हरगोविंद खुराना
जन्म: 9 जनवरी 1922, रायपुर, मुल्तान (अब पाकिस्तान में)
मृत्यु: नवम्बर 9, 2011, कॉनकॉर्ड, मैसाचूसिट्स, अमरीका
कार्यक्षेत्र: मॉलीक्यूलर बॉयोलॉजी
संस्थाएँ: एम.आई.टी (1970–2007), विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय,मैडिसन (1960–70), ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय (1952–60), कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय (1950–52),स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टैक्नोलॉजी, ज्यूरिख (1948–49), पंजाब विश्वविद्यालय, लिवरपूल विश्वविद्यालय
प्रसिद्ध कार्य: प्रोटीन संश्लेषण में न्यूक्लिटाइड की भूमिका का प्रदर्शन करने वाले पहले व्यक्ति
पुरस्कार: चिकित्सा में नोबेल पुरस्कार (1968), गैर्डनर फाउंडेशन इंटरनेशनल अवार्ड, लुईसा फाउंडेशन इंटरनेशनल अवार्ड, बेसिक मेडिकल रिसर्च के लिए एल्बर्ट लॉस्कर पुरस्कार, पद्म विभूषण
डॉ हरगोविंद खुराना एक भारतीय-अमेरिकी वैज्ञानिक थे जिन्हें सन 1968 में प्रोटीन संश्लेषण में न्यूक्लिटाइड की भूमिका का प्रदर्शन करने के लिए चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। उन्हें यह पुरस्कार साझा तौर पर दो और अमेरिकी वैज्ञानिकों के साथ दिया गया। सन 1968 में ही डॉ॰ निरेनबर्ग के साथ डॉ खुराना को लूशिया ग्रौट्ज हॉर्विट्ज पुरस्कार भी दिया गया।
हरगोविंद खुराना का जन्म ब्रिटिश इंडिया में रायपुर (मुल्तान, अब पाकिस्तान में) में हुआ था पर सन 1966 में उन्होंने अमेरिकी नागरिकता ग्रहण कर ली थी।
प्रारंभिक जीवन व शिक्षा
हरगोविंद खुराना का जन्म अविभाजित भारत के रायपुर (जिला मुल्तान, पंजाब) नामक स्थान पर 9 जनवरी 1922 में हुआ था। उनके पिता एक पटवारी थे। अपने माता-पिता के चार पुत्रों में हरगोविंद सबसे छोटे थे। गरीबी के बावजूद हरगोविंद के पिता ने अपने बच्चो की पढ़ाई पर ध्यान दिया जिसके कारण खुराना ने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर लगा दिया। वे जब मात्र 12 साल के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया और ऐसी परिस्थिति में उनके बड़े भाई नंदलाल ने उनकी पढ़ाई-लिखाई का जिम्मा संभाला। उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानिय स्कूल में ही हुई। उन्होंने मुल्तान के डी.ए.वी. हाई स्कूल में भी अध्यन किया। वे बचपन से ही एक प्रतिभावान् विद्यार्थी थे जिसके कारण इन्हें बराबर छात्रवृत्तियाँ मिलती रहीं।
उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से सन् 1943 में बी.एस-सी. (आनर्स) तथा सन् 1945 में एम.एस-सी. (ऑनर्स) की डिग्री प्राप्त की। पंजाब विश्वविद्यालय में महान सिंह उनके निरीक्षक थे। इसके पश्चात भारत सरकार की छात्रवृत्ति पाकर उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड चले गए। इंग्लैंड में उन्होंने लिवरपूल विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रॉजर जे.एस. बियर के देख-रेख में अनुसंधान किया और डाक्टरैट की उपाधि अर्जित की। इसके उपरान्त इन्हें एक बार फिर भारत सरकार से शोधवृत्ति मिलीं जिसके बाद वे जूरिख (स्विट्सरलैंड) के फेडरल इंस्टिटयूट ऑव टेक्नॉलोजी में प्रोफेसर वी. प्रेलॉग के साथ अन्वेषण में प्रवृत्त हुए।
करियर
उच्च शिक्षा के बाद भी भारत में डाक्टर खुराना को कोई भी योग्य काम न मिला इसलिए सन 1949 में वे वापस इंग्लैंड चले गए और केंब्रिज विश्वविद्यालय में लार्ड टाड के साथ कार्य किया। वे सन 1950 से 1952 तक कैंब्रिज में रहे। इसके बाद उन्होंने के प्रख्यात विश्वविद्यालयों में पढ़ने और पढ़ाने दोनों का कार्य किया।
1952 में उन्हें वैंकोवर (कैनाडा) की कोलम्बिया विश्विद्यालय (Columbia University) से बुलावा आया जिसके उपरान्त वे वहाँ चले गये और जैव रसायन विभाग के अध्यक्ष बना दिए गये। इस संस्थान में रहकर उन्होंने आनुवाँशिकी के क्षेत्र में शोध कार्य प्रारंभ किया और धीरे-धीरे उनके शोधपत्र अन्तर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं और शोध जर्नलों में प्रकाशित होने लगे। इसके फलस्वरूप वे काफी चर्चित हो गये और उन्हें अनेक सम्मान और पुरस्कार भी प्राप्त हुए।
सन 1960 में उन्हें ‘प्रोफेसर इंस्टीट्युट ऑफ पब्लिक सर्विस’ कनाडा में स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया और उन्हें ‘मर्क एवार्ड’ से भी सम्मानित किया गया। इसके पश्चात सन् 1960 में डॉ खुराना अमेरिका के विस्कान्सिन विश्वविद्यालय के इंस्टिट्यूट ऑव एन्ज़ाइम रिसर्च में प्रोफेसर पद पर नियुक्त हुए। सन 1966 में उन्होंने अमरीकी नागरिकता ग्रहण कर ली।
सन 1970 में डॉ खुराना मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एम.आई.टी.) में रसायन और जीव विज्ञान के अल्फ्रेड स्लोअन प्रोफेसर नियुक्त हुए। तब से लेकर सन 2007 वे इस संस्थान से जुड़े रहे और बहुत ख्याति अर्जित की।
नोबेल पुरस्कार
डॉ खुराना ने जीन इंजीनियरिंग (बायो टेक्नोलॉजी) विषय की बुनियाद रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जेनेटिक कोड की भाषा समझने और उसकी प्रोटीन संश्लेषण में भूमिका प्रतिपादित करने के लिए सन 1968 में डॉ खुराना को चिकित्सा विज्ञान का नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया। डॉ हरगोविंद खुराना नोबेल पुरस्कार पाने वाले भारतीय मूल के तीसरे व्यक्ति थे। यह पुरस्कार उन्हें दो और अमेरिकी वैज्ञानिकों डॉ. राबर्ट होले और डॉ. मार्शल निरेनबर्ग के साथ सम्मिलित रूप से प्रदान किया गया था। इन तीनों ने डी.एन.ए. अणु की संरचना को स्पष्ट किया था और यह भी बताया था कि डी.एन.ए. प्रोटीन्स का संश्लेषण किस प्रकार करता है।
नोबेल पुरस्कार के बाद अमेरिका ने उन्हें ‘नेशनल एकेडमी ऑफ़ साइंस’ की सदस्यता प्रदान की (यह सम्मान केवल विशिष्ट अमेरिका वैज्ञानिकों को ही दिया जाता है)।
डॉक्टर खुराना ने अमेरिका में अध्ययन, अध्यापन और अनुसंधान कार्य जारी रखा और देश-विदेश के तमान छात्रों ने उनके सानिध्य में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।
चिकित्सा के क्षेत्र डॉ खुराना के कार्यों को सम्मान देने के लिए विस्कोसिंन मेडिसन यूनिवर्सिटी, भारत सरकार और इंडो-यूएस सांइस एंड टेक्नोलॉजी फोरम ने संयुक्त रूप से सन 2007 में खुराना प्रोग्राम प्रारंभ किया।
पुरस्कार और सम्मान
डॉ हरगोविंद खुराना को उनके शोध और कार्यों के लिए अनेकों पुरस्कार और सम्मान दिए गए। इन सब में नोबेल पुरस्कार सर्वोपरि है।
सन 1968 में चिकित्सा विज्ञानं का नोबेल पुरस्कार मिला
सन 1958 में उन्हें कनाडा का मर्क मैडल प्रदान किया गया
सन 1960 में कैनेडियन पब्लिक सर्विस ने उन्हें स्वर्ण पदक दिया
सन 1967 में डैनी हैनमैन पुरस्कार मिला
सन 1968 में लॉस्कर फेडरेशन पुरस्कार और लूसिया ग्रास हारी विट्ज पुरस्कार से सम्मानित किये गए सन 1969 में भारत सरकार ने डॉ. खुराना को पद्म भूषण से अलंकृत किया
पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ ने डी.एस-सी. की मानद उपाधि दी
व्यक्तिगत जीवन
डॉ हरगोविंद खोराना ने सन 1952 में स्विस मूल की एस्थर एलिजाबेथ सिब्लर से विवाह कर लिया। खुराना दंपत्ति की तीन संताने हुईं – जूलिया एलिज़ाबेथ (1953), एमिली एन्न (1954) और डेव रॉय (1958) उनकी पत्नी ने ताउम्र डॉ खुराना का उनके शोध और अध्यापन के कार्यों पूरा सहयोग किया। सन 2001 में एस्थर एलिजाबेथ सिब्लर की मृत्यु हो गयी।
मृत्यु
09 नवम्बर 2011 को इस महान वैज्ञानिक ने अमेरिका के मैसाचूसिट्स में अन्तिम सांस ली। उनके पीछे परिवार में पुत्री जूलिया और पुत्र डेव हैं।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट
2)पी॰ सी॰ महालनोबिस
जन्म: 29 जून, 1893, कोलकाता, बंगाल
मृत्यु: 28 जून, 1972, कोलकाता, पश्चिम बंगाल
कार्यक्षेत्र: गणित, सांख्यिकी
शिक्षण संस्थान: प्रेसीडेंसी कालेज, कोलकाता; कैंब्रिज यूनिवर्सिटी, लंदन
प्रसिद्ध: महालनोबिस की प्रसिद्धि “महालनोबिस दूरी” के कारण है जो उनके द्वारा सुझाया गयी एक सांख्यिकीय माप है।
विशेष योगदान: भारतीय सांख्यिकी संस्थान की स्थापना
प्रशान्त चन्द्र महालनोबिस एक प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक एवं सांख्यिकीविद थे। उन्हें भारत के द्वितीय पंच-वर्षीय योजना के मसौदे को तैयार करने के लिए जाना जाता है। उन्हें “महालनोबिस दूरी” के लिए भी जाना जाता है जो उनके द्वारा सुझाया गया एक सांख्यिकीय माप है। उन्होंने कोलकाता में ‘भारतीय सांख्यिकी संस्थान’ की स्थापना की और बड़े पैमाने के ‘सैंपल सर्वे’ के डिजाईन में अपना योगदान दिया। देश की आज़ादी के पश्चात उन्हें नवगठित मंत्रिमंडल का सांख्यिकी सलाहकार बनाया गया। उन्होंने बेरोज़गारी समाप्त करने के सरकार के प्रमुख उद्देश्य को पूरा करने के लिए योजनायें बनायीं।
प्रारंभिक जीवन
प्रशांत चंद्र महालनोबिस का जन्म कोलकाता स्थित उनके पैतृक निवास में 29 जून, 1893 को हुआ था। उनके दादा गुरचरण ने सन 1854 में बिक्रमपुर (अब बांग्लादेश) से कोलकाता आकर अपना व्यवसाय स्थापित किया था। उनके पिता प्रबोध चंद्र महालनोबिस ‘साधारण ब्रह्मो समाज’ के सक्रिय सदस्य थे और उनकी माता निरोदबसिनी बंगाल के एक पढ़े-लिखे कुल से सम्बन्ध रखती थीं।
प्रशांत का बचपन विद्वानों और सुधारकों के सानिध्य में गुजरा और उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा उनके दादा द्वारा स्थापित ‘ब्रह्मो ब्वायज स्कूल’ में हुई। उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा भी इसी विद्यालय से सन 1908 में पास की। इसके बाद उन्होंने सन 1912 में प्रेसीडेंसी कालेज से भौतिकी विषय में आनर्स किया और उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए लंदन चले गए। प्रेसीडेंसी कॉलेज में जगदीश चन्द्र बोस, सारदा प्रसन्न दास और प्रफुल्ल चन्द्र रॉय जैसे शिक्षकों ने उन्हें पढाया। मेघनाद साहा उनसे एक कक्षा जूनियर थे तथा सुभाष चन्द्र बोस 2 कक्षा जूनियर।
लन्दन जाकर उन्होंने कैंब्रिज में दाखिला लिया और भौतिकी और गणित दोनों विषयों से डिग्री हासिल की। कैंब्रिज में इनकी मुलाकात महान भारतीय गणितग्य श्रीनिवास रामानुजन से हुई। फिजिक्स में अपना ट्रीपोस करने के बाद उन्होंने ‘कवेंडिश प्रयोगशाला’ में टी.आर. विल्सन के साथ कार्य किया।
उसके बाद ये कुछ समय के लिए कोलकाता लौट आए जहाँ उनकी मुलाकात प्रेसीडेंसी कॉलेज के प्रिंसिपल से हुई जिन्होंने उन्हें वहां पर भौतिकी पढ़ने का आमंत्रण दिया।
कुछ समय बाद प्रशांत इंग्लैंड वापस चले गए जहाँ किसी ने उनको ‘बायोमेट्रिका’ पढने के लिए कहा। यह एक सांख्यिकी जर्नल था। उन्हें इसे पढ़कर इतना आनंद आया कि उन्होंने इसका एक सेट ही खरीद लिया और अपने साथ भारत ले गए। ‘बायोमेट्रिका’ पढने के बाद उन्हें मानव-शास्त्र और मौसमविज्ञान जैसे विषयों में सांख्यिकी की उपयोगिता का ज्ञान हुआ और उन्होंने भारत लौटते वक्त ही इस पर काम करना प्रारंभ कर दिया।
कोलकाता में प्रशांत चन्द्र महालनोबिस की मुलाकात निर्मला कुमारी से हुई जो हेरम्भाचंद्र मित्रा की पुत्री थीं। हेरम्भाचंद्र एक अग्रणी शिक्षाविद और ब्राह्मो समाज के सदस्य थे। 27 फरवरी 1923 को दोनों ने हेरम्भाचंद्र की मर्जी के विरुद्ध विवाह कर लिया। प्रशांत के मामा सर नीलरतन सरकार ने कन्या के पिता का रस्म अदा किया।
भारतीय सांख्यिकी संस्थान
प्रशांत चन्द्र महालनोबिस के कई सहयोगियों ने सांख्यिकी में दिलचस्पी लेना प्रारंभ किया और धीरे-धीरे ये समूह बढ़ता ही गया। ये सभी लोग प्रशांत के प्रेसीडेंसी कॉलेज कमरे में इकठ्ठे होते थे। 17 दिसम्बर 1931 को भारतीय सांख्यिकी संस्थान की स्थापना हुई और 28 अप्रैल 1932 को औपचारिक तौर पर पंजीकरण करा लिया गया।
प्रारंभ में संस्थान प्रेसीडेंसी कॉलेज के भौतिकी विभाग से चलाया गया पर धीरे-धीरे इसके सदस्यों ने जैसे जैसे इस दिशा में काम किया वैसे-वैसे संस्थान भी बढ़ता गया।
‘बायोमेट्रिका’ के तर्ज पर सन 1933 में संस्थान के जर्नल ‘संख्या’ की स्थापना हुई।
सन 1938 में संस्थान का प्रशिक्षण प्रभाग स्थापित किया गया। सन 1959 में भारतीय सांख्यिकी संस्थान को ‘राष्ट्रिय महत्त्व का संस्थान’ घोषित किया गया और इसे ‘डीम्ड विश्वविद्यालय’ का दर्जा दिया गया।
कोलकाता के अलावा भारतीय सांख्यिकी संस्थान की शाखाएं दिल्ली, बैंगलोर, हैदराबाद, पुणे, कोयंबटूर, चेन्नई, गिरिडीह सहित भारत के दस स्थानों में हैं। इसका मुख्यालय कोलकाता में है जहाँ मुख्य रूप से सांख्यिकी की पढ़ाई होती है।
सांख्यिकी में योगदान
आचार्य ब्रजेन्द्रनाथ सील के निर्देशन में प्रशांत चन्द्र महालनोबिस ने सांख्यिकी पर काम करना शुरु किया और इस दिशा में जो सबसे पहला काम उन्होंने किया, वह था कालेज के परीक्षा परिणामों का विश्लेषण। इस काम में उन्हें काफी सफलता मिली। इसके बाद महालनोबिस ने कोलकाता के ऐंग्लो-इंडियंस के बारे में एकत्र किए गए आंकड़ों का विश्लेषण किया। यह विश्लेषण और इसका परिणाम भारत में सांख्यिकी का पहला शोध-पत्र कहा जा सकता है।
महालनोबिस का सबसे बड़ा योगदान उनके द्वारा शुरु किया गया ‘सैंपल सर्वे’ की संकल्पना है। इसके आधार पर आज के युग में बड़ी-बड़ी नीतियां और योजनाएं बनाई जा रही हैं।
महालनोबिस की प्रसिद्धि ‘महालनोबिस दूरी’ के कारण भी है जो उनके द्वारा सुझाया गयी एक सांख्यिकीय माप है।
सम्मान एवं पुरस्कार
सन 1944 में उन्हें ‘वेलडन मेडल’ पुरस्कार दिया गया
सन 1945 में लन्दन की रायल सोसायटी ने उन्हें अपना फेलो नियुक्त किया
सन 1950 में उन्हें ‘इंडियन साइंस कांग्रेस’ का अध्यक्ष चुना गया
अमेरिका के ‘एकोनोमेट्रिक सोसाइटी’ का फेल्लो नियुक्त किया गया
सन 1952 में पाकिस्तान सांख्यिकी संस्थान का फेलो
रॉयल स्टैटिस्टिकल सोसाइटी का मानद फेलो नियुक्त किया गया (1954)
सन 1957 में उन्हें देवी प्रसाद सर्वाधिकार स्वर्ण पदक दिया गया
सन 19 59 में उन्हें किंग्स कॉलेज का मानद फेलो नियुक्त किया गया
1957 में अंतर्राष्ट्रीय सांख्यिकी संस्थान का ऑनररी अध्यक्ष बनाया गया
नका जन्मदिन, 29 जून, हर वर्ष भारत में ‘सांख्यिकी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है
सन 1968 में उन्हें भारत सरकार ने पद्म विभूषण से सम्मानित किया
सन 1968 में उन्हें श्रीनिवास रामानुजम स्वर्ण पदक दिया गया
निधन
प्रोफेसर प्रशांत चंद्र महालनोबिस एक दूरद्रष्टा थे। उन्होंने सांख्यिकी का प्रयोग आम लोगों की भलाई के कार्यों के लिए किया। उन्होंने कभी भी कोई पद आधिकारिक तौर पर स्वीकार नहीं किया क्योंकि उन्हें विज्ञान में ब्यूरोक्रेसी की दखलअंदाजी पसंद नहीं थी। वे भारतीय सांख्यिकी संस्थान को सदैव एक स्वतंत्र संस्था के रूप में देखना चाहते थे। 28 जून, 1972 को उनकी मृत्यु हो गई।
सांख्यिकी दिवस
देश की आर्थिक योजना और सांख्यिकी विकास के क्षेत्र में प्रशांत चन्द्र महालनोबिस के उल्लेखनीय योगदान के मद्देनजर उनका जन्मदिन, 29 जून हर वर्ष भारत में ‘सांख्यिकी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
Vijay Garg Retired Principal
3)शान्ति स्वरूप भटनागर
जन्म: 21 फ़रवरी 1894, शाहपुर, ब्रिटिश भारत (अब पाकिस्तान में)
मृत्यु: 1 जनवरी 1955, नई दिल्ली, भारत
शिक्षा: विज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि, यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन, पंजाब विश्वविद्यालय
कार्यक्षेत्र: वैज्ञानिक, भारत में राष्ट्रिय प्रयोगशालाओं की स्थापना में अमूल्य योगदान दिया
पुरस्कार: पद्म भूषण’ (1954), OBE (1936), नाइटहुड (1941)
डॉ शांति स्वरुप भटनागर एक प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक थे, जिन्होंने भारत में राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं की स्थापना में प्रमुख भूमिका निभाई। इसलिए उन्हें “भारत में राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं’ का जनक भी कहा जाता है। वे 19 साल तक रशायन शाष्त्र के प्राध्यापक रहे। डॉ भटनागर वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसन्धान परिषद (सी.एस.आई.आर.) की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया और इसके पहले महा-निदेशक भी रहे। उन्हें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) का पहला अध्यक्ष भी बनाया गया था।
भारत में विज्ञानं और शोध के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसन्धान परिषद (सी.एस.आई.आर.) ने सन 1958 में शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार की स्थापना की। यह पुरस्कार उन वैज्ञानिकों को दिया जाता है जिन्होंने विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया हो।
प्रारंभिक जीवन
शांति स्वरुप भटनागर का जन्म 21 फ़रवरी 1894 में ब्रिटिश भारत के शाहपुर जिले (अब पाकिस्तान में) के भेरा में एक हिन्दू कायस्थ परिवार में हुआ था। जब वे मात्र 8 महीने के थे तभी उनके पिता परमेश्वरी सहाय भटनागर का निधन हो गया जिसके बाद उनका बचपन उनके नाना के घर गुजरा। उनके नाना एक इंजिनियर थे अतः बालक शांति का रुझान विज्ञान और प्रद्योगिकी की ओर स्वाभाविक ही हो गया। बचपन से ही उन्हें खिलौने, इलेक्ट्रानिक बैटरियां और तारयुक्त टेलीफोन बनाने का शौक रहा। उन्होंने अपने नाना के घर से काव्य और कविता का शौक भी मिला। उनकी प्रारंभिक शिक्षा सिकंदराबाद के दयानंद एंग्लो-वैदिक हाई स्कूल में हुई। सन 1911 में उन्होंने लाहौर के नव-स्थापित दयाल सिंह कॉलेज में दाखिला लिया। यहाँ पर वे ‘सरस्वती स्टेज सोसाइटी’ के सक्रीय सदस्य बन गए। भटनागर ने यहाँ एक कलाकार के तौर पर अच्छी ख्याति अर्जित कर ली थी। उन्होंने उर्दू में ‘करामाती’ नामक एक नाटक लिखा। इस नाटक के अंग्रेजी अनुवाद ने उन्हें ‘सरस्वती स्टेज सोसाइटी’ का साल 1912 का ‘सर्वश्रेष्ठ नाटक’ पुरस्कार और पदक दिलवाया।
शांति स्वरुप भटनागर ने सन 1913 में पंजाब यूनिवर्सिटी से इंटरमीडिएट की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। इसके पश्चात उन्होंने लाहौर के फॉरमैन क्रिस्चियन कॉलेज में दाखिला लिया जहाँ से उन्होंने सन 1916 में बी.एस.सी. और सन 1919 में एम.एस.सी. की परीक्षा उत्तीर्ण की।
उच्च शिक्षा और प्रारंभिक शोध
शांतिस्वरूप भटनागर को विदेश में पढने के लिए ‘दयाल सिंह ट्रस्ट’ से छात्रवृति मिली और वे अमेरिका के लिए (वाया इंग्लैंड) रवाना हो गए पर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था और उन्हें अमेरिका जाने वाले जहाज़ पर सीट नहीं मिल सकी क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध के चलते जहाज़ की सभी सीटों को अमेरिकी सेनाओं के लिए आरक्षित कर दिया गया था।
उनके लिए अच्छी बात ये हुई कि ट्रस्टी ने उन्हें यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में रशायन शाष्त्र के प्राध्यापक प्रोफेसर फ्रेडरिक जी. डोनन के अंतर्गत पढ़ने की अनुमति दे दी। सन 1921 में उन्होंने डॉक्टर ऑफ़ साइंस (डी.एस.सी.) की उपाधि भी अर्जित कर ली। उनके लन्दन प्रवास के दौरान वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसन्धान विभाग ने उन्हें £250 सालाना की फेल्लोशिप भी प्रदान की थी।
अगस्त 1921 में वे भारत वापस आ गए और नव-स्थापित बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में रशायन शाष्त्र के प्राध्यापक (प्रोफेसर) नियुक्त हो गए और तीन साल तक अध्यापन कार्य किया। उन्होंने विश्वविद्यालय के कुलगीत की भी रचना की।
बी.एच.यू. में लगभग तीन साल गुजारने के बाद डॉ भटनागर लाहौर चले गए जहाँ उन्हें पंजाब यूनिवर्सिटी में ‘फिजिकल केमिस्ट्री’ का प्रोफेसर व विश्वविद्यालय के राशायनिक प्रयोगशालाओं का निदेशक नियुक्त किया गया। यह उनके वैज्ञानिक जीवन की सबसे महत्वपूर्ण अवधि थी जिसके दौरान उन्होंने मौलिक वैज्ञानिक शोध किया। इस दौरान उन्होंने इमल्संस, कोल्लोइड्स और औद्योगिक रशायन शाष्त्र पर कार्य किया पर ‘मैग्नेटो-केमिस्ट्री’ के क्षेत्र में उनका योगदान सबसे अहम् रहा।
सन 1928 में उन्होंने के.एन.माथुर के साथ मिलकर ‘भटनागर-माथुर मैग्नेटिक इन्टरफेरेंस बैलेंस’ का आविष्कार किया। यह चुम्बकीय प्रकृति ज्ञात करने के लिए सबसे सम्वेदनशील यंत्रों में एक था। इसका प्रदर्शन सन 1931 में ‘रॉयल सोसाइटी के भोज’ में किया गया था। बाद में एक ब्रिटिश कम्पनी ने इसका उत्पादन भी किया गया।
स्वतंत्रता के उपरान्त, होमी जहाँगीर भाभा, प्रशांत चन्द्र महलानोबिस, विक्रम साराभाई और दूसरे अन्य वैज्ञानिकों के साथ-साथ डॉ भटनागर ने भी देश में विज्ञान एवं प्रद्योगिकी के आधारभूत ढांचे और नीतियों को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कई युवा और होनहार वैज्ञानिकों का मार्गदर्शन किया और प्रोत्साहित भी किया। इनमे शामिल थे श्यामदास चटर्जी, शांतिलाल बनर्जी और आशुतोष मुख़र्जी। वे ‘रमन इफ़ेक्ट’ पर सी.वी. रमन और के.एस. कृष्णन द्वारा किये जा रहे कार्यों पर भी गौर करते थे।
उन्होंने शिक्षा मंत्रालय में सचिव के पद पर कार्य किया और भारत सरकार के शिक्षा सलाहकार भी रहे। उन्होंने ‘वैज्ञानिक श्रमशक्ति समिति रिपोर्ट 1948’ के गठन और विचार-विमर्श में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
उन्होंने व्यावहारिक रसायन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया और ‘नेशनल रिसर्च डेवलपमेंट कारपोरेशन’ (एन.आर.डी.सी.) की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एन.आर.डी.सी. की भूमिका है शोध और विकास के बीच अंतर को समाप्त करना। उन्होंने देश में ‘औद्योगिक शोध आन्दोलन’ के प्रवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सन 1951 में उन्होंने तेल कंपनियों से ‘आयल रिफायनरीज’ स्थापित करने के लिए वार्ता हेतु एक-सदस्यीय आयोग का गठन किया जिसके परिणामस्वरूप सम्पूर्ण देश में कई ‘आयल रिफायनरीज’ की स्थापना हुई।
देश की आज़ादी के उपरांत सन 1947 में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की स्थापना, शांति स्वरुप भटनागर के नेतृत्व में की गयी और उन्हें सी.एस.आई.आर का प्रथम महा-निदेशक भी बनाया गया। डॉ भटनागर को ‘शोध प्रयोगशालाओं का जनक’ कहा जाता है। उन्होंने भारत में अनेकों बड़ी रासायनिक प्रयोगशालाओं के स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। डॉ भटनागर ने भारत में कुल बारह राष्ट्रीय प्रयोगशालाएं स्थापित कीं, जिनमें प्रमुख इस प्रकार से हैं:
केन्द्रीय खाद्य प्रोसैसिंग प्रौद्योगिकी संस्थान, मैसूर,
राष्ट्रीय रासायनिकी प्रयोगशाला, पुणे,
राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला, नई दिल्ली,
राष्ट्रीय मैटलर्जी प्रयोगशाला, जमशेदपुर,
केन्द्रीय ईंधन संस्थान, धनबाद
भारत में विज्ञान के विकास में इनके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए इनकी मृत्यु के उपरांत, सी.एस.आई.आर ने ‘भटनागर पुरस्कार’ की शुरुआत की घोषणा की। यह पुरस्कार विज्ञान के हर क्षेत्र के कुशल वैज्ञानिकों को दिया जाता है।
भारत सरकार ने डॉ शांति स्वरूप भटनागर को विज्ञान एवं अभियांत्रिकी क्षेत्र में पद्म भूषण से सन 1954 में सम्मानित किया।
मृत्यु
1 जनवरी 1955 को दिल का दौरा पड़ने से डॉ शांति स्वरुप भटनागर की म्रत्यु हो गई।
4)आर्यभट्ट
जन्म: 476 कुसुमपुर अथवा अस्मक
मृत्यु: 550
कार्य: गणितग्य, खगोलशाष्त्री
आर्यभट्ट प्राचीन समय के सबसे महान खगोलशास्त्रीयों और गणितज्ञों में से एक थे। विज्ञान और गणित के क्षेत्र में उनके कार्य आज भी वैज्ञानिकों को प्रेरणा देते हैं। आर्यभट्ट उन पहले व्यक्तियों में से थे जिन्होंने बीजगणित (एलजेबरा) का प्रयोग किया। आपको यह जानकार हैरानी होगी कि उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘आर्यभटिया’ (गणित की पुस्तक) को कविता के रूप में लिखा। यह प्राचीन भारत की बहुचर्चित पुस्तकों में से एक है। इस पुस्तक में दी गयी ज्यादातर जानकारी खगोलशास्त्र और गोलीय त्रिकोणमिति से संबंध रखती है। ‘आर्यभटिया’ में अंकगणित, बीजगणित और त्रिकोणमिति के 33 नियम भी दिए गए हैं।
आर्यभट्ट
आज हम सभी इस बात को जानते हैं कि पृथ्वी गोल है और अपनी धुरी पर घूमती है और इसी कारण रात और दिन होते हैं। मध्यकाल में ‘निकोलस कॉपरनिकस’ ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था पर इस वास्तविकता से बहुत कम लोग ही परिचित होगें कि ‘कॉपरनिकस’ से लगभग 1 हज़ार साल पहले ही आर्यभट्ट ने यह खोज कर ली थी कि पृथ्वी गोल है और उसकी परिधि अनुमानत: 24835 मील है। सूर्य और चन्द्र ग्रहण के हिन्दू धर्म की मान्यता को आर्यभट्ट ने ग़लत सिद्ध किया। इस महान वैज्ञानिक और गणितग्य को यह भी ज्ञात था कि चन्द्रमा और दूसरे ग्रह सूर्य की किरणों से प्रकाशमान होते हैं। आर्यभट्ट ने अपने सूत्रों से यह सिद्ध किया कि एक वर्ष में 366 दिन नहीं वरन 365.2951 दिन होते हैं।
प्रारंभिक जीवन
आर्यभट्ट ने अपने ग्रन्थ ‘आर्यभटिया’ में अपना जन्मस्थान कुसुमपुर और जन्मकाल शक संवत् 398 (476) लिखा है। इस जानकारी से उनके जन्म का साल तो निर्विवादित है परन्तु वास्तविक जन्मस्थान के बारे में विवाद है। कुछ स्रोतों के अनुसार आर्यभट्ट का जन्म महाराष्ट्र के अश्मक प्रदेश में हुआ था और ये बात भी तय है की अपने जीवन के किसी काल में वे उच्च शिक्षा के लिए कुसुमपुरा गए थे और कुछ समय वहां रहे भी थे। हिन्दू और बौध परम्पराओं के साथ-साथ सातवीं शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ भाष्कर ने कुसुमपुरा की पहचान पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) के रूप में की है। यहाँ पर अध्ययन का एक महान केन्द्र, नालन्दा विश्वविद्यालय स्थापित था और संभव है कि आर्यभट्ट इससे जुड़े रहे हों। ऐसा संभव है कि गुप्त साम्राज्य के अन्तिम दिनों में आर्यभट्ट वहां रहा करते थे। गुप्तकाल को भारत के स्वर्णिम युग के रूप में जाना जाता है।
कार्य
आर्यभट्ट के कार्यों की जानकारी उनके द्वारा रचित ग्रंथों से मिलती है। इस महान गणितग्य ने आर्यभटिय, दशगीतिका, तंत्र और आर्यभट्ट सिद्धांत जैसे ग्रंथों की रचना की थी। विद्वानों में ‘आर्यभट्ट सिद्धांत’ के बारे में बहुत मतभेद है । ऐसा माना जाता है कि ‘आर्यभट्ट सिद्धांत’ का सातवीं शदी में व्यापक उपयोग होता था। सम्प्रति में इस ग्रन्थ के केवल 34 श्लोक ही उपलब्ध हैं और इतना उपयोगी ग्रंथ लुप्त कैसे हो गया इस विषय में भी विद्वानों के पास कोई निश्चित जानकारी नहीं है।
आर्यभटीय
आर्यभटीय उनके द्वारा किये गए कार्यों का प्रत्यक्ष विवरण प्रदान करता है। ऐसा माना जाता है कि आर्यभट्ट ने स्वयं इसे यह नाम नही दिया होगा बल्कि बाद के टिप्पणीकारों ने आर्यभटीय नाम का प्रयोग किया होगा। इसका उल्लेख भी आर्यभट्ट के शिष्य भास्कर प्रथम ने अपने लेखों में किया है। इस ग्रन्थ को कभी-कभी आर्य-शत-अष्ट (अर्थात आर्यभट्ट के 108 – जो की उनके पाठ में छंदों कि संख्या है) के नाम से भी जाना जाता है। आर्यभटीय में वर्गमूल, घनमूल, समान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन है। वास्तव में यह ग्रन्थ गणित और खगोल विज्ञान का एक संग्रह है। आर्यभटीय के गणितीय भाग में अंकगणित, बीजगणित, सरल त्रिकोणमिति और गोलीय त्रिकोणमिति शामिल हैं। इसमे सतत भिन्न (कँटीन्यूड फ़्रेक्शन्स), द्विघात समीकरण (क्वड्रेटिक इक्वेशंस), घात श्रृंखला के योग (सम्स ऑफ पावर सीरीज़) और ज्याओं की एक तालिका (Table of Sines) शामिल हैं। आर्यभटीय में कुल 108 छंद है, साथ ही परिचयात्मक 13 अतिरिक्त हैं। यह चार पदों अथवा अध्यायों में विभाजित है:
आर्य-सिद्धांत
आर्य-सिद्धांत खगोलीय गणनाओं के ऊपर एक कार्य है। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, यह ग्रन्थ अब लुप्त हो चुका है और इसके बारे में हमें जो भी जानकारी मिलती है वो या तो आर्यभट्ट के समकालीन वराहमिहिर के लेखनों से अथवा बाद के गणितज्ञों और टिप्पणीकारों जैसे ब्रह्मगुप्त और भास्कर प्रथम आदि के कार्यों और लेखों से। हमें इस ग्रन्थ के बारे में जो भी जानकारी उपलब्ध है उसके आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि यह कार्य पुराने सूर्य सिद्धांत पर आधारित है और आर्यभटीय के सूर्योदय की अपेक्षा इसमें मध्यरात्रि-दिवस-गणना का उपयोग किया गया है। इस ग्रन्थ में ढेर सारे खगोलीय उपकरणों का भी वर्णन है। इनमें मुख्य हैं शंकु-यन्त्र, छाया-यन्त्र, संभवतः कोण मापी उपकरण, धनुर-यन्त्र / चक्र-यन्त्र, एक बेलनाकार छड़ी यस्ती-यन्त्र, छत्र-यन्त्र और जल घड़ियाँ।
उनके द्वारा कृत एक तीसरा ग्रन्थ भी उपलब्ध है पर यह मूल रूप में मौजूद नहीं है बल्कि अरबी अनुवाद के रूप में अस्तित्व में है – अल न्त्फ़ या अल नन्फ़। यह ग्रन्थ आर्यभट्ट के ग्रन्थ का एक अनुवाद के रूप में दावा प्रस्तुत करता है, परन्तु इसका वास्तविक संस्कृत नाम अज्ञात है। यह फारसी विद्वान और इतिहासकार अबू रेहान अल-बिरूनी द्वारा उल्लेखित किया गया है।
आर्यभट्ट का योगदान
आर्यभट का भारत और विश्व के गणित और ज्योतिष सिद्धान्त पर गहरा प्रभाव रहा है। भारतीय गणितज्ञों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले आर्यभट ने 120 आर्याछंदों में ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत और उससे संबंधित गणित को सूत्ररूप में अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘आर्यभटीय’ में प्रस्तुत किया है।
उन्होंने गणित के क्षेत्र में महान आर्किमिडीज़ से भी अधिक सटीक ‘पाई’ के मान को निरूपित किया और खगोलविज्ञान के क्षेत्र में सबसे पहली बार यह घोषित किया गया कि पृथ्वी स्वयं अपनी धुरी पर घूमती है।
स्थान-मूल्य अंक प्रणाली आर्यभट्ट के कार्यों में स्पष्ट रूप से विद्यमान थी। हालांकि उन्होंने शुन्य दर्शाने के लिए किसी प्रतीक का प्रयोग नहीं किया, परन्तु गणितग्य ऐसा मानते हैं कि रिक्त गुणांक के साथ, दस की घात के लिए एक स्थान धारक के रूप में शून्य का ज्ञान आर्यभट्ट के स्थान-मूल्य अंक प्रणाली में निहित था।
यह हैरान और आश्चर्यचकित करने वाली बात है कि आजकल के उन्नत साधनों के बिना ही उन्होंने लगभग डेढ़ हजार साल पहले ही ज्योतिषशास्त्र की खोज की थी। जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं, कोपर्निकस (1473 से 1543 इ.) द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत की खोज आर्यभट हजार वर्ष पहले ही कर चुके थे। “गोलपाद” में आर्यभट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है।
इस महान गणितग्य के अनुसार किसी वृत्त की परिधि और व्यास का संबंध 62,832 : 20,000 आता है जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है। आर्यभट्ट कि गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि 39,968.0582 किलोमीटर है, जो इसके वास्तविक मान 40,075.0167 किलोमीटर से केवल 0.2 % कम है।
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सुब्रमन्यन चंद्रशेखर
जन्म: 19 अक्टूबर 1910
मृत्यु: 21 अगस्त 1995
उपलब्धियां: ‘चंद्रशेखर लिमिट’ की खोज, 1983 में भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित
सुब्रमन्यन चंद्रशेखर 20वीं सदी के महानतम वैज्ञानिकों में से एक थे। उन्होंने खगोलशाष्त्र, भौतिकी और एप्लाइड मैथमेटिक्स में सराहनीय कार्य किया। चंद्रशेखर को वर्ष 1983 में भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। चंद्रशेखर महान भारतीय वैज्ञानिक और भौतिकी के नोबेल पुरस्कार विजेता सीवी रमन के भतीजे थे। चंद्रशेखर मानव की साझी परम्परा में विश्वास रखते थे। उनके अनुसार, “यह एक तथ्य है कि मानव मन एक ही तरीके से काम करता है। इस बात से एक और बात के पता चलता है कि जिन चीजों से हमें आनन्द मिलता है, वे विश्व के हर भाग में लोगों को आनन्द प्रदान करती है। इस प्रकार हम सब का साझा हित है”। चंद्रशेखर एक महान वैज्ञानिक, एक कुशल अध्यापक और उच्चकोटि के विद्वान थे।
प्रारंभिक जीवन
सुब्रमन्यन चंद्रशेखर का जन्म 10 अक्टूबर 1910 को लाहौर में हुआ था। उनके पिता चंद्रशेखर सुब्रमन्य ऐय्यर भारत सरकार के लेखापरीक्षा विभाग में अधिकारी थे। उनकी माता पढ़ी-लिखी उच्च कोटि की विदुषी महिला थीं। चंद्रशेखर महान भारतीय वैज्ञानिक और भौतिकी के नोबेल पुरस्कार विजेता सीवी रमन के भतीजे थे। बारह साल की उम्र तक चंद्रशेखर की शिक्षा माता-पिता और निजी ट्यूटर के देख-रेख में हुई। 12 साल की उम्र में उन्होंने हिन्दू हाई स्कूल में दाखिला लिया। वर्ष 1925 में उन्होंने मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। सुब्रमन्यन चंद्रशेखर ने भौतिकी विषय में स्नातक की परीक्षा वर्ष 1930 में उतीर्ण की। जुलाई 1930 में उन्हें भारत सरकार की ओर से कैम्ब्रिज विश्विद्यालय, इंग्लैंड, में पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति मिला।
उन्होंने अपनी पी.एच.डी. वर्ष 1933 में पूरा कर लिया। तत्पश्चात उन्हें ट्रिनिटी कॉलेज के फैलोशिप के लिए चुना गया। इस फैलोशिप की अवधि 1933-37 थी। वर्ष 1936 में वो कुछ समय के लिये हार्वर्ड विश्वविद्यालय के दौरे पर गए थे जब उन्हें शिकागो विश्वविद्यालय में एक रिसर्च एसोसिएट के पद की पेशकश की गयी जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। सितम्बर 1936 में सुब्रमन्यन चंद्रशेखर ने लोमिता दोरईस्वामी से शादी कर ली जो मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज में उनकी जूनियर थीं।
कैरियर
उन्होंने अपने कैरियर ज्यादा समय शिकागो विश्वविद्यालय में बिताया। यहाँ उन्होंने कुछ समय यर्केस वेधशाला, और अस्त्रोफिजीकल जर्नल के संपादक के रूप में बिताया। शिकागो विश्वविद्यालय के संकाय में उन्होंने वर्ष 1937 से लेकर अपने मृत्यु 1995 तक कार्य किया। वर्ष 1953 में वो संयुक्त राज्य अमेरिका के नागरिक बन गए।
खगोलिकी के क्षेत्र में उनकी सबसे बड़ी सफलता उनके द्वारा प्रतिपादित “चन्द्रशेखर लिमिट” नामक सिद्धांत से हुई। इसके द्वारा उन्होंने ‘श्वेत ड्वार्फ’ तारों के समूह की अधिकतम आयु सीमा के निर्धारण की विवेचना का मार्ग प्रशस्त किया। सुब्रमन्यन चन्द्रशेखर ने खगोलिकी के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण कार्य किये। इस विश्वविख्यात खगोल वैज्ञानिक ने खगोल भौतिकी के अतिरिक्त खगोलिकीय गणित के क्षेत्र में भी उच्च स्तरीय शोध और कार्य किये। “तारों के ठण्डा होकर सिकुड़ने के साथ केन्द्र में घनीभूत होने की प्रक्रिया” पर किये गये उनके अध्ययन संबंधी शोध कार्य के लिए 1983 में उन्हें भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। चन्द्रशेखर सीमा के प्रतिपादन के फलस्वरूप न्यूट्रोन तारों और ‘ब्लैक होल्स’ का पता चला।
चंद्रशेखर लिमिट की खोज के अलावा सुब्रमन्यन चंद्रशेखर द्वारा किये गए प्रमुख कार्यों में शामिल है: थ्योरी ऑफ़ ब्राउनियन मोशन (1938-1943); थ्योरी ऑफ़ द इल्लुमिनेसन एंड द पोलारिजेसन ऑफ़ द सनलिट स्काई (1943-1950); सापेक्षता और आपेक्षिकीय खगोल भौतिकी (1962-1971) के सामान्य सिद्धांत और ब्लैक होल के गणितीय सिद्धांत (1974-1983)।
चंद्रशेखर के जीवन और करियर की यात्रा आसान नहीं थी। उन्हें तमाम प्रकार की कठिनाईयों से झूझना पड़ा पर ये सब बातें उनके लिए छोटी थीं। वह एक शख्श थे जिन्हें भारत (जहां उसका जन्म हुआ), इंग्लैंड और यूएसए की तीन भिन्न संस्कृतियों की जटिलताओं द्वारा आकार दिया गया।
उनके मार्गदर्शन और देख-रेख में लगभग 50 छात्रों ने पी. एच. डी. किया। अपने विद्यार्थीयों के साथ उनके संबंध हमें गुरू-शिष्य परंपरा की याद दिलाते है। उनके विद्यार्थी उनका बहुत आदर करते थे लेकिन वह उन्हें लगातार उत्साहित भी रहते थे ताकि वे अपने दृष्टिकोण निर्भिक हो कर रखें।
नोबेल पुरस्कार
प्रोफेसर एस चंद्रशेखर को वर्ष 1983 में तारों के संरचना और विकास से सम्बंधित उनके शोध और कार्यों के लिए भौतिकी में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। हालाँकि उन्होंने पुरस्कार स्वीकार कर लिया पर नोबेल पुरस्कार के प्रशस्ति पत्र में सिर्फ उनके आरंभिक कार्यों का वर्णन किया गया था जिससे उन्हें घोर निराशा हुई।
पुरस्कार और सम्मान
1944: रॉयल सोसाइटी के फेलो बने
1949: हेनरी नोर्रिस रुस्सेल लेक्चररशिप
1952: ब्रूस पदक
1953: रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी के स्वर्ण पदक से सम्मानित
1957: अमेरिकन अकादमी ऑफ़ आर्ट्स एंड साइंसेज के रमफोर्ड पुरस्कार से सम्मानित
1966: राष्ट्रीय विज्ञान पदक , संयुक्त राज्य अमेरिका
1968: भारत सरकार द्वारा पद्म विभूषण से सम्मानित
1971: नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज द्वारा हेनरी ड्रेपर मेडल
1983: भौतिक विज्ञान में नोबेल पुरस्कार
1984: रॉयल सोसाइटी का कोप्ले मेडल
1988: इंटरनेशनल अकादमी ऑफ़ साइंस के मानद फेलो
1989: गॉर्डन जे लैंग पुरस्कार
हम्बोल्ट पुरस्कार
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब