
जीवित रहें पुस्तकालय -विजय गर्ग
किसी समाज की सभ्यता और संवेदनशीलता का पैमाना केवल उसकी भौतिक प्रगति से नहीं, बल्कि उसकी बौद्धिक और सांस्कृतिक चेतना से भी मापा जाता है। यह चेतना कहां विकसित होती है ? क्या केवल विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में ? या फिर केवल घर की चारदीवारी में ? नहीं, यह चेतना उस सार्वजनिक स्थान पर भी आकार लेती है, जहां विचार स्वतंत्र होते हैं, जिज्ञासाएं
पूरित होती हैं और ज्ञान की कोई कीमत नहीं होती । वह स्थान है सार्वजनिक पुस्तकालय ।
मनुष्य के विकास का इतिहास मूलतः ज्ञान और जानकारी की खोज का इतिहास है। सभ्यता की शुरुआत से ही मनुष्य ने जानकारी को संरक्षित करने और साझा करने के विविध प्रयास किए हैं गुफाओं की चित्रकला से लेकर ‘डिजिटल आर्काइव’ तक। इस संदर्भ में पुस्तकालयों की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण रही है। पुस्तकालय ज्ञान के भंडार से बढ़कर मानवता की सामूहिक स्मृति और विकास की धुरी हैं।
विचार और अधिकार
संयुक्त राष्ट्र के सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा-पत्र के अनुच्छेद 19 में कहा गया है कि ‘प्रत्येक व्यक्ति को राय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है; इस अधिकार में सूचना और विचारों को बिना किसी सीमाओं के प्राप्त करने, ग्रहण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता भी सम्मिलित है।’ यह अधिकार तभी सार्थक होता है, जब समाज में ऐसे संस्थान हों जो सबको समान रूप से ज्ञान तक पहुंच प्रदान करें। सार्वजनिक पुस्तकालय इस अधिकार की भौतिक अभिव्यक्ति हैं। जब हम सार्वजनिक पुस्तकालयों की बात करते हैं, तो हम उस अधिकार की भी बात कर रहे होते हैं जो हर मनुष्य को सूचना, शिक्षा और आत्मविकास के लिए प्राप्त होना चाहिए ।
पुस्तकालय विचारों की खान होते हैं, जहां हर आयु, जाति, वर्ग और पृष्ठभूमि का व्यक्ति प्रवेश कर सकता है और अपने बौद्धिक क्षितिज का विस्तार कर सकता है। सार्वजनिक पुस्तकालय लोकतंत्र के उन मौन स्तंभों में से एक हैं, जहां सूचना की समता संभव होती है। अमीर हो या गरीब, पढ़ा-लिखा हो या ज्ञान की शुरुआत करने वाला हर व्यक्ति पुस्तकालय में समान अधिकार के साथ प्रवेश करता है। यही समानता किसी समाज को भीतर
से मजबूत करती है।
जब समाज में शिक्षा की पहुंच बढ़ती है, तो उसे पोषण देने के लिए ऐसे मंचों की आवश्यकता होती है जो औपचारिक शिक्षा से आगे जाकर जिज्ञासा को जीवित रखें। पुस्तकालय वही मंच है, जहां पाठ्यक्रम की सीमाएं टूटती हैं और पाठक अपनी गति और रुचि के अनुसार सीखने लगता है। वहां कोई परीक्षा नहीं होती, कोई अंक नहीं दिए जाते, फिर भी सीखने की प्रक्रिया अधिक सजीव और आत्मीय होती है। यह आत्म- प्रेरित अध्ययन किसी भी राष्ट्र की सृजनात्मक क्षमता को बढ़ावा देता है।
सार्वजनिक पुस्तकालयों का एक और महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि वे सामाजिक एकता के प्रतीक होते हैं। वे
विचारों की बहुलता को स्वीकार करते हैं और विभिन्न मतों को एक ही छत के नीचे सह-अस्तित्व प्रदान करते हैं। जहां समाज में ध्रुवीकरण बढ़ रहा है, वहां पुस्तकालय जैसे स्थान एक शांतिपूर्ण संवाद की संभावना रखते हैं। अलमारी के एक ही खाने में गांधी और
मार्क्स की किताबें मिल सकती हैं, तुलसी और कबीर साथ- साथ मिल सकते हैं और यही विविधता हमें सहिष्णुता सिखाती है।
ज्ञान का विवेक
तकनीक के इस युग में यह तर्क दिया जा सकता है कि जब सारी जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध है, तो पुस्तकालय की क्या आवश्यकता है! यह भूलना नहीं चाहिए कि इंटरनेट जानकारी तो देता है, पर संदर्भ और विवेक के साथ ज्ञान नहीं देता। पुस्तकालय एक संरचित और विश्वसनीय ज्ञान का भंडार है, जहां किताबों की उपस्थिति और उनका चयन एक विचारशील प्रक्रिया का परिणाम होता है। इसके अलावा, डिजिटल पहुंच आज भी अनेक लोगों के लिए एक विशेषाधिकार है, जबकि पुस्तकालय सार्वजनिक और समावेशी होते हैं।
पुस्तकालयों का महत्त्व केवल बौद्धिक नहीं, भावनात्मक और सांस्कृतिक स्तर पर भी है। कितने ही लोगों के लिए पुस्तकालय जीवन की कठिनाइयों में एक आश्रय बनता है। वहां की शांति, किताबों की गंध और पढ़ते हुए समय के रुक जाने का अहसास – यह सब एक
मानसिक सुकून देता है जो शायद किसी और स्थान पर नहीं मिलता। किसी किशोर के लिए जो घर में पढ़ाई के लिए अनुकूल वातावरण नहीं पा सकता, पुस्तकालय एक नई दुनिया खोल देता है। किसी वृद्ध के लिए, जो अकेलापन महसूस करता है, वहां का माहौल जीवंतता का अनुभव कराता है ।
समझ का निवेश
आज जब हम शहरीकरण और डिजिटल विकास के नाम पर जगह-जगह माल और सिनेमाघर बना रहे हैं, तब यह आवश्यक है कि हम पुस्तकालयों को भी उतना ही महत्त्व दें। यह केवल भवनों की बात नहीं है, यह सोच की बात है। सार्वजनिक पुस्तकालयों में निवेश करना एक दीर्घकालिक निवेश है। ऐसा निवेश जो आने वाली पीढ़ियों को सोचने समझने और बेहतर समाज गढ़ने की शक्ति देता है। यह एक ऐसी विरासत है जिसे बनाए रखना, बढ़ाना और प्रसारित करना हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है।
सार्वजनिक पुस्तकालयों को केवल एक परंपरागत संस्था समझने की भूल न की जाए। वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने पहले थे. शायद और भी अधिक । समाज की आत्मा को अगर कभी पढ़ना हो, तो वह उसके पुस्तकालयों की अलमारियों में छिपी पड़ी होती है। वहां मौजूद किताबें मनुष्यता के सबसे सुंदर स्वप्नों, विचारों और अनुभवों की अभिव्यक्ति होती हैं। इसलिए यह जरूरी है कि हम अपने सार्वजनिक पुस्तकालयों को न केवल संरक्षित करें, बल्कि उन्हें जीवंत, समृद्ध और समावेशी बनाएं. क्योंकि जहां पुस्तकालय फलते-फूलते हैं, वहीं समाज भी विचारशील, उदार और प्रगतिगामी बनता है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट
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