जीवन में में संतुलन और काम की गुणवत्ता-विजय गर्ग
कर्मचारियों के लिए सप्ताह में सत्तर और नब्बे घंटे काम के घंटे और भारत करने की बहस के बीच इस बार के देश के बजट के पहले आर्थिक सर्वेक्षण में यह दावा किया गया कि हफ्ते में साठ घंटे से ज्यादा काम करने से स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। दरअसल, हाल में काम कार्य संस्कृति को लेकर एक बहस शुरू हो चुकी । है। भारत में फैक्टरी कानून 1948 की धारा 51 के तहत किसी भी कर्मचारी सप्ताह में 48 घंटे से अधिक काम कराना अवैध है। इसी कानून की धारा 55 में कहा गया है कि कोई कर्मचारी लगातार पांच घंटे से ज्यादा काम काम नहीं करेगा। यह प्रावधान कर्मचारियों की सुरक्षा और उनके स्वास्थ्य को ध्यान में रख कर बनाया गया है। इसी कानून तहत पांच घंटे काम के बाद एक घंटे के विराम की व्यवस्था भी गई है। इसके बावजूद, भारत में ज्यादातर कर्मचारी सप्ताह में औसतन 48 घंटे काम करते हैं, जो कई विकसित देशों की तुलना में अधिक है। फिर भी, भारत की उत्पादकता अपेक्षाकृत कम है। इसका मुख्य कारण है कि लंबे समय तक काम करने से कर्मचारियों की कार्यक्षमता और रचनात्मकता प्रभावित होती है।
दुनिया के विकसित देशों में काम के घंटे और कार्य-जीवन संतुलन लेकर बेहतर नीतियां अपनाई गई हैं। जर्मनी में औसतन 35-40 घंटे का कार्य सप्ताह है। वहां कर्मचारियों की उत्पादकता विश्व में सबसे अधिक है। स्वीडन में छह घंटे काम का चलन है, जिससे कर्मचारियों की उत्पादकता और संतुष्टि दोनों में वृद्धि हुई है। वहीं, जापान जैसे देशों काम के अधिक दबाव के कारण मृत्यु की घटनाएं इस बात का उदाहरण हैं कि काम के घंटे बढ़ाने का निर्णय कर्मचारियों के लिए कितना घातक हो सकता है। भारत में आलवेज आन’ की कार्य संस्कृति ने कर्मचारियों के व्यक्तिगत जीवन पर गहरा प्रभाव डाला है। वर्तमान समय में डिजिटल तकनीक और ‘वर्चुअल मीटिंग’ ने काम और निजी जीवन को काफी हद तक प्रभावित किया है। ऐसे में नब्बे घंटे काम करने की वकालत न केवल सवालों के घेरे में है, बल्कि यह कर्मचारियों के मानसिक और के लिए भी हानिकारक है।
शारीरिक स्वास्थ्य हमारे देश के अलग-अलग राज्यों में काम के घंटे तय करने के लिए ‘शाप्स एंड एस्टेब्लिशमेंट्स एक्ट’ भी बनाए गए हैं। यह कानून कार्यालयों, दुकानों और सेवा इकाइयों में काम करने वालों पर लागू होता है। इसके तहत काम के नौ घंटे तय किए गए हैं। हालांकि, यहां भी हर हफ्ते 48 घंटे से अधिक काम कराने की मनाही है। संयुक्त राष्ट्र की वर्ष 2021 की रपट की मानें, तो काम से काम से जुड़ी चोटों और बीमारियों के कारण दुनिया भर में हर साल लगभग 20 120 लाख लोग अपनी जान गंवा बैठते हैं।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि काम और जीवन के बीच संतुलन बनाए रखना बेहद जरूरी है। लंबे समय तक काम के दौरान बीच में थोड़ा विराम लेना चाहिए। इससे तनाव कम होता है। साथ ही प्रतिदिन व्यायाम को भी अपनी दिनचर्या में शामिल करना चाहिए। वहीं संतुलित और पोषक आहार भी जरूरी है। लंबे समय तक काम करने के क्रम मधुमेह और सर्वाइकल संबंधी बीमारियां और लगातार बैठे रहने से रक्त संचार कम होने की आशंका रहती है। इसके साथ ही, देर तक काम करने से आंखों की रोशनी पर असर पड़ने का खतरा भी बढ़ जाता है। मनुष्य मशीन नहीं है। पशु को भी आराम की जरूरत होती है, तो फिर मनुष्य को क्यों नहीं मिलना चाहिए। बात अगर मशीनों की करें तो इसके रख- रखाव में और अधिक खर्च आता है। उन्हें भी बीच-बीच में बंद कर दिया जाता है। समय-समय पर उसकी ‘सर्विसिंग’ की जाती है। कंप्यूटर हो या एसी, लगातार चलते रहने से ये भी बंद हो जाते हैं। फिर हमारा शरीर और दिमाग कैसे लगातार काम करते रह सकते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर चिकित्सकों तक का कहना है कि सप्ताह में पैंतीस से चालीस घंटे से ज्यादा काम करने से न केवल सेहत खराब होती है, बल्कि कर्मचारियों की जान तक जा सकती है। उनकी क्षमता और उत्पादकता दोनों पर बुरा असर पड़ता है। इस विमर्श के 5. बीच आनंद महिंद्रा का वक्तव्य भी चर्चा में रहा। उनका मानना महत्त्वपूर्ण काम घंटे से कहीं ज्यादा ‘काम की गुणवत्ता और परिणाम अधिक हैं। उन्होंने यह भी कहा कि काम का उद्देश्य केवल आर्थिक विकास नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना भी है कि कर्मचारी संतुलित और खुशहाल जीवन जी सकें। इसके अलावा, यह भी देखा गया है कि जिन संस्थानों ने अपने कर्मचारियों को काम के लचीले घंटे और पर्याप्त आराम का अवसर दिया, वहां उनका प्रदर्शन बेहतर रहा है। काम के घंटे की इस बहस ने वेतन असमानता का मुद्दा भी उजागर किया है। ‘आटोनामी’ की एक रपट के मुताबिक, कृत्रिम मेधा (एआइ) आने के बाद ब्रिटेन में 88 फीसद कंपनियां अपने कर्मचारियों के काम के घंटे दस फीसद तक कम कर रही हैं। यानी दुनिया में काम के घंटे कम करने की दिशा में पहल की दिशा । रही है। जबकि हमारे देश में जहां काम के घंटे पहले से ही ज्यादा हैं, उन्हें बढ़ाने की वकालत की रही है। देश में बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई के चलते मजदूर वर्ग की मजबूरी का फायदा उठाने की कोशिश की जा रही है।
हमारे संविधान की प्रस्तावना में हर व्यक्ति की गरिमा की बात कही गई है। मौलिक अधिकार और नीति-निर्देशक तत्वों में इसकी स्पष्ट व्याख्या की गई है। अनुच्छेद 42 जहां काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं के लिए राज्य की जवाबदेही तय करता है वहीं अनुच्छेद 43 मजदूरों को काम, बेहतर जीवन स्तर के साथ ही अवकाश की संपूर्ण सुविधा सुनिश्चित करने और सामाजिक तथा सांस्कृतिक प्राप्त करने के लिए राज्य की जिम्मेदारी मानता है। ऐसे में राज्य सरकारों का यह दायित्व बनता है कि वह अपने कर्मचारियों और मजदूर वर्ग का पूरा ध्यान रखें। उनका भी यह दायित्व बनता है कि एआइ के दौर में जब दुनिया बड़े पैमाने पर बेरोजगारी के खतरे का सामना कर रही है, ऐसे में काम के घंटे बढ़ाने से बेरोजगारी और भी बढ़ेगी। आज के समय में, जब तकनीकी प्रगति ने काम को आसान बना दिया , तब हमें ‘काम के घंटे’ की ‘ की बजाय ‘काम के परिणामों’ पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यह समझना होगा कि लंबे समय तक काम करने से उत्पादकता नहीं बढ़ती, बल्कि काम की गुणवत्ता और कर्मचारियों की संतुष्टि पर ध्यान देना भी जरूरी है। अब समय आ गया है हम अपनी कार्य संस्कृति पर पुनर्विचार करें। इसे संतुलित बनाएं। काम का उद्देश्य केवल परिणाम देना नहीं है, बल्कि कर्मचारियों को सार्थक और खुशहाल जीवन जीने का अवसर प्रदान करना भी है। एक स्वस्थ और संतुलित कार्य संस्कृति न केवल कर्मचारियों की भलाई के लिए, बल्कि देश और समाज की प्रगति के लिए भी अनिवार्य है। इसलिए जरूरी है कि पहले काम के तरीके और गुणवत्ता को सुधारा जाए। तभी हम एक ऐसा समाज बना सकते हैं, जहां कर्मचारी और संस्थान दोनों अपनी पूरी क्षमता का उपयोग कर सकेंगे और खुशहाल तथा संतुलित जीवन जी सकेंगे।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कोर चंद मलोट पंजाब
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