
एक राष्ट्र, एक शिक्षा, एक पाठ्यक्रम और एक परीक्षा की एक समान प्रणाली
विजय गर्ग
पांचवीं कक्षा के विद्यार्थी को उसके ‘कर्मफल’ के लिए उत्तरदायी ठहरा देने की आतुरता ही बच्चों को सफल और विफल में श्रेणीबद्ध करती है। जबकि शैक्षणिक प्रदर्शन के लिए उत्तरदायी ठहरा कर अनुत्तीर्ण करना वास्तव में शिक्षार्थी की विफलता न होकर, शिक्षण पद्धति, पाठ्यक्रम तथा समग्र शैक्षिक प्रणाली की संभावित समस्याओं को उजागर करने की तरफ संकेत है। लगातार संशोधनों और राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के माध्यम से शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई), 2009 को शक्तिहीन किया गया है। पहले, स्थानीय सरकारों को ‘कक्षा-स्तरीय शिक्षा सुनिश्चित करने का अधिकार दिया, जिससे उन्नीस राज्य सरकारों ने किसी छात्र को अनुत्तीर्ण न करने की नीति को नकार दिया। अब केंद्र सरकार के अधीनस्थ स्कूलों में भी इस नीति को समाप्त कर दिया गया है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह नीति जल्द ही देशभर में पूरी तरह से समाप्त हो हो जाएगी।
लगभग छह दशक पहले अमेरिकी लेखक और शिक्षक जान होल्ट की कृति ‘बच्चे असफल कैसे होते हैं’ के प्रकाशन ने शिक्षा पर एक नए विमर्श को जन्म दिया था, जिसमें माना गया कि कोई भी विद्यार्थी स्वभावतः सीखने से विमुख नहीं होता। वे केवल उस पारंपरिक तरीके से ‘शिक्षित’ नहीं होना चाहते, जो उन्हें बोझिल लगता है। हावर्ड गार्डनर बहु-बुद्धिमत्ता सिद्धांत के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति में विविध प्रकार की बुद्धिमत्ता होती है, जैसे भाषाई, तार्किक गणितीय और प्राकृति आदि यह सिद्धांत शिक्षा में विविध पद्धतियों और गतिविधियों के उपयोग की वकालत करता है, ताकि हर छात्र की क्षमता का विकास हो सके। शैक्षिक दृष्टिकोण । भी अब केवल बुद्धि की संकीर्ण परिभाषा पर केंद्रित न होकर, बहु-बुद्धि सिद्धांत की व्यापक समझ की ओर अग्रसर हुआ है। कोई भी बच्चा स्वाभाविक रूप से ‘कमजोर’, ‘मंदबुद्धि’ या ‘नाकाम’ नहीं होता, बल्कि इसके पीछे सीखने के लिए उचित वातावरण का अभाव होता है, जो उसे अपनी पूर्ण क्षमता तक पहुंचने 1 से रोकता है। इसलिए यह शिक्षा प्रणाली की विफलता है, न कि उस बच्चे की ।” परीक्षाओं का मूल | उद्देश्य छात्रों को शिक्षा । व्यवस्था से बाहर करना नहीं होना चाहिए। प्रायः जब हम परीक्षाओं का नियोजन करते हैं, तो योग्यता योग्यता की एक पूर्व निर्धारित अवधारणा को केंद्र में रखते हैं। यह स्थापित दृष्टिकोण छात्रों का पूर्व निर्धारित मानदंडों के आधार पर में वर्गीकृत करने का प्रयास करता है। नतीजतन, जब किसी नपा के आधार पर मूल्यांकन करने और विभिन्न श्रेणियों छात्र को औसत से कम आंका या विफल घोषित कर दिया जाता तो उसे उसी कक्षा में रहना पड़ता है। इस स्थिति में, शिक्षकों, माता-पिता और सहपाठियों का दृष्टिकोण भी बदल जाता है, वे उसे नाकाबिल या विफल होने को अभिशप्त के रूप में देखने लगते हैं। अनेक अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि कक्षा दोहराने से बच्चे के सीखने के परिणाम या सीखने की क्षमताओं में कोई खास सुधार नहीं होता। अंततः एक और वर्ष के लिए उसी पुराने पाठ्यक्रम को दोहराना विद्यार्थी की मूल आवश्यकताओं को पूरा नहीं करता है।
प्रायः ‘योग्यता’ की परिभाषा तय करने का अधिकार सत्ताधारी लोगों के हाथों में होता है। यदि बंदरों को योग्यता के मानक तय करने का अधिकार होता, तो निश्चित तौर पर ‘योग्यता’ को पेड़ चढ़ने की क्षमता के रूप में परिभाषित किया जाता और फिर सभी मछलियां अनिवार्य रूप से कमतर साबित होतीं। इसी प्रकार, एक शिक्षार्थी की सीखने की क्षमता केवल उसकी जन्मजात प्रतिभा पर निर्भर न होकर सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से भी प्रभावित होती है। जैसा कि समाजशास्त्रियों तथा मनोवैज्ञानिकों ने बताया है कि शिक्षार्थी की सीखने की क्षमता उनके सामाजिक- ऐतिहासिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से जटिल रूप से जुड़ी हुई है। ये ऐसे कारक हैं जिन पर शिक्षार्थी का नियंत्रण न के बराबर होता है।
एक राष्ट्र, एक शिक्षा, एक पाठ्यक्रम और एक परीक्षा की एक समान प्रणाली हाशिए पर रहने वाले छात्रों के लिए चुनौतियां और बढ़ा सकती है। मसलन, एक आदिवासी जो संघर्षरत क्षेत्र में है, उसे कई कई चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है जो उसकी की क्षमता को प्रभावित करेंगी। इन चुनौतियों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक सीमित पहुंच, भाषा बाधाएं, 1. सामाजिक भेदभाव और हिंसा का खतरा शामिल हो सकता है। इसलिए सीखने के मानकों को पूरा करने की क्षमता केवल उसकी व्यक्तिगत इच्छाशक्ति या बुद्धि पर नहीं, बल्कि उन उन अनेक 5] बाहरी कारकों पर भी निर्भर करती है, जिन पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है।” भारत की शिक्षा व्यवस्था एक विरोधाभासी तस्वीर प्रस्तुत करती है। एक तरफ, देश में पंद्रह लाख से अधिक विद्यालय और पच्चीस करोड़ से अधिक छात्र हैं, जो शिक्षा के क्षेत्र में अपार संभावनाएं दिखाते हैं। वहीं दूसरी तरफ, इस व्यवस्था में अनेक कमियां भी हैं, जिनकी वजह से लाखों बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिल पाती। लगभग एक लाख सत्रह हजार विद्यालय एकल शिक्षक के सहारे चल रहे हैं। लगभग दो करोड़ बच्चे ऐसी शिक्षा से वंचित हैं, जिसे सही मायने में गुणवत्तापूर्ण कहा जा सके। अनेक राज्यों में शिक्षक छात्र अनुपात असंतुलित है। हाल की रपटों के अनुसार, शिक्षकों के सोलह फीसद पद खाली हैं। इनमें ‘अनुबंध’ पर रखे गए शिक्षक भी शामिल हैं। शिक्षकों के वेतन और भर्ती प्रक्रिया में भी काफी असमानताएं देखने को मिलती हैं। वहीं तेईस फीसद द स्कूलों में शिक्षकों की कमी है। कई विद्यालय प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी से से जूझ रहे रहे हैं। शिक्षा में ‘निवेश’ की घोषणाओं बावजूद, बजटीय आवंटन जीडीपी के छह फीसद से बहुत कम है। इसके अलावा, ग्यारह फीसद विद्यालय बिजली और तेरह फीसद पुस्तकालय के अभाव में चल रहे हैं, जो समग्र शिक्षा के लिए बुनियादी ढांचे को कमजोर करत हैं। किसी भी विद्यार्थी को प्राथमिक शिक्षा पूरी होने तक फेल न करने की नीति को खत्म करना अन्याय है। जिन बच्चों को 2047 के विकसित भारत का वास्तुकार माना जाता है, वे वास्तव एक ऐसी प्रणाली में फंसे हुए हैं, जो उन्हें हर स्तर पर विफल करती है। ‘शिक्षा प्रणाली में ‘उत्तीर्ण’ और ‘ अनुत्तीर्ण’ जैसी पारंपरिक धारणाओं पर पुनर्विचार आवश्यक है। एक ही कक्षा में में दोबारा पढ़ने और विद्यालय से निष्कासन जैसी अवधारणाओं के बारे में भी हमें सिरे से विचार करना होगा। यह कहना कि विद्यालय अब सीखने के केंद्र नहीं, बल्कि मध्याह्न भोजन वितरण केंद्र मात्र रह गए हैं, न केवल हमारे समाज एन व्याप्त गरीबी को अनदेखा करना, बल्कि स्कूलों में में ज्ञान विकसित करने करन की मानवीय आकांक्षा । विश्वासघात भी है। एक शिक्षार्थी सीखने में पीछे रह सकता है या पाठ्यक्रम को शीघ्र नहीं समझ पाता, लेकिन इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं कि उसमें ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता नहीं है। एक बच्चे को ‘शिक्षार्थी’ के रूप में भले विफल घोषित कर दिया जाए, लेकिन ज्ञाता के रूप में उसकी स्वाभाविक क्षमता को नहीं छीनना चाहिए। प्रत्येक शिक्षार्थी में कुछ न कुछ जानने और सीखने की क्षमता होती है और शिक्षा प्रणाली को इस क्षमता को विकसित करने में मदद करनी चाहिए।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार मलोट पंजाब
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