



काशी में खेली गई जलती चिताओं की राख से होली ,भूत प्रेत भी हुए शामिल
मान्यता है कि भगवान शिव भक्तों के साथ यहां होली खेलते हैं.
मसाने की होली को देखने के लिए 20 देशों से 5 लाख टूरिस्ट भी पहुंचे है. घोड़े और रथ पर सवार होकर संत, नागा संन्यासी 2 किमी दूर हरिश्चंद्र घाट पहुंचे
वाराणसी (BNE) .उत्तर प्रदेश की काशी में हरिश्चंद घाट पर जलती चिताओं की राख से होली खेली गयी। इस अनौखी होली में देश भर के साधु सन्याशी शामिल हुए। साधु सन्यासियों की अलावा देश के अन्य राज्यों से भी लोग इस विशेष होली को देखने के लिए पहुंचे। मान्यता है कि भगवान शिव भक्तों के साथ यहां होली खेलते हैं.
मसाने की होली को देखने के लिए 20 देशों से 5 लाख टूरिस्ट भी पहुंचे है. घोड़े और रथ पर सवार होकर संत, नागा संन्यासी 2 किमी दूर हरिश्चंद्र घाट पहुंचे. 2 किमी की यात्रा में जगह-जगह कलाकारों ने शिव तांडव किया. इसी के साथ बनारस में एकादशी यानी रंगभरी एकादशी से ही यह उत्सव शुरू हो जाता है.
बनारस का मणिकर्णिका घाट दुनिया के सबसे बड़े श्मशान घाट में से एक है, मान्यता है कि यहां लगातार शव आते रहते हैं, जिससे चिता की अग्नि ठंडी भी नहीं होती और दाह संस्कार के लिए कोई शव पहुंच जाता है. यहीं पर फाल्गुन शुक्ल द्वादशी को चिताओं की राख यानी भभूत से होली खेलने की परंपरा है. यह भस्म शिव के प्रति शुद्धि और भक्ति का प्रतीक है.
काशी के मसान की होली की प्राचीन कथा
धार्मिक ग्रंथों के अनुसार माता सती के आत्मदाह के बाद भगवान शिव चिर साधना में चले गए. इससे संसार का संतुलन बिगड़ गया, इधर राक्षस राज तारकासुर का आतंक बढ़ता जा रहा था, जो शिव पुत्र के हाथों ही मारा जा सकता था और इसके लिए शिवजी का साधना से उठना जरूरी था. इसके लिए देवराज इंद्र ने योजना बनाई और उनके आदेश पर कामदेव ने आदि योगी शिव पर बाण से प्रहार कर दिया, इससे शिवजी की साधना भंग होई. लेकिन उनको क्रोध आ गया, जिससे त्रिनेत्र का तीसरा नेत्र खुल गया और कामदेव राख के ढेर में बदल गए. बाद में देवताओं की प्रार्थना और सृष्टि में कामदेव के महत्व को देखते हुए उनको जीवन दान दिया लेकिन शरीर रहित यानी अनंग के रूप में, कालांतर में माता सती ने माता पार्वती के रूप में अवतार लिया और अपने समय पर फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी यानी महाशिवरात्रि पर शिव पार्वती ने विवाह किया.
इसके बाद फाल्गुन शुक्ल एकादशी यानी रंगभरी एकादशी पर शिवजी माता पार्वती को पहली बार काशी लेकर आए थे. इस खुशी में काशी नगरी वालों ने शिव-पार्वती के साथ रंगों की होली खेली, लेकिन शिवजी के गण (भूत-प्रेत, अघोरी, नागा साधु, इत्यादि) इस होली में शामिल नहीं हो पाए. इस पर गणों के आग्रह पर भगवान शिव ने अगले दिन यानी फाल्गुन शुक्ल द्वादशी को मणिकर्णिका घाट पर उनके साथ जली हुई चिता की राख से होली खेली, खुद पर भस्म मली और गणों पर भस्म उड़ाया. इसके बाद यहां हर साल चिता भस्म से होली खेली जाने लगी, मान्यता है कि शिवजी रंगभरनी एकादशी के अगले दिन मणिकर्णिका घाट पर अदृश्य रूप में आते हैं और अपने गणों के साथ भस्म की होली खेलते हैं.
बनारस में चिता भस्म की होली की परंपरा
बनारस में चिता भस्म की होली की परंपरा के अनुसार रंगभरनी एकादशी के दिन शिवजी और माता पार्वती की शोभायात्रा निकाली जाती है यानी शिवजी पार्वती के स्वरूप को पालकी में बिठाकर पूरे शहर में घुमाया जाता है और भक्त रंग उड़ाते हैं. इसके अगले दिन सभी भगवान शिव के ही रूप बाबा विश्वनाथ से आज्ञा पाकर और उनकी पूजा कर मणिकर्णिका घाट पर पहुंच जाते हैं और होली खेलते हैं. इससे पहले बाबा महाश्मशान नाथ और माता मशान काली की मध्याह्न आरती (अनुष्ठान अर्पण) की जाती है. बनारस की मसान की होली भगवान शिव के गण खेलते हैं, जिनमें अघोरी और नागा साधु शामिल होते हैं. मान्यता है कि इस दिन भूत-प्रेत, यक्ष गंधर्व भी इस घाट पर मसान की होली खेलने आते हैं लेकिन हम उन्हें देख नहीं सकते. इसके साथ ही भगवान शिव भी अदृश्य रूप से यहां मौजूद रहते हैं.