अदम्य साहस की प्रतिमूर्ति -जीजाबाई/Breaking news express
युद्धक्षेत्र के शिविर में किसी की प्रतीक्षा में रत तेजस्वी युवक इधर से उधर चहलकदमी कर रहा था । अचानक अपने सेनानायक को आते देख प्रसन्न होकर उसकी ओर बढ़ता है कि उसकी दृष्टि उसके पीछे लाई जा रही पालकी पर पड़ती है । उनकी दृष्टि में प्रश्न और आश्चर्य दोनों सम्मिलित थे । सेनानायक आकर अभिवादन करता है और विजय का समाचार सुनाकर युद्ध में जीती गई सम्पत्ति समर्पित करता है ।
अचानक धीर-गंभीर स्वर में उससे पूछा जाता है कि’ ये तो ठीक है ,बड़ी प्रसन्नता की बात है किंतु इस पालकी में क्या है ?’
सेनापति उत्साहित होकर बताता है कि -‘राजे! ये पराजित बहलोल खां की बेगम अतीव सुंदरी गौहर बानू है ,ये आपका विजय उपहार है । ‘ हतप्रभ से राजे आग्नेय दृष्टि से सेनानायक को देखते हुए पालकी के निकट जाकर उस सिंहों के मध्य फंसी भयभीत हरिणी सदृश नारी को बाहर आने को कहते है । उनके बाहर आते ही वे उन्हें देखते है और सम्मान पूर्वक कहते है कि ,’आप सचमुच अनिंद्य सुंदरी है , आपको देखकर मेरा मन कहता है कि यदि मेरी मां भी इतनी सुंदर होती तो कदाचित मैं भी थोड़ा सौन्दर्य पा जाता ।’ एक युद्ध में हस्तगत स्त्री को अपने प्रति मातृवत संबोधन सुनकर जो अनुभव हुआ होगा उसको अभिव्यक्त करना संभव नहीं है । सेनानायक जो सर झुकाए खड़ा था ,उससे राजे ने कहा कि ,’ भूलों मत ,हम उस संस्कृति को मानने वाले है ,जहां स्त्री देवी का प्रतीक है , प्रत्येक पराई स्त्री भले ही वो शत्रु के परिवार की हो ,हमारी मां, बहन और पुत्री के समान है । आज के बाद ऐसी धृष्टता नहीं होनी चाहिए। ‘
ये चारित्रिक दृढ़ता और नारी के प्रति अपूर्व सम्मान का भाव रखने वाले शिवाजी राजे के जीवन की सत्य घटना है । गौहर बानू को तत्काल उनके पति के पास पूरे आदर से भिजवाने वाले शिवाजी को ये अद्भुत जीवनमूल्य देने का श्रेय उनकी माता जीजाबाई को है । जीजाबाई ने एक पुत्र का नहीं वरन वीर, साहसी ,धैर्यवान , चरित्रवान , संवेदनशील, नेतृत्वकर्ता , स्वराज्य के लिए आजीवन संघर्षरत योद्धा का पालन-पोषण किया था । उन्होंने उसे दूध के साथ स्वदेशप्रेम और चारित्रिक मूल्य भी पिलाए थे । ये भारत की नारी की ही शक्ति है कि वह विपरीत परिस्थितियों मिल भी टूटकर बिखरती नहीं बल्कि संघर्ष ज्वाला में तपकर कुंदन की तरह बन जाती है और अपनी संतति को भी ऐसी ही शिक्षा देती है । यही नहीं मां की इच्छा और प्रण को पूर्ण करने के लिए कोंढ़ाना का दुर्ग शिवाजी अपने मित्र और सेनानायक तानाजी मालसुरे के अदम्य साहस और बलिदान के बाद विजित किया था । इतिहास में ऐसा उदाहरण भी दुर्लभ ही है कि एक युद्ध माँ के संकल्प को पूरा करने के लिए लड़ा भी गया और जीता भी गया । यही नहीं शिवाजी को छत्रपति शिवाजी बनाने में जो प्रेरणा और ऊर्जा थी वो माता जीजाबाई की ही थी । जिसप्रकार अग्नि में तपकर स्वर्ण कुंदन बनता है उसीप्रकार परिस्थितियों की आग और स्वदेश , सुराज , हिन्दूपदपादशाही स्थापित करने के दुर्घर्ष संकल्प से जीजाबाई ने शिवाजी को गढ़ा था । शताब्दियों से जो छत्रपति की कीर्तिपताका लहरा रही है उसका मूल माता जीजाबाई ही थी । माता को हमारी संस्कृति सर्वोच्च स्थान देती है ।
‘प्रशस्ता धार्मिकी विदुषी माता विद्यते यस्य समा तृमान ।’
भावार्थ यह कि वह माता बहुत महान है जो अपने बच्चे को अपने गर्भधान से लेकर उसकी शिक्षा पूर्ण होने तक उसके उचित आचरण का पूर्ण ध्यान देती है। यह श्लोक जीजाबाई पर खरा उतरता है । ऐसी भारत की महान नारी राजमाता जीजाबाई का जन्म 12 जनवरी 1598 को महाराष्ट्र के वर्तमान बुलढाणा जिले के सिंदखेड राजा में म्हालासाबाई जाधव और लखुजी जाधव के घर हुआ था।जीजाबाई को प्यार से ‘जिउ’ कहा जाता था। लखुजीराजे जाधव एक मराठा कुलीन थे जिन्होंने यादवों से वंश से होने दावा था उनका वंश देवगिरि के यादव राजवंश से जुड़ा था। इसप्रकार जीजाबाई को राजकुमारी जैसा दर्जा प्राप्त था । हालाँकि जैसे-जैसे उसके परिवार ने सुल्तान की सेना में पद ग्रहण किया, उसका असंतोष बढ़ता गया। उन्होंने आक्रमणकारियों द्वारा हिंदुओं पर किए गए दुर्व्यवहार और अपमान को देखा। अन्याय के इस शुरुआती प्रदर्शन ने जीजाबाई के मन में उन लोगों के प्रति तीव्र घृणा भर दी जो उनके लोगों को अपने अधीन करना चाहते थे। इसने उनके भविष्य के संघर्षों की नींव रखी। सुल्तान की सेना के एक प्रसिद्ध सेनापति शाहजीराजे भोसले से जीजाबाई का विवाह नई चुनौतियाँ लेकर आया। मराठा सरदारों के बीच संघर्ष के बीच, जीजाबाई और शाहजी ने विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध स्वराज्य की संकल्पना से एक एकीकृत मोर्चे की कल्पना की। हिंदू साम्राज्य के लिए उनकी महान आकांक्षाओं को अहंकार से प्रेरित मराठा सरदारों के विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन अपने उद्देश्य के प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता कभी नहीं डिगी। आक्रमणकारियों से एकता और मुक्ति की शक्ति में जीजाबाई का उत्कट विश्वास सबसे अंधकारमय समय में भी स्थिर रहा। समय अपनी गति से आगे बढ़ा और एक नया संघर्ष सामने आ खड़ा हुआ। इस महत्वपूर्ण अवधि के दौरान जब निज़ाम की सेना द्वारा शाहजीराजे का पीछा किया गया था, उस समय गर्भवती जीजाबाई ने शिवनेरी किले की सुरक्षा में शरण ली थी। अपने पिता के साथ उसका पुनर्मिलन एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। मराठा एकता और आक्रमणकारियों से मुक्ति के लिए जीजाबाई की भावुक अपील ने उनके भीतर एक राग छेड़ दिया, जिससे एक सुलह हुई जिससे जाधव और भोसले के बीच शत्रुता हमेशा के लिए समाप्त हो गई। इस मेल-मिलाप ने जीजाबाई की विभाजन को पाटने और सामूहिक उद्देश्य की भावना को बढ़ावा देने की क्षमता को प्रदर्शित किया। शिवाजी महाराज जयंती पर माता जीजाबाई से रिश्ता हर किसी को गौरवान्वित करता है |
जीजाबाई की अटूट भक्ति उनकी रानी और माँ की भूमिका से भी आगे तक फैली हुई थी। पुणे में, उन्होंने सक्रिय रूप से समुदाय में योगदान दिया, मंदिरों की स्थापना की और धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लिया। उनकी गहरी आध्यात्मिकता मात्र अनुष्ठानों से परे थी, क्योंकि उन्होंने खुद को भजन-कीर्तन में डुबो दिया, संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन किया और धर्म द्वारा निर्देशित जीवन अपनाया। जीजाबाई का गहरा विश्वास कि सफलता ईश्वर की कृपा से प्राप्त होती है, उनकी ताकत और लचीलेपन का आधार बनी । उन्होंने पुणे में अपने पति की जागीर का प्रबंधन किया और उसका विकास किया। उन्होंने कसबा गणपति मंदिर की स्थापना की। उन्होंने केवरेश्वर मंदिर और तम्बाड़ी जोगेश्वरी मंदिर का भी जीर्णोद्धार कराया। एक आदर्श हिंदू महिला के रूप में जीजाबाई की विरासत पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी। एक बेटी, बहन, पत्नी, मां और दादी के रूप में उनकी उल्लेखनीय यात्रा हिंदू धर्मग्रंथों में बताए गए गुणों का उदाहरण है । अपने परिवार द्वारा प्यार और सम्मान पाने के कारण, उन्होंने शक्ति और करुणा का प्रतीक बनकर समर्थन के स्तंभ के रूप में काम किया। जीजाबाई का जीवन अटूट विश्वास, वीरता और एकता की परिवर्तनकारी क्षमता की शक्ति के प्रमाण के रूप में खड़ा है। जीजाबाई का जीवन अदम्य भावना और अटूट भक्ति का एक स्थायी प्रमाण है जो इतिहास को आकार दे सकता है। अपने राष्ट्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता, अटूट विश्वास और धर्म का निरंतर अनुसरण हमें प्रेरित और मार्गदर्शन करता रहता है। जीजाबाई की कहानी हमें लचीलेपन, एकता की शक्ति और इतिहास के पाठ्यक्रम को आकार देने में एक व्यक्ति के गहरे प्रभाव की याद दिलाती है। वीरता और भक्ति की प्रतीक के रूप में उनकी विरासत आने वाली पीढ़ियों के लिए एक शाश्वत प्रेरणा के रूप में खड़ी है।
जीजाबाई की चारित्रिक दृढ़ता, धर्म परायणता, वीरता , दूरदर्शिता उनके पुत्र शिवाजी में स्थानांतरित भी हुई और द्विगुणित भी ।
शाहजी राजे भोसले और जीजाबाई के दूसरे बेटे, शिवाजी का जन्म फरवरी 1630 में हुआ था। उनके बड़े बेटे संभाजी अपने पिता के साथ रहते थे और कम उम्र में एक युद्ध में उनकी मृत्यु हो गई थी। अपने बड़े भाई की याद में शिवाजी राजे ने अपने बड़े बेटे का नाम संभाजी राजे रखा। जब शिवाजी 14 वर्ष के थे, तब शाहजी राजे ने उन्हें पुणे की जागीर सौंप दी । जागीर के प्रबंधन की जिम्मेदारी जीजाबाई पर आ गई। जीजाबाई और शिवाजी राजे कुशल अधिकारियों के साथ पुणे पहुंचे। निज़ामशाह , आदिलशाह और मुग़लों के लगातार स्वार्थ के कारण पुणे की हालत बहुत ख़राब थी। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में उन्होंने पुणे शहर का पुनर्विकास किया। उसने स्थानीय लोगों को आश्रय देते हुए, सुनहरे हल से खेत की जुताई की। वह शिवाजी राजे की शिक्षा के लिए उत्तरदायी थीं। जीजाबाई ने शिवाजी राजे को रामायण , महाभारत की कहानियाँ सुनाईं , जिनके साथ जीवन मूल्य भी उनके चरित्र में समाहित हो सके । शिवाजी को संकट के समय धैर्य धारण करने का सबक भी अपनी माता से ही मिला था जिसके कारण उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी संयम बनाए रखा । इससे ना केवल कपटी अफजल खां का वध कर सके वरन औरंगजेब की कैद से भी चतुराई से बाहर निकल सके । इसी मां के संस्कारों के फलस्वरूप उन्होंने अफजल खा का अंतिम संस्कार मुस्लिम पद्दति से करवाया । यही नहीं
छत्रपति शिवाजी ने अपनी इसी शिक्षा को सार्थक करते हुए अपनी माता को भी सती होने से रोका। जब जीजाबाई के पति शाहजी राजे की मृत्यु हो गई, तो उन्होंने सती प्रथा के अनुसार खुद को बलिदान करने का निर्णय किया था किन्तु शिवाजी महाराज ने इसका विरोध किया और उन्हें सती होने से रोका।ऐसी विलक्षण माता ही ऐसा प्रतिभावान, साहसी , चारित्रिक रुप से आदर्श, स्वराज्य के लिए संकल्पित पुत्र को देश के लिए समर्पित कर सकती है । भारत की महान नारियों में जीजाबाई सदैव स्तुत्य, आदरणीय, वंदनीय और अनुकरणीय रहेंगी ।