
विकास की कुंजी है मातृभाषा में शिक्षा -विजय गर्ग
दिनों यूनेस्को के वैश्विक शिक्षण गगन दल (जीईएम) द्वारा यह जानकारी दी गई कि विश्व के 40 प्रतिशत छात्र अपनी भाषा में शिक्षा प्राप्त कर पाने से वंचित हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो इन 40 प्रतिशत छात्रों को उस भाषा में पढ़ने की सुविधा उपलब्ध नहीं है, जिसे वे अपनी सामान्य बातचीत में प्रयुक्त करते हैं। आज जब विश्व में घरेलू भाषा मातृभाषा में शिक्षा के महत्व को लेकर समझ और जागरूकता बढ़ी है, तब भी इतनी बड़ी आबादी का अपनी भाषा में शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा से वंचित होना न केवल चकित करता है, अपितु चिंतनीय भी है।
यह सर्वमान्य तथ्य है कि मातृभाषा में हमारे सीखने की गति तेज होती है, क्योंकि इस दौरान हमें मानसिक अनुवाद की प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ता। इसके विपरीत जब हम मातृभाषा के अतिरिक्त अपनी द्वितीयक या तृतीयक भाषा में कुछ पढ़ते या सुनते हैं, तो पहले उसे अपने मातृभाषा में मन ही मन अनूदित करते हैं, तब उसको ग्रहण कर पाते हैं। यही कारण है कि मातृभाषा में मस्तिष्क की ग्राह्यता सर्वाधिक होती है। मौलिक विचारों का सृजन एवं उनकी उद्भावनाएं मातृभाषा मैं अधिक होती हैं। अतः मातृभाषा में प्राथमिक या उच्च शिक्षा मिलने पर मस्तिष्क को केवल सृजन पर ही ध्यान केंद्रित करना होगा, उसे किसी और प्रक्रिया से नहीं गुजरना होगा।
इस संदर्भ में भारत की स्थिति पर विचार करें तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 से पूर्व का परिदृश्य बहुत उत्साहित करने वाला नजर नहीं आता। यहां समस्या यह रही कि स्वाधीनता के पश्चात भारतीय भाषाओं के विकास और प्रसार पर नीतिगत रूप से समुचित ध्यान नहीं दिया गया। शिक्षा के माध्यम के रूप में इन्हें बढ़ावा देने का कोई सशक्त प्रयास नहीं किया गया। यही कारण है कि संभावनाएं होते हुए भी अवसर के अभाव में अकादमिक विकास की दृष्टि से भारतीय भाषाएं पिछड़ती चली गई। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के बाद का परिदृश्य एक आशा का संचार अवश्य करता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति इस बिंदु पर दृढ़ संकल्पित है कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के बिंदु 4.11 में उल्लिखित है, “छोटे बच्चे अपनी घर की भाषा / मातृभाषा में सार्थक अवधारणाओं को अधिक तेजी से सीखते हैं। जहां तक संभव हो, कम से कम ग्रेड 5 तक, लेकिन अधिक बेहतर होगा कि यह ग्रेड 8 और उससे आगे तक भी हो, शिक्षा का माध्यम, घर की भाषा मातृभाषा / स्थानीय भाषा क्षेत्रीय भाषा होगी।” कहने की आवश्यकता नहीं कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति की मंशा और उद्देश्य तो भारतीय भाषाओं के भावी परिदृश्य को उज्वल बनाने वाले हैं, किंतु इनके राष्ट्रव्यापी क्रियान्वयन की यह अभी सहज नहीं दिखती। दक्षिण की हिंदी-विरोधी राजनीति इसके मार्ग की बाधा बनी हुई है।
व्यर्थ का विरोधः जब भी भारतीय भाषाओं में शिक्षा के लिए कोई प्रयास या सुगबुगाहट भी होती है, तो इसे हिंदी थोपने का प्रयास कहकर दक्षिण से विरोध के स्वर उठने लगते हैं। इन दिनों भी तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति के त्रिभाषा सूत्र के विरुद्ध वक्तव्य दिए गए हैं। वे इसे हिंदी थोपने का प्रयास कहते-कहते यह तक कह गए कि इसके पीछे संस्कृत थोपने की मंशा है। उन्होंने कहा, “अगर आप नहीं थोपेंगे तो हम विरोध नहीं करेंगे, तमिलनाडु में हिंदी के शब्दों पर कालिख नहीं पीतेंगे। आत्म-सम्मान तमिलों की अनूठी विशेषता है और हम किसी को भी इसके साथ खिलवाड़ नहीं करने देंगे।” स्टालिन का ऐसा वक्तव्य कोई नई बात नहीं है। पूर्व में भी वे ऐसे वक्तव्य देते रहे हैं, किंतु तथ्यों को देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि स्टालिन के इस वक्तव्य का कोई तथ्यात्मक आधार नहीं है। यह सत्य है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति में त्रिभाषा सूत्र को लागू करने की बात कही गई है, किंतु इसके द्वारा किसी राज्य पर कोई भाषा थोपने की मंशा तनिक भी नहीं दिखती। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के परिच्छेद 4.13 में उल्लिखित है, “संवैधानिक प्रविधानों, लोग, क्षेत्रों और संघ की आकांक्षाओं और बहुभाषावाद और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने की जरूरत का ध्यान रखते हुए त्रिभाषा फार्मूले को लागू किया जाना जारी रहेगा। हालांकि तीन भाषा के इस फार्मूले में काफी लचीलापन रखा जाएगा और किसी भी राज्य पर कोई भाषा बीपी नहीं जाएगी। बच्चों द्वारा सीखी जाने वाली तीन भाषाओं के विकल्प राज्यों, क्षेत्रों और निश्चित रूप से छात्रों के स्वयं के होंगे, जिनमें से कम से कम तीन में से दी भाषाएं भारतीय भाषाएं हों।” स्पष्ट है कि भारत के बहुभाषावादी परिदृश्य के दृष्टिगत यह त्रिभाषा सूत्र एक उत्कृष्ट व्यवस्था है, जिसके आधार पर देश की बहुभाषिकता को बड़े सुनियोजित ढंग से शिक्ष प्रणाली का हिस्सा बनाया जा सकेगा। देश के छात्र अपनी इच्छा और समझ के अनुसार विविध भाषाओं का अध्ययन कर सकेंगे।
हिंदी का समन्वयकारी स्वरूपः भारत जिस प्रकार विविधताओं में एकता बाला देश है, इसकी भाषा के रूप में हिंदी भी वैसे ही है इस देश की अधिकांश भाषाओं की तरह संस्कृत से जन्मी हिंदी ने भारतीय संस्कृति के समन्वयकारी स्वरूप का अनुकरण करते हुए अपने भीतर देस-विदेशी अनेक भाषाओं- बोलियों के शब्दों का समावेश किया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी भाषा और साहित्य के स्वरूप एवं परंपरा को रेखांकित करते हुए लिखा है, ‘हमारे व्यावहारिक और भावात्मक जीवन से जिस भाषा का संबंध सद से चला आ रहा है, वह पहले चहे जो कुछ कही जाती रही हो, अब हिंदी कही जाती है। यह वही भाषा है जिसकी धारा कभी संस्कृत के रूप में बहती थी, फिर प्राकृत और अपभ्रंश के रूप में और इधर हजार वर्ष से इस वर्तमान रूप में जिसे हिंद कहते हैं, लगातार बहती चली आ रही है। यह वही भाषा है जिसमें सरे उत्तरीय भारत के बीच चंद्र और जगनिक ने वीरता की उमंग उठाई, कबीर, सूर और तुलसी ने भक्ति की धारा बहाई बिहारी, देव और पद्माकर ने श्रृंगार रस की वर्षा की, भारतेंदु प्रतापनारायण मिश्र ने आधुनिक युग का आभास दिया और आज आप व्यापक दृष्टि फैलाकर संपूर्ण मानव जगत में मेल लानेवाली भावनाएं भर रहे हैं।’
हिंदी के प्रभाव में स्थानीय बोलियों- भाषाओं का ह्रास हुआ हो, ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। अपने-अपने क्षेत्रों में उनका स्वतंत्र अस्तित्व कायम है। हिंदी के जरिये बस इन सबका राष्ट्रीयकरण हुआ है, इन्हें एक राष्ट्रीय पहचान मिली है। आज जी संघर्ष हिंदी अंग्रेजी से कर रही है, हिंदी के न होने की स्थिति में वह संघर्ष इन क्षेत्रीय भाषाओं बोलियों को करना पड़ता और इस स्थिति में जैसे अतीत में बिखराव के कारण अंग्रेजों के समक्ष हमारे देसी राजा नष्ट हो गए थे, संभव है उसी तरह अंग्रेजी के सामने ये भाषाएं बोलियां भी नष्ट हो गई होतीं। अतः हिंदी की छत्रछाया में ये भाषाएं बोलियां अंग्रेजी के प्रकोप से सुरक्षित हैं, ये बात इनके समर्थकों को समझनी चाहिए। भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी से खतरा: अंग्रेजी वर्चस्व के चलते भारत समेत दुनिया की अनेक मातृभाषाएँ अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। भारत की स्थिति बेहद चिंताजनक है, क्योंकि यहां कि 196 भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं। भारत के बाद अमेरिका की स्थिति चिंताजनक है, जहाँ की 192 भाषाएं दम तोड़ रही है
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब
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