मैं घूमने के लिए हरिद्वार गया था। तीर्थ स्थल होने के कारण भिखारी भी काफी अधिक है। हम एक ढेले पर नास्ता कर रहे थे कि एक बूढिया हमारे पास आई और बोली, बाबू जी10रू. देदो, केला खाऊगी, मेरा उपवास है सुबह से कुछ नहीं खाया। मैंने उसे 10रु दे दिये। वो पैसे लेकर चल दी। मैंने बुलाकर पूछा, केला क्यों नहीं लिया? वो बोली बेटे को लेकर आऊगी फिर खालूगी।
हम अभी वहीं खडे थे कि एक भिखारी और आया । उसने भी उसी अन्दाज से पैसे माँगे। मैं समझ गया कि यह उस बुडिया का साधी है उसी ने भेजा होगा। इस बार मैंने पैसे नहीं दिये और फल वाले को दो केले देने के लिए बोला। केले लेकर वो भिखारी धीरे धीरे आगे बढ़ गया और हम भी नास्ता करके अगली दुकान पर चले गए। तभी मैंने देखा कि वह भिखारी वापस उस फल वाले की और जा रहा था। मैं ये देखकर होरान हो गया क्योंकि उस भिखारी ने फल वाले को केले वापस करके उससे पैसै ले लिये और तेजी से आगे गली में घुस गया।
मैं वापस ठेले वाले के पास गया और पूछा माजरा क्या है। फल वाला बोला यहां पर सभी भिखारी ऐसे ही करते हैं। फल वापस नहीं लेने पर सब भिखारी इकट्ठा होकर मारने आजाते हैं। इनकी सख्या हजारों मे है और यूनियन भी हैं। ये सभी लोकल हैं और हम दूसरे शहर के।इनसे दुश्मनी नहीं ले सकते।
इस घटना ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। क्या मागने वाले हमारी भावनाओं से खेलते हैं? क्या भीख देकर हम सही कर रहे हैं? इस घटना ने मुझे अच्छी सीख दी और भीख मांगने वालो के प्रति मेरी सोच और नजरिया दोनों बदल गये। अब मैं किसी भी मांगने वाले को पैसे कभी नहीं देता। अगर कोई भूखा होता है तो उसे अपने सामने बिठाकर , खिलाकर भेज देता हूँ।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब