



आदि शंकराचार्य: सनातन धर्म के पुनर्जागरण के शिल्पकार
अद्वैत वेदांत के प्रवर्तक, जिन्होंने 32 वर्ष के जीवन में भारत को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में पिरोया
भारतीय संस्कृति के इतिहास में आदि शंकराचार्य एक ऐसे दिव्य संत, दार्शनिक और धर्म सुधारक के रूप में उभरे जिन्होंने 8वीं सदी में सनातन धर्म को पुनर्जीवित कर उसकी खोई हुई प्रतिष्ठा को लौटाया। उस युग में देश विभिन्न मतों और संप्रदायों में बंटा था, सामाजिक और धार्मिक असंतुलन चरम पर था, ऐसे में शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को प्रचारित कर न केवल हिन्दू समाज को संगठित किया, बल्कि धर्म के नाम पर फैल रही रूढ़ियों, अंधविश्वासों और पाखंडों के विरुद्ध जनजागरण भी किया।
महज आठ वर्ष की उम्र में संन्यास लेकर उन्होंने चारों दिशाओं में पदयात्राएं कीं और चार प्रमुख मठों की स्थापना कर भारत को एक सांस्कृतिक सूत्र में बांधा। दक्षिण में श्रंगेरी, उत्तर में ज्योतिर्मठ, पश्चिम में द्वारका और पूर्व में पुरी के मठ आज भी उनके संगठनात्मक कौशल की जीवित मिसाल हैं। उन्होंने ब्रह्मसूत्र, उपनिषदों और भगवद्गीता पर सरल टीकाएँ लिखीं, जिससे आम जनमानस तक सनातन धर्म की गूढ़ शिक्षा पहुंच सकी।
शंकराचार्य ने न केवल धर्म की रक्षा की, बल्कि दर्शन के क्षेत्र में भी नए मानक स्थापित किए। उन्होंने सगुण और निर्गुण ब्रह्म की अवधारणा को समझाते हुए जीवात्मा और परमात्मा की एकता को प्रतिपादित किया। उनका जीवन एक आध्यात्मिक क्रांति का प्रतीक है, जिसने भारत को सांस्कृतिक रूप से सशक्त, संगठित और आत्मनिर्भर बनाया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और डॉ. राधाकृष्णन जैसे नेताओं ने भी उनके योगदान को युगों तक प्रासंगिक बताया है। आदि शंकराचार्य न केवल एक महापुरुष थे, बल्कि सनातन धर्म की आत्मा के पुनर्जन्म का प्रतीक भी हैं।