तनाव से मुरझाती मानसिक सेहत – विजय गर्ग
मानसिक स्वास्थ्य से अभिप्राय भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक तौर पर स्वस्थ रहने की स्थिति से है। यानी मानसिक स्वास्थ्य के लिए व्यक्ति की मनोदशा सकारात्मक, स्थिर और संतुलित होनी चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन मानसिक स्वास्थ्य को मानसिक कल्याण के रूप में परिभाषित करता है, जिसमें व्यक्ति को अपनी क्षमताओं का अनुभव होता है। वे जीवन के सामान्य तनावों का सामना कर सकते हैं। यही नहीं प्रत्येक स्थिति में उचित निर्णय ले सकते हैं और समाज के विकास में सहायक हो सकते हैं। मगर आधुनिक प्रौद्योगिकी और डिजिटल युग के तीव्र विस्तार के बाद से हमारे देश में ही नहीं, बल्कि दुनिया के प्रत्येक समाज में मानसिक स्वास्थ्य को अब चुनौती मिल रही है। आज लगभग हर व्यक्ति जीवन के किसी न किसी पड़ाव पर मानसिक अस्थिरता, तनाव, , कुंठा और निराशा का सामना करता नजर आता है। यह अवश्य है कि इनके कारण अलग-अलग हो सकते हैं। कुछ अध्ययनों में यह सामने आया है कि वर्तमान समय में भारत में मानसिक स्वास्थ्य विकारों में बढ़ोतरी देखी जा रही है। संस्था ‘द लैंसेट साइकियाट्री कमीशन’ के अनुसार उन्नीस करोड़ सत्तर लाख से अधिक लोग अवसाद, चिंता और मादक द्रव्यों के सेवन जैसी स्थितियों से पीड़ित हैं।
इस बात में संदेह नहीं है कि आर्थिक और तकनीकी विकास ने रोजगार और प्रगति के कई नए अवसर पैदा किए हैं, लेकिन इससे लोगों में विशेष रूप से से युवाओं में बाओं में सामाजिक दबाव और व्यक्तिगत अपेक्षाएं भी बढ़ी हैं। और जब मनुष्य की आकांक्षाएं बढ़ती हैं, तब अक्सर यह देखने में आता कि वे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी करते हैं। इस नवीन संस्कृति ने न केवल भौतिकतावाद और दिखावे को बढ़ावा दिया है, बल्कि प्रकृति तथा मानव अस्तित्व के समक्ष अनेक संकट भी उत्पन्न कर दिए हैं।
आज ऐसी अनेक नई प्रकार की व्याधियां उभर र रही हैं, जिनका नाम लोगों ने कभी नहीं सुना था और तो और पहले जो बीमारियां किसी निश्चित आयु में (जैसे प्रौढ़ावस्था अथवा वृद्धावस्था में) हुआ करती थी, वे अब किशोरों और युवाओं में (जैसे रक्तचाप, मधुमेह, हृदय आघात या दृष्टि विकार, स्मृतिलोप और घुटनों का दर्द आदि) भी होने लगी हैं। स्पष्ट है कि आधुनिक जीवन । शैली, महानगरीय चकाचौंध और तीव्र प्रतिस्पर्धा ने युवाओं और किशोरों के जीवन को इतना अधिक तनावपूर्ण बना दिया है कि जब वे उस दबाव को नहीं झेल पाते, तो अपने जीवन को समाप्त करने से भी नहीं चूकते। चिंता का का विषय यह है कि आए दिन इस तरह की खबरें समाचारों सुर्खियां बनती हैं।
इस साल के मध्य में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करने वाली 26 वर्षीय युवती ने काम के अत्यधिक दबाव के कारण आत्महत्या कर ली। दो महीने पहले ही चेन्नई स्थित एक अन्य कंपनी में काम करने वाले 38 वर्षीय साफ्टवेयर इंजीनियर ने अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। एक और घटना में मैकिंसे एंड कंपनी के 25 वर्ष के एक युवा कर्मी ने मुंबई के वडाला इलाके में काम के अधिक दबाव के कारण अपने आवासीय परिसर की नौवीं मंजिल से छलांग लगा दी। इन सभी घटनाओं को गंभीरता से लेना होगा। सोचने की बात है कि मनचाहा करिअर और उच्च वेतन पाने के बाद भी यह युवा पीढ़ी खुद को समाप्त करने के लिए क्यों तैयार हो जाती है। संभवतः इंजीनियरिंग, मेडिकल अथवा प्रबंधन जैसे व्यावसायिक पाठ्यक्रम में छह-सात साल खर्च करने के बाद युवाओं को लगता है कि अच्छी कंपनी में नौकरी पाने के बाद जीवन संवर जाएगा और उन्हें भविष्य में ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ेगा। फिर वे अपना मनपसंद जीवन जी सकेंगे। ऐसा वे अपने बड़ों से सुनते भी रहते हैं कि पढ़ाई में कुछ सालों की मेहनत से उनका भविष्य बेहतर हो जाएगा और एक उच्च स्तरीय जिंदगी जी सकते हैं, लेकिन क्या वास्तव में जिंदगी में ऐसा ही होता है या सपने बिखर जाते हैं?
हम सभी जानते हैं कि जिंदगी किसी नियोजित योजना के अनुरूप चलती। इंसान जैसा सोचता है, वैसा नहीं होता, लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि मनुष्य को भविष्य की कोई योजना नहीं बनानी चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि किशोरों और युवाओं को अब इस बात के लिए भी तैयार किया जाए कि उन्हें जीवन में संघर्ष के लिए हमेशा तैयार रहना हर चुनौती का सामना करना आना चाहिए। जिंदगी में ऐसी कोई भी चुनौती या समस्या नहीं है, जिसका कोई समाधान न हो। खास तर से आज के विकसित तकनीकी युग में जहां मनुष्य ने अनेक असंभव चीजों को भी संभव कर दिखाया है, जैसे- कृत्रिम बुद्धि, कृत्रिम कोख, मशीनी मानव या आभासी विश्व का निर्माण आदि। सवाल है कि जब मानव बुद्धि इतना सब कुछ कर सकती हैं, तो अपनी ही समस्याओं का समाधान क्यों नहीं निकाल सकती ?
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि व्यक्तिवाद, आर्थिक असुरक्षा से उत्पन्न हुई अस्थिरता तथा भय एवं असंतोष का मनोविज्ञान ऐसे कारक हैं, जिन्होंने विभिन्न समाजों में विशेष रूप से विकासशील देशों में असमान व असंतुलित विकास को उत्पन्न किया है। आज हम जिस उपभोक्तावादी, पूंजीवादी और तकनीक से लैस होते समाज में जी रहे हैं, उसमें सामूहिकता का स्थान व्यक्तिवाद ने ले लिया है इतना आत्मकेंद्रित हो गया है कि परिवार और मित्रों अपार लकहर कहें कि व्यक्ति अलग-थलग होकर अपरिचित सा होता जा रहा | रहा है। परिणामस्वरूप वह इतना असुरक्षित और एकाकी बनता जा रहा है कि निराशा और तनाव का आसानी से शिकार होने बनता जा रहा ह लगा है। आज की युवा पीढ़ी की चारित्रिक विशेषताओं को इस संदर्भ में समझने की आवश्यकता है। किशोर पीढ़ी बिना किसी की परवाह किए बिना कोई रोक-टोक स्वच्छंदता से रहने, घूमने तथा अपनी पसंद की जीवन शैली अपनाने और दिखावे के उपभोग की संस्कृति में विश्वास करती है। जब कभी अभिभावक या माता-पिता अपने बच्चों को जीवन के यथार्थ का सामना करने के लिए कहते हैं. शांत रहो या ‘बी-कूल’ जैसे जुमले बोल कर उनकी बातों को अनसुना कर देते हैं। दूसरी तरफ ऐसा लगता है कि युवा पीढ़ी जिंदगी को यथार्थ में जीने के लिए नहीं, बल्कि उच्च महत्त्वाकांक्षा, ऊंचे दर्जे की नौकरियां, भारी-भरकम वेतन और उच्च ब्रांड वाली जीवनशैली जीने के लिए जीती है। दुर्भाग्य तो कि काम के अत्यधिक दबाव के कारण भविष्य में ये इस लायक नहीं रहते कि अपने अर्जित किए धन और संसाधनों का उपभोग कर सकें या आनंद उठा सकें। संभवतः नई पीढ़ी यह भी नहीं जानती कि उन्हें अपनी जिंदगी से क्या चाहिए? क्या भौतिक संपन्नता, उच्च वेतन और ब्रांड वाली वस्तुओं का उपभोग करना करना ही खुशहाली का प्रतीक है, इस पर सभी को विचार करना चाहिए। अगर परिवार, मित्र और समूह के बिना केवल वस्तुओं के साथ खुशहाल जीवन जिया जा सकता है, तो मनुष्य को सामाजिक प्राणी की श्रेणी मैं रखना उचित नहीं कहा जा सकता। जीवन के स्थान पर मृत्यु का विकल्प चुनना साहस नहीं, कायरता है। आज के दौर में किसी का भी जीवन संघर्ष या चुनौती रहित नहीं हो सकता, लेकिन इनका सामना करना और समाधान निकालना सीखा जा सकता है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब
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