यह अनुच्छेद किसी जज को हटाने के लिए जरूरी आधारों और उच्च संसदीय सीमा को तय करता है। संविधान में दर्ज दो आधार ‘सिद्ध कदाचार (Proved misbehaviour) या ‘अक्षमता’ (Incapacity) हैं। यहां, सिद्ध शब्द महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसका मतलब है कि किसी भी संसदीय मतदान से पहले जांच और पुष्टि होना जरूरी है। इसके अलावा, अनुच्छेद 124 (4) लोकसभा और राज्यसभा दोनों में ‘विशेष बहुमत का प्रावधान करता है। इसका मतलब है कि सिर्फ उपस्थित और वोट देने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से काम नहीं चलेगा, बल्कि सदन की कुल सदस्य संख्या का बहुमत होना भी ज़रूरी है।
इस प्रक्रिया के अनुसार, मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने की प्रक्रिया सिर्फ सिद्ध दुर्व्यवहार या अक्षमता के आधार पर ही शुरू की जा सकती है। पद से हटाने के किसी भी प्रस्ताव को अंतिम आदेश के लिए राष्ट्रपति के सामने पेश करने से पहले संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत हासिल करना होगा।
किसी जज पर लगे ‘सिद्ध दुर्व्यवहार या अक्षमता के आरोपों की जांच और उन्हें साबित करने की प्रक्रिया सिर्फ संसद के सदस्यों की मर्जी पर नहीं छोड़ी गई है, बल्कि इसके लिए न्यायाधीश (जांच) अधिनियम, 1968 बनाया गया है। चूंकि सीईसी को भी जज की तरह ही हटाया जाता है, इसलिए यह कानून बाकी पहलुओं को भी नियंत्रित करता है।
संविधान में ‘सिद्ध दुर्व्यवहार की कोई परिभाषा नहीं दी गई है, लेकिन इसमें जानबूझकर किया गया गलत काम, भ्रष्टाचार, नैतिक पतन से जुड़े अपराध या पद का दुरुपयोग शामिल हो सकता है। यह सिर्फ एक गलती नहीं, बल्कि बार-बार की गई लापरवाही या लापरवाही से भरा व्यवहार हो सकता है जो एक पैटर्न को दिखाता हो। इसी तरह ‘अक्षमता का मतलब शारीरिक या मानसिक रूप से इस हालत में होना कि व्यक्ति अपने सरकारी काम को ठीक से न कर पाए। इसे एक मेडिकल कंडीशन के तौर पर देखा जाता है।
कैसे आता है पद से हटाने का प्रस्ताव
सिद्ध दुर्व्यवहार या अक्षमता के आधार पर किसी मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने के लिए, सबसे पहले संसद के किसी भी सदन में मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने का प्रस्ताव पेश किया जाना चाहिए। प्रस्ताव की सूचना पर लोकसभा के कम से कम 100 सदस्यों या राज्यसभा के कम से कम 50 सदस्यों के हस्ताक्षर होने चाहिए।
लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति के पास प्रस्ताव को स्वीकार करने या अस्वीकार करने का विवेकाधिकार होता है। यह साफ करना ज़रूरी है कि प्रस्ताव को स्वीकार करने का फैसला एक प्रक्रियात्मक कदम है और इसका मतलब किसी भी प्रकार का दोष सिद्ध होना नहीं है। अगर प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता है, तो अध्यक्ष या सभापति आरोपों की जांच के लिए एक तीन सदस्यीय समिति गठित करेंगे। यह समिति एक ज्यूडिशियल बॉडी के रूप में काम करती है और मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ दुर्व्यवहार या अक्षमता के आरोपों की औपचारिक जांच करती है। समिति को निश्चित आरोप निर्धारित करने और मुख्य चुनाव आयुक्त को अपना बचाव पेश करने का मौका देने की जरूरत होती है। जांच के बाद, रिपोर्ट अध्यक्ष या सभापति के सामने पेश की जाती है।
जांच रिपोर्ट के आधार पर आगे का फैसला
यह प्रक्रिया तभी आगे बढ़ती है जब जांच समिति मुख्य चुनाव आयुक्त को दुर्व्यवहार या किसी अक्षमता का दोषी पाती है। अगर समिति मुख्य चुनाव आयुक्त को दोषमुक्त कर देती है, तो मामला खत्म हो जाता है और प्रस्ताव खारिज हो जाता है। अगर रिपोर्ट में दोष पाया जाता है, तो समिति की रिपोर्ट के साथ निष्कासन प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में रखा जाता है।
इस प्रस्ताव पर हर सदन में बहस होती है और फिर वोटिंग कराई जाती है। जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 124 (4) में बताया गया है, इसे दोनों सदनों में विशेष बहुमत से पास होना जरूरी है। इसका मतलब है कि इसे सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत के साथ-साथ, मौजूद और वोट देने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत से पास होना चाहिए।
अगर यह प्रस्ताव दोनों सदनों में विशेष बहुमत से पास हो जाता है, तो इसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। इस स्थिति में, राष्ट्रपति संविधान के अनुसार सीईसी को उनके पद से हटाने का आदेश जारी करने के लिए बाध्य होते हैं।
अपनी मर्जी से इस्तीफा दे सकते हैं सीईसी
यह समझना ज़रूरी है कि यह एक औपचारिक प्रक्रिया है। सीईसी अपना पद कार्यकाल पूरा होने पर, रिटायरमेंट की उम्र पूरी होने पर, या स्वेच्छा से इस्तीफ़ा देकर भी छोड़ सकते हैं, लेकिन ये तरीके हटाने की इस सख्त और संवैधानिक प्रक्रिया से अलग हैं।
चुनाव आयोग अधिनियम, 1991 की धारा 4 में मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) के कार्यकाल के बारे में बताया गया है। इसके मुताबिक सीईसी का कार्यकाल 6 साल का होता है, या फिर 65 साल की उम्र पूरी होने तक, जो भी पहले हो। इसके अलावा, सीईसी कभी भी राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखकर बिना कोई कारण बताए खुद अपने पद से इस्तीफा दे सकते हैं।