन जाता है।
तुम्हारे भीतर की महाभारत,
अभी भी अधूरी है, जारी है।
जागो उस भीतर के युद्ध से,
और अपने साये को स्वीकारो।
क्योंकि यह लड़ाई अंतर्मन की है,
और इसे जीतना ही जीवन है।
तुम शकुनि नहीं,
पर बनते क्यों हो?
खुद को देखो,
और सच से मत भागो।
— प्रियंका सौरभ