ANKUR SINGH (BREAKING NEWS EXPRESS )
“कोई दुआ असर नहीं करती,
जब तक वो हम पर नजर नहीं करती,
हम उसकी खबर रखे या न रखे,
वो कभी हमें बेखबर नहीं करती।”
कुछ ऐसा ही संबंध है हमारा और हमारी कुल देवी दक्षिणमुखी मां काली का, नवरात्रि का पावन पर्व आने वाला है। गांव की तपोभूमि पर स्थापित माँ काली का मंदिर अपने दर्शनाभिलाषी भक्तों से शोभायमान रहता है। वैसे तो वर्ष भर यहाँ भक्तों का मेला लगा रहता है किंतु नवरात्रि पर्व और श्रावण मास कुछ अलग ही छटा बिखेरता है इस दरबार में।
बनारस (उ. प्र.) से 30 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में जौनपुर जिला के आदि-गोमती के पावन तट से 2 किलोमीटर की दूरी पर हरदासीपुर (चंदवक, जौनपुर) में स्थित ये मंदिर लगभग 8 शताब्दियों से इस क्षेत्र(डोभी) की शोभा को गुंजायमान कर हमें सौभाग्य देता है। क्षेत्र की कुल देवी के रूप में स्थापित यह मंदिर अलौकिक मान्यताओं किम्बदन्तियों की कथाओं और भक्तों की मनोकामनाओं का एक स्वरूप है साथ ही साथ माँ न जाने कितने वैवाहिक दंपतियों के कुशल जीवन की साक्षी हैं।
एक नज़र इतिहास पर-:
कुछ किम्बदन्तियों के अनुसार काशी क्षेत्र पर तकरीबन 150 ई.पू. भर(राजभर) समुदाय का राज्य था तत्कालीन समय में इसे विंध्य क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। इस वंश के राजाओं ने बावड़ियों एवम मंदिरों के निर्माण पर विशेष बल दिया; किन्तु मगध साम्राज्य के उदय के पश्चात इसे मगध क्षेत्र के अधीन कर लिया जाता है जो कि हर्षवर्धन के शासन काल में पुनः इनको राज करने का अधिकार प्राप्त होता है और इनका शासन निरंतर चलता रहा। किन्तु लगभग वर्ष 1000 ईसवी में काशीक्षेत्र से सम्बद्ध क्षेत्र(वर्तमान में डोभी, जिला-जौनपुर) में रघुवंशी क्षत्रियों का आगमन हुआ। बनारस के राजा ने अपनी पुत्री का विवाह तत्कालीन अयोध्या के राजा नयनदेव से करने का फैसला किया, जो कि अयोध्या का राजपाठ छोड़ सन्यास धारण कर माँ गंगा के चरणों मे आये थे और काशी के नियार क्षेत्र में कुटी स्थापित कर तपस्या करने लगें थे। विवाह के उपरांत भेंट स्वरूप काशीराज ने काशी के कुछ क्षेत्र (वर्तमान में डोभी व कटेहर) की भूमि प्रदान की जिसमे रघुवंशी क्षत्रिय आबाद हुए।
उसके बाद वत्यगोत्री, दुर्गवंश, और व्यास क्षत्रिय इस जनपद में आये। तत्कालीन समय मे भी भरों और सोइरसों का प्रभुत्व इस क्षेत्र पर था। क्षत्रियों की आबादी बढ़ने के साथ-साथ भरों और क्षत्रियों में संघर्ष बढ़ने लगा।
लगभग वर्ष 1090 के दौरान कन्नौज से गहरवार क्षत्रियों के आगमन के पश्चात ये संघर्ष युद्ध मे तब्दील होने लगा और फलस्वरूप गहरवारों ने विंध्याचल पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर अपने धार्मिक रुचि के अनुरूप मंदिरों के निर्माण एवं विकास पर बल देना आरम्भ किया।
तकरीबन 1100 ईसवी के उत्तरार्द्ध में गहरवारों की कृपादृष्टि मंनदेव (वर्तमान में जफराबाद) और योनपुर (वर्तमान में जौनपुर) पर पड़ा और यहाँ भी समृद्धि के साथ धार्मिक क्रियाकलापों का विकास आरम्भ हुआ। डोभी में पहले से रह रहे रघुवंशी एवम अन्य क्षत्रियों के साथ गहरवार क्षत्रियों के संबंध स्थापित हुए, बढ़ती मित्रता और रिश्तेदारी के बीज ने क्षेत्र में विकास के वृक्ष को जन्म दिया।
बाह्य आक्रान्ताओं के भय से गहरवारों का मुख्य ध्यान मंदिर और धार्मिक कार्यों के विकास में था जिसके फलस्वरूप रघुवंशी क्षत्रियों की कुल देवी माँ जगदम्बा की एकरूप माँ काली के मंदिर निर्माण की हवा क्षेत्र में फैलने लगी परिणाम स्वरूप गहरवारों के राजा विजय चंद की अगुवानी में मंदिर का निर्माण लगभग 1200 ईसवी में पूर्ण हुआ।
उधर कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा मनदेव यानी वर्तमान का जफराबाद पर आक्रमण कर धार्मिक स्थलों को नष्ट करने का दुष्कृत्य आरम्भ हो चुका था। मुस्लिम आक्रान्ताओं से परेशान होकर गहरवारों ने अपनी राजधानी विजयपुर स्थान्तरित कर ली, फलस्वरूप विंध्य क्षेत्र काशीनरेश के अधीन हो गया। मुस्लिम आक्रान्ताओं की नज़र मंदिर पर थी किन्तु रघुवंशियों का राजा बनारस से संबंध होने के नाते मंदिर को सुरक्षित रखा गया; किन्तु कुछ शताब्दी पश्चात मुस्लिम आक्रान्ता शाहजहाँ द्वारा लगभग 1632 ईसवी में काशी विश्वनाथ मंदिर को पुनः ढहाने के लिए प्रस्ताव पारित किया गया किन्तु सेना में हिंदुओं द्वारा प्रबल प्रतिरोध के कारण मंदिर को नष्ट नही किया जा सका; किन्तु काशी क्षेत्र के 63 प्रमुख मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया और मंदिर के पुनः निर्माण पर रोक लगा दी गयी जिसमें से एक मंदिर यह भी था।
वर्षों से चली आ रही परम्परा के अनुसार माता के वार्षिक पूजन का समय निकट आ रहा था ऐसे में क्षेत्र वासियों के मन मे भय के साथ रूढ़िवादी प्रश्नों का उठना स्वाभाविक था। पूजा के समय को निकट देखते हुए लोगो ने माँ की प्रतिमा (मिट्टी से निर्मित आकृति) को मंदिर के सामने स्थित बरगद के विशालकाय वृक्ष के नीचे स्थापित कर पूजा करने का निर्णय किया। इसके पश्चात लगभग 250 वर्षों तक माता की मूर्ति वृक्ष के नीचे विराजमान रही।
लगभग 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में तत्कालीन पुजारी द्वारा पूजा करते समय ताम्रपत्र छूट कर माता के हाथ पर गिरा और मूर्ति का हाथ टूट गया। उसी समय स्थानीय जमींदार और कारोबारी अमरदेव सिंह तीर्थयात्रा पर निकले थे। इधर मूर्ति का हाथ टूटा उधर तीर्थ यात्रा में गए अमरदेव सिंह के हाथ मे दर्द शुरू हो गया। दर्द असहनीय होने के कारण तीर्थयात्रा छोड़ उन्हें रास्ते से घर वापस आना पड़ा। घर वापस आये तो सुना कि माता की प्रतिमा टूट गयी है और उसी समय उनके हाथ का दर्द समाप्त हो गया। स्व. सिंह ने कलकत्ता से माँ काली की नई मूर्ति लाकर एक शिल्पकार पुत्र की भांति माँ के मंदिर निर्माण का कार्य आरम्भ करवाया और शताब्दियों बाद एक बार पुनः दक्षिणमुखी मां काली की स्थापना का कार्य उनके हाथों सम्पन्न हुआ।
तकरीबन 100 वर्षों पश्चात वर्ष 2006 में अमरदेव सिंह के सुपौत्र शम्भू नारायण सिंह द्वारा मंदिर की जर्जर अवस्था को देखते हुए एक भव्य मंदिर निर्माण का खाका तैयार किया गया और निर्माण कार्य पुनः आरम्भ हुआ जिसमें विशेष सहयोग उनके भांजे कारोबारी जितेंद्र सिंह (लखनऊ) और गाँव के निवासी कारोबारी शांति देवी पत्नी शिवपूजन सिंह(सिंगापुर), स्व. उदयभान सिंह, रामप्यारे सिंह, का रहा। साथ ही साथ क्षेत्र एवं गांव के अन्य लोगो जिनमें राजेन्द्र प्रजापति, स्व. सूबेदार सिंह, स्व. हरिनाम,स्व. सियाराम प्रजापति, स्व. रामधनी प्रजापति (सिंगापुर), स्व. सुरेंद्र सिंह, स्व. रविंद्र सिंह, लालबली प्रजापति, स्व. रामराज पांडेय, सुनील पांडेय, साहित्यकार अंकुर सिंह, निखिल सिंह रघुवंशी, आदित्य पांडेय का सामाजिक और शारीरिक सहयोग भी सराहनीय रहा।
वर्तमान में मंदिर के प्रमुख संरक्षक(सक्रिय सदस्य) के रूप में वर्तमान पुजारी, श्री राम जानकी एवं दक्षिणेश्वर महाकाली जी सेवा ट्रस्ट, हरदासीपुर कीर्तन मण्डली सहित समस्त ग्राम एवं क्षेत्रवासी सम्मिलित हैं।
हरदासीपुर दक्षिणेश्वरी महाकाली मंदिर के आस-पास अन्य ऐतिहासिक एवं धार्मिक स्थान –
काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग – धार्मिक एवं प्राचीन शहर काशी (वाराणसी) में स्थित भगवान शंकर के 12 ज्योतिर्लिंग में से काशी विश्वनाथ मंदिर और हरदासीपुर दक्षिणेश्वरी महाकाली मंदिर की सड़क मार्ग दूरी (राष्ट्रीय राष्ट्रीय राजमार्ग 236 से) लगभग 36 किलोमीटर है। काशी के बारे में कहा जाता है कि ये भगवान भोलेनाथ के त्रिशूल पर स्थित है और यहां मरने वालों को सीधा मोक्ष की प्राप्ति होती है। काशी विश्वनाथ मंदिर से लगभग 10 किलोमीटर की परिधि में काल भैरव, संकटमोचन, दुर्गाकुंड, मानस मंदिर जैसे प्रसिद्ध और पूजनीय स्थल है।
शीतला माता चौकिया धाम- कालांतर में भरो और अहीरों के आधिपत्य जिला जौनपुर मुख्यालय से लगभग 5 किलोमीटर और हरदासीपुर दक्षिणेश्वरी महाकाली मंदिर से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित शीतला माता चौकिया मंदिर का पूर्वांचल में काफी महत्वपूर्ण स्थान हैं। मान्यता है कि सर्वप्रथम चबूतरे अर्थात चौकी बनाकर देवी की स्थापना की गयी इसलिए इन्हे चौकिया देवी कहा गया जो कि शीतला माता की प्रतीक है। डोभी क्षेत्र ही नहीं अपितु पूर्वांचल क्षेत्र के अधिकांश लोग चौकिया धाम में वार्षिक पूजा एवं मुंडन जैसे धार्मिक कार्यों को करते हैं। पूर्णिमा को माता रानी का विशेष श्रृंगार किया जाता है तथा नवरात्री में भक्तों का जमावड़ा लगा होता है। मंदिर से लगभग 15 किलोमीटर कि दूरी पर, धर्मापुर शिवमंदिर, शाही किला, शाही पुल, जामा मस्जिद, अटाला मस्जिद, सहित अन्य कुछ पुरतत्व धरोहर है।
पल्हना देवी मंदिर (मां पाल्हमेश्वरी धाम)- यह स्थान महाशक्ति पीठों में से एक हैं धार्मिक मान्यतों के अनुसार यहाँ पर माँ सती के घुटने से लेकर पैर तक का भाग गिरा जो आज पाल्हमेश्वरी देवी के नाम से पूजित है। यह स्थान आजमगढ़ जिला मुख्यालय से 40 किलोमीटर (लालगंज तहसील में) एवं हरदासीपुर दक्षिणेश्वरी महाकाली मंदिर से लगभग 36 किलोमीटर रोडमार्ग की दूरी पर स्थित है। यहां भक्तगण हमेशा माता के दर्शन पूजन हेतु आते है।
मार्केण्डे महादेव- वाराणसी से 30 और हरदासीपुर दक्षिणेश्वरी माँ काली मंदिर से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर वाराणसी-गाज़ीपुर राजमार्ग के कैथी के पास गंगा नदी के तट पर मार्केण्डे महादेव नाम से भगवान भोलेनाथ का काफी प्रसिद्द धाम है, जहाँ शिवरात्रि और सावन माह में शिवभक्तों का अत्यधिक संख्या में जमावड़ा लगता है। पुराणों के अनुसार, जब ज्योतिषियों ने मार्कण्डेय ऋषि की आयु 14 वर्ष तक ही बताई तो उनके माता-पिता काफी चिंतित रहने लगे और संतों की सलाह पर मार्कण्डेय ऋषि के पिता ने गंगा-गोमती संगम पर बालू से शिव विग्रह बनाकर उसकी पूजा करने लगे एवं उनके साथ उनके पुत्र मार्कण्डेय भी तपस्या में लीन हो गए। 14 वर्षों बाद जब मार्कण्डेय के प्राण यमराज हरने के लिए ठीक उसी समय भगवान शिव प्रकट हो गए और यमराज से कहा कि मेरा भक्त मार्कण्डेय अमर रहेगा और इसकी पूजा की जाएगी। तभी से यहां भगवान शिव के साथ-साथ मार्कण्डेय की पूजा होने लगी और ये धाम मार्कण्डेय महादेव नाम से प्रसिद्ध हो गया।
हरिहरपुर संत कीनाराम की कर्मभूमि – औघड़ बाबा संत कीनाराम के चार मठों में से एक मठ हरदासीपुर दक्षिणेश्वरी महाकाली मंदिर से 3 से 4 किलोमीटर की दूरी पर आदिगंगा माँ गोमती के पवन तट पर हरिहरपुर (डोभी ब्लाक, जौनपुर) में स्थित है। यही पर बाबा संत कीनाराम ने अपने जीवन काल के अनेकों वर्ष रहकर तप किया।
संत कीनाराम तपोस्थली, हरिहरपुर के समीप गोमती नदी पर बने पुल को पार करते ही डोभी क्षेत्र के कुल देवता डीह बाबा, बरैछा धाम के दर्शन पूजन का भी सौभाग्य प्राप्त किया जा सकता है। गोरखपुर के वर्तमान सांसद और भोजपुरी सिनेमा कलाकार रवि किशन का पैतृक गाँव इसी क्षेत्र में हैं।
बाबा जगा ब्रह्म धाम, हरदासीपुर – हरदासीपुर दक्षिणेश्वरी महाकाली मंदिर से लगभग 700 मीटर की दूरी पर स्थित सैकड़ों साल पुराना यह मंदिर काफी सिद्ध धाम है। सप्ताह में प्रत्येक सोमवार और शुक्रवार को यहां भक्तों का विशेष जमावड़ा होता है और भक्तों द्वारा दर्शन, पूजन एवं हवन किया जाता है। प्रचलित कथाओं के अनुसार यहाँ महिलाओं द्वारा सच्चे मन से मांगी गई मनोकामना जल्दी पूर्ण होती है। आस पास के लोग बाबा को साक्षी मान अनिष्ट होने की संभावना से झूठी गवाही देने से काफी डरते है और किसी आपदा या विपत्ति में सम्पूर्ण गाँव एवं क्षेत्र के कल्याण हेतु समय समय पर विशेष पूजा पाठ करते रहते है।
जगा ब्रह्म धाम के परिसर में राम जानकी मंदिर सहित हनुमान जी और भगवान शिव का भी मंदिर है। मंदिर से सटे पोखरे और उसके आस-पास के सांध्यकालीन दृश्य और मनोरम वातावरण काफी लोकलुभावन होता है।
शहीद स्मारक सेनापुर – डोभी ब्लाक, जौनपुर जिले के सेनापुर गांव में अमर शहीदों की याद में बना शहीद स्तम्भ स्वाधीनता संग्राम आंदोलन में डोभी के वीरों की वीर गाथा का गुणगान करता प्रतीक होता हैं। यह स्थान हरदासीपुर दक्षिणेश्वरी महाकाली मंदिर से लगभग 11 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सं. 1857 के पहले स्वतंत्रता आंदोलन में एक ही दिन में एक पेड़ के नीचे एक ही समय में 23 रणबांकुरों को फांसी दे दिया गया था। आज भी शहीद स्तम्भ पर 15 शहीदों के नाम अंकित है और आठ शहीदों की पहचान स्पष्ट न होने के कारण उन्हें बिसरा दिया गया।।
समय-समय पर स्थानीय लोगों द्वारा देश और प्रदेश के जनप्रतिनिधियों व अधिकारियों को ध्यान दिलाया जाता है कि उस समय के दस्तावेजों के आधार पर उन 8 वीरों के पहचान की पुष्टि किया जाये और इस शहीद स्मारक के देखभाल हेतु पुरातत्व विभाग को आदेशित किया जाए।
प्रो. डॉ. राम उग्रह सिंह जन्मस्थली – डोभी ब्लाक में ही हरदासीपुर दक्षिणेश्वरी महाकाली मंदिर से लगभग 9 किलोमीटर से दूर बोड़सर ग्राम में कानूनविद्द डॉ. राम उग्रह सिंह का जन्म मार्च 1903 को हुआ था। 1927 में प्रो.डॉ. राम उग्रह सिंह ने एम.ए.एलएलबी. की पढ़ाई पूरा कर वकालत करने लगे। कानून के विषय में उनके पहले लेख पर हार्वर्ड कॉलेज ऑफ लॉ से बुलावा आने पर राम उग्रह सिंह आगे के पढाई के लिए वहां चले गए। परन्तु, देश के प्रति अपार प्रेम के कारण राम उग्रह सिंह वापस लौट आये और लखनऊ में ही आगे की पढाई करने लगे। उनकी विद्वता से प्रभावित होकर नेपाल नरेश ने 50 के दशक के अंत में उन्हें अपनी संविधान निर्माण समिति में शामिल कर लिया और राम उग्रह सिंह ने नेपाल का संविधान बनाने में भूमिका भी निभाई। आजीवन हावर्ड कॉलेज ऑफ लॉ के स्टूडेंट यूनियन के चेयरमैन रहे डॉ सिंह ने दिल्ली और बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में विधि विभाग को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा किया था।
जिस डॉ राम उग्रह सिंह के नाम पर लखनऊ यूनिवर्सिटी के लाइब्रेरी का नाम डॉ. आर. यू . लाइब्रेरी पड़ा आज उन्ही की जन्मस्थली उनकी पहचान और याद को खोती जा रही है और इनके गाँव में इनके याद में बना डॉ. राम उग्रह सिंह पोखरा इंटर कालेज आज भी उपेक्षा का शिकार है।
कैसे पहुंचे हरदासीपुर दक्षिणेश्वरी महाकाली मंदिर –