डा• आकांक्षा दीक्षित(BREAKING NEWS EXPRESS )
राजा जनक अपनी सभा में तत्ववेत्ताओं और मंत्रियों के साथ सभा मे परस्पर संवाद एवं राजकार्य में संलग्न थे किंतु उनके मन में उस आकर्षक, कमनीय , तेजस्विनी नारी रत्न के विषय में मंथन चल रहा था जो उनसे भिक्षा लेने आई थी। इस स्त्री ने महाराज को अचंभित कर रखा था। वे समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर इनका मंतव्य क्या है? उधर भोजन आदि पाकर संतुष्ट हुई उस सन्यासिनी ने महाराज से कुछ प्रश्नों के उत्तर जानने की इच्छा प्रकट की। योगबल में निष्णात वे सूक्ष्म बुद्धि द्वारा राजा की बुद्धि में प्रविष्ट हो गई। राजा जनक से प्रश्न करने की इच्छा मन में रखकर उसने अपने नेत्रों की किरणों द्वारा उनके नेत्रों की किरणों को संयत करके अपने योगबल से महाराज जनक के चित्त को बांधकर उन्हें वश में कर लिया । राजा जनक ने उनके अभिप्राय को जानकर उनका आदर कर उनके उस भाव को ग्रहण कर लिया फिर छत्र आदि राजचिह्न से मुक्त राजा जनक और त्रिदण्ड रुप सन्यास से मुक्त सन्यासिनी सुलभा का जो संवाद हुआ वो अत्यंत गूढ़ शास्त्रार्थ हुआ वह महाभारत के शांतिपर्व के मोक्षधर्मपर्व में वर्णित है।तदनुसार महाभारत युद्ध के उपरांत राजा बने युधिष्ठिर के ह्रदय में राज्य के प्रति वैराग्य उत्पन्न हो गया । वे पितामह भीष्म सृजन मोक्षधर्म की शिक्षा लेने पहुंचे। युधिष्ठिर ने पूछा कि ‘पितामह क्या कोई ऐसा उदाहरण भी है कि राजा होते हुए भी कोई निस्पृह रह सके।’ उनके प्रश्न के उत्तर में पितामह ने उन्हें राजा जनक और सुलभा का दृष्टांत सुनाया। राजा जनक के विदेहराज बनने की प्रक्रिया में जिन लोगों ने उनको सहायता की और उनका मार्ग प्रशस्त किया,उनकी दुर्बलताओं को दूर करने में योगदान दिया उसमें सुलभा का भी प्रमुख नाम है। सुलभा के नाम से भी संभवतः बहुत लोग अपरिचित है। यह संवाद बहुत सुंदर है।
राजा जनक ने सुलभा का परिचय जानने की इच्छा प्रकट कि और अपना परिचय देते हुए कहा कि ,’ पाराशर गोत्रीय महात्मा पंचशिख मेरे गुरु है मैं उनका परम प्रिय शिष्य हूं । सांख्य ज्ञान ,योग विद्या तथा राजधर्म इन तीन प्रकार के मोक्ष धर्म में मुझे गंतव्य मार्ग गुरुदेव से प्राप्त हो चुका है। इन विषयों के मेरे सारे संशय दूर हो गए हैं। उन्होंने
मुझे त्रिविध मोक्षधर्म श्रवण करवाया है किंतु राज्य से दूर रहने की आज्ञा नहीं दी है। मैं आप्तकाम हूं ।मेरी दृष्टि में मिट्टी के ढेले, पत्थर और सुवर्ण एकसमान है।’ आगे जनक ने अपने मोक्षधर्म को अभिव्यक्त किया है। फिर उन्होंने कुछ कठोरता से सुलभा पर दोषारोपण किया। उनके अनुसार उन्होंने कहा,’आपने योगबल से अभिभूत कर मेरे शरीर पर बलात् अधिकार किया है,यह सन्यास आश्रम के नियम का उल्लंघन है।आपने किस कारण मेरे राज्य और तदनंतर मेरे शरीर में घुस आई है। आपके व्यवहार द्वारा अनेक संकर दोष यथा वर्णसंकर, आश्रम संकर , गोत्रसंकर,धर्म संकर उत्पन्न हो रहे है। आप मुझे और सभा को जीतना चाहती है। आपका मंतव्य उचित नहीं जान पड़ता है। राजा ,ब्राह्मण , स्त्रियों को धोखा देना अनुचित है। आप अपना उद्देश्य प्रकट कीजिए।
सुलभा ने अत्यन्त सुंदर ढंग से अपनी बात कही। उन्होंने कहा कि
हे नरेश्वर! मैं आपसे वाणी के नौ दोषों से मुक्त और अठारह गुणों से युक्त वाक्य बोलूंगी। मैं आपसे कोई भी नीति,धर्म विरुद्ध बात नहीं कहूंगी।जनेश्वर! जिस वाक्य में पूर्वोक्त सौक्ष्म्य आदि गुण एक अर्थ में सम्मिलित हों,मेरे वैसे ही वाक्य को आप श्रवण करें। मैं ऐसा वाक्य बोलूंगी, जो सार्थक होगा। उसमें अर्थ भेद नहीं होगा।वह न्याय मुक्त होगा। उसमें आवश्यकता से अधिक, कर्णकटु एवं संदेहजनक पद नहीं होंगे। इसप्रकार मैं परम उत्तम वाक्य बोलूंगी। मेरी इस वचन में गुरु एवं निष्ठुर अक्षरों का संयोग नहीं होगा,कोमलकांत सुकुमार पदावली होगी। वह पराङ्मुख व्यक्तियों कुछ लिए सुखद नहीं होगा। वह न तो झूठ होगा ,न धर्म, अर्थ और काम के विरुद्ध और संस्कार शून्य ही होगा।
जिसप्रकार मेरे हाथ में त्रिदण्ड है आपके हाथ मेॅ यह राज्य स्थित है। सप्तांग मित्र,मंत्री,नगर,राष्ट्र, दण्ड,,कोष और राजा से राज्य बनता है।अतः आपका राज्य और मेरा त्रिदण्ड ये दोनों परस्पर उत्कृष्ट गुणों सो युक्त है। फिर इनमें से कौन किस गुण को कारण अधिक है? राज्य के सप्तांग समयानुसार अपनी विशिष्टता सिद्ध करते है, जिस अंग से जो कार्य सिद्ध होता है उसके लिए उसी की प्रधानता मानी जाती है।उक्त सप्तांंग और तीन अन्य शक्तियां -प्रभु शक्ति ,उत्साह शक्ति एवं मंत्रशक्ति ये सब मिलकर राज्य के दस वर्ग है। ये दसों वर्ग संगठित होकर राजा के समान ही राज्य का उपभोग करते हैं। जो राजा महान उत्साही और क्षत्रिय धर्म में तत्पर होता है वह ‘कर’ के रुप में प्रजा की आय का दसवां भाग लेकर संतुष्ट हो जाता है।तथा इससे भिन्न साधारण भूपाल इससे कम लेकर भी संतोष कर लेते है।साधारण प्रजा ना हो तो कोई राजा नहीं हो सकता । राजा ना हो तो राज्य नहीं टिक सकता। राज्य ना हो तो धर्म कैसे रह सकता है और धर्म ना हो तो परमात्मा की प्राप्ति कैसे हो सकती है? यहां राजा और राज्य के लिए जो परम धर्म और परम पवित्र वस्तु है ,उसे सुनिए। जिसकी भूमि दक्षिणा रुप में दे दी जाती है अर्थात जो अपनी राज्य भूमि का दान कर देता है,वह अश्वमेध यज्ञ के समान पुण्य फल का भागी होता है। मिथिलेश! जो राजा को दुख देने वाले है,ऐसे सैंकड़ो और हजारों कर्म है , जिनको यहां बता सकती हूं । मेरी तो अपने ही शरीर में आसक्ति नहीं है फिर दूसरे के शरीर में कैसे हो सकती है।? इसप्रकार योगयुक्त रहने वाली मुझ सन्यासिनी के प्रति आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए। नरेश्वर !जब आपने महर्षि पंचशिखाचार्य उपाय( निदिध्यासन) ,उपनिषद (यम-नियम आदि योग) और निश्चय (ब्रह्म) और जीवात्मा की एकता का अनुभव-इन सबके सहित सम्पूर्ण मोक्षशास्त्र का श्रवण किया है, आप आसक्तियों से मुक्त हो गए है और सम्पूर्ण बंधनों को काटकर खड़े है ,तब आपकी छत्र चंवर आदि विशेष-विशेष वस्तुओं में आसक्ति कैसे हो रही है? मैं समझती हूं आपने पंचशिखाचार्य से श्रवण करके भी श्रवण नहीं किया है अथवा उनसे यदि कोई शास्त्र सुना है तो उसे सुनकर भी मिथ्या कर दिया है।या यह भी हो सकता है कि आपने वेदशास्त्र जैसा प्रतीत होने वाला कोई और ही शास्त्र उनसे सुना हो। इतने पर भी आप यदि विदेहराज,मिथिलेश आदि इन लौकिक नामों में ही प्रतिष्ठित हो रहे है तो आप दूसरे साधारण मनुष्यों की भांति आसक्ति और अवरोध में ही बंधे हुए है। यदि आप सर्वथा मुक्त है तो मैंने जो बुद्धि के द्वारा आपके भीतर प्रवेश किया है,इसमें आपका क्या अपराध किया है? इन सभी वर्णो में यह नियम प्रसिद्ध है कि सन्यासियों को एकांत स्थान में रहना चाहिए। मैने भी आपके शून्य शरीर में निवास करके किस वस्तु को दूषित कर दिया है? हे निष्पाप नरेश! न तो हाथों से, ना भुजाओं से, न पैरों से ,न जांघों से और न ही शरीर के दूसरे अवयवों से मैं आपका स्पर्श कर रही हूं। आप महान कुलोतपन्न,लज्जाशील तथा दीर्घदर्शी पुरुष है।
हम दोनों ने परस्पर भला या बुरा जो कुछ भी किया है उसे आपको इस भरी सभा में नहीं कहना चाहिए । यहां यह सभी वर्णों के गुरु विद्यमान है इन गुरुओं की अपेक्षा भी उत्तम कितने ही माननीय महापुरुष यहां बैठे हैं तथा आप भी राजा होने के कारण इन सबके लिए गुरु के समान है। इस प्रकार आप सबका गौरव एक दूसरे पर अवलंबित है ।अतः इस प्रकार का विचार करके यहां क्या कहना चाहिए और क्या नहीं इसको जांचना आवश्यक है। इस भरी सभा में आपको स्त्री पुरुष के संयोग की चर्चा कदापि नहीं करनी चाहिए। मिथिला नरेश !जैसे कमल के पत्ते पर पड़ा हुआ जल उसे पत्ते को स्पर्श नहीं करता है, उसीप्रकार में आपका स्पर्श ना करती हुई आपके भीतर निवास करूंगी यद्यपि मैं स्पर्श नहीं कर रही हूं तथापि यदि आप मेरे स्पर्श का अनुभव करते हैं तो मुझे यह कहना पड़ता है कि उन संन्यासी महात्मा पंचशिख ने आपको ज्ञान का उपदेश कैसे कर दिया क्योंकि आपने उसे निर्मूल कर दिया। परस्त्री के स्पर्श का अनुभव करने के कारण आप गार्हस्थ धर्म से तो गिर गए ही दुर्बोध और दुर्लभ मोक्ष भी नहीं पा सके। अतः केवल मोक्ष की बात मात्र करते हुए आप गार्हस्थ धर्म और मोक्ष दोनों के बीच में लटक रहे हैं। जीवनमुक्त ज्ञानी के साथ,एकत्व का पृथकत्व के साथ तथा भाव (आत्मा) का अभाव (प्रकृति) के साथ संयोग वर्णसंकरता की उत्पत्ति नहीं हो सकतीव मैं मानती हूं कि समस्त वर्ण और आश्रम पृथक बताए गए हैं तथा आप जिसे ब्रह्म का साक्षात्कार हो गया जो अभेद ज्ञान से संपन्न है वह यह जानकर सारा व्यवहार करता है कि आत्मा से भिन्न दूसरी किसी वस्तु की सत्ता नहीं है तथा तथा अन्य वस्तु अपने से भिन्न दूसरी वस्तु में विद्यमान नहीं है। उसका किसी अन्य के साथ सहयोग होना संभव नहीं है अतः वर्ण संकरता नहीं हो सकती। हाथ में कुंडी है, कुंडी में दूध है, दूध में मक्खी पड़ी हुई है, यह तीनों पृथक होते हुए भी आधाराधेय भाव संबंध से एक दूसरे के आश्रित ही एक साथ हो गए हैं। फिर भी कुंडी में दु्ग्धत्व नहीं आया है और दूध भी मक्खी नहीं बन गया हैै । ये सारे आधेय पदार्थ स्वयं ही अपने से भिन्न आधार को प्राप्त होते हैं । सारे आश्रम पृथक-पृथक है ,चारों वर्ण भी भिन्न है । जब इनमें परस्पर पार्थक्य बना हुआ है तो पृथकत्व को जानने वाले आपके वर्ण का संकर कैसे हो सकता है? राजन मैं जाति से ब्राह्मणी नहीं हूं, मैं आपकी भांति आपके समान वर्ण वाली क्षत्रिय हूं । मैंने अखंड ब्रह्मचर्य का पालन किया है। मेरा जन्म शुद्ध वंश में हुआ हैवअपने प्रधान नामक राजर्षि का नाम अवश्य सुना होगा, मैं उन्हीं के कुल में उत्पन्न हुई हूं। आपको पता होना चाहिए कि मेरा नाम सुलभा है ।मेरे पूर्वजों के यज्ञों में देवराज इंद्र के सहयोग से द्रोण, शतश्रृंंग और चक्रद्वार नामक पर्वत यज्ञवेदी में ईंटों की जगह चुने गए थे। मेरा जन्म इसी महान कुल में हुआ है ।मैंने अपने योग्य पति के नाम मिलने पर मोक्षधर्म की शिक्षा ली तथा मुनि व्रत धारण करके मैं अकेली विचरती रहती हूं। मैं संन्यासिनी का छद्मवेश धारण नहीं किया है। मैं पराये धन का अपहरण नहीं करती हूं और ना ही धर्मसंंकरता फैलाती हूं । मैं दृृढ़तापूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करती हूं। मैं अपने धर्म में स्थित रहती हूं ।जनेश्वर मैं अपनी प्रतिज्ञा से कभी विचलित नहीं होती हूं। बिना सोचे समझे कोई बात नहीं कहती हूं। मैं आपके पास भी खूब सोच विचार कर ही आई हूं। मैंने सुना था कि आपकी बुद्धि मोक्षधर्म में लगी हुई है अतः आपकी मंगलाकाक्षिणी होकर आपके इस मोक्षज्ञान का मर्म जानने के लिए यहां आई हूं। मैं स्वपक्ष और पर पक्ष में से अपने पक्ष में स्थित हो पक्षपातपूर्वक यह बात नहीं कर रही हूं। मैं आपके हित को दृष्टि में रखकर बोलती हूं क्योंकि जो वाणी का व्यायाम नहीं करता है और जो शांत परब्रह्म में निमग्न रहता है, वही मुक्त है। जैसे नगर के किसी सूने घर में सन्यासी एक रात निवास कर लेता है ,उसी प्रकार आपके शरीर में मैं आज की रात रहूंगी। आपने मुझे बहुत सम्मान दिया अपने वाणी रूपी आतिथ्य के द्वारा मेरा भलीभांति सत्कार किया हैै मिथिला नरेश! अब मैं प्रसन्नता पूर्वक आपके शरीर रूपी सुंदर गृह में सोकर का सवेरे यहां से चली जाऊंगी।
इस संवाद के निहितार्थ अत्यंत गहन है। राजा जनक का ज्ञान तो परिलक्षित होता ही है उनको सुलभा द्वारा दिए गए उत्तर विशेष ध्यानाकर्षक है। राजा जनक ने सुलभा पर अनेक दोषारोपण किए किंतु देवी सुलभा ने बिना विचलित हुए सभी का सतर्क खंडन किया। ये बताता हे कि यदि आप निर्दोष है तो विचलित होने की आवश्यकता नहीं है ,बस अपनी बात सही ढंग से प्रस्तुत करनी चाहिए। ये संवाद सिद्ध करता है कि प्राचीन भारतीय नारी ना केवल स्वतंत्र थी अपितु ज्ञान ही नहीं , आध्यात्म के सर्वोच्च शिखर तक पहुंच सकती थी। राजा जनक ने सुलभा की बात का कोई उत्तर नहीं दिया ये उनकी पराजय नहीं वरन उनके भ्रम के दूर होने का द्योतक है। सुलभा और जनक का ये संवाद जिसमें वाणी , वचन, आचार,विचार ,मन, बुद्धि आदि विषयों पर गहन चर्चा है भारतीय आध्यात्म की अनुपम निधि है।