
पढ़ाई की कीमत -विजय गर्ग
बचपन अतुलित आनंद यानी चंचलता और हंसने- हंसाने का नाम है। कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने लिखा है, ‘चिंता रहित खेलना, खाना और निर्भय स्वच्छंद फिरना..! कैसे भूला जा सकता है, बचपन का अतुलित आनंद ।’ इसलिए बचपन का स्वागत उत्साह एवं भावनाओं से हो। बच्चों के पाठ्यक्रम की चर्चा की जाए तो वह मनोरंजन, यानी हंसने-हंसाने के साथ अधिगम (समझ) हासिल करने वाला होना चाहिए। बरसों से यह बात सुर्खियों में रहती आई है कि गैरसरकारी और निजी स्कूल संचालकों द्वारा बच्चों की पढ़ाई के निमित्त मोटी फीस वसूली जाती है । पाठ्यक्रम के नाम पर भारी-भरकम पुस्तकें बचपन पर थोपी जा रही है । पाठ्य सामग्री ऊंची कीमत पर खरीदने के लिए अभिभावकों पर परोक्ष, तो कहीं- कहीं प्रत्यक्ष दबाव बनाया जाता है। शिक्षा खुलेआम बेची जा रही है और वह भी ऊंचे दामों पर । अभिभावक मजबूरी में खरीद रहे है । बच्चों की शिक्षा के नाम पर ऊंचे दाम पर शिक्षा बिकती है, मोटी रकम वसूली जा रही होती है, ऐसे में संबंधित प्रदेश और देश की सरकार का दायित्व उसे संभालने का होना चाहिए। आए दिन ऐसी खबरें प्रमुखता से छपती हैं कि निजी स्कूल ऊंचे दामों की किताबें और मोटी रकम फीस के तौर पर अभिभावकों से मांग कर रहे हैं।
वर्षों से शिक्षाविद इसकी मांग कर रहे हैं। कि पाठ्यक्रम चाहे बच्चों का हो या ऊंची कक्षाओं में एकरूपता होनी चाहिए। कहने का आशय यह है कि सरकारी स्कूलों के लिए पाठ्यक्रम कुछ और हो, गैर सरकारी निजी स्कूलों के लिए कुछ और। जबकि इसमें एकरूपता परम आवश्यक है। पिछले दिनों मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने इस पर सख्ती दिखाई थी। शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होने के बाद निजी विद्यालय द्वारा फीस वृद्धि नियंत्रित करने के लिए अनुशंसाएं करने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया गया था। तब राज्य सरकार द्वारा राजस्थान विद्यालय ( फीस का विनिमेय) अधिनियम, 2016 एवं नियम 2017 निर्धारित कर लागू किए गए। इस अधिनियम में प्रत्येक विद्यालय में माता-पिता अध्यापक संगम की स्थापना करने और इस संगम की देखरेख में विद्यालय स्तरीय फीस समिति का गठन करने का प्रावधान किया गया है
हालांकि निजी विद्यालय इस समिति के जरिए फीस वृद्धि करते हैं, लेकिन शासन और विभागीय अधिकारियों के स्तर से सूक्ष्म निगरानी और नियंत्रण नहीं होने के कारण इन समितियों के नाम पर विद्यालय द्वारा लीपापोती कर शुल्क वृद्धि कर लेने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता । नियम और व्यवस्था के नाम पर महज लीपापोती न होकर आवश्यकता इस बात की है कि शासन का प्रत्येक स्तर पर ‘फ्रेंड फिलास्फर गाइड’ यानी मित्र – दार्शनिक सिद्धांत के अनुसार विद्यालयों पर प्रभावी नियंत्रण हो । ऐसे वातावरण के निर्माण की आवश्यकता है, जिसमें विद्यालय शिक्षा का कार्य एक पुनीत, सामाजिक दायित्व और अपना स्वयं का कार्य मानकर पूर्ण प्रतिबद्धता तथा ईमानदारी के साथ निर्वहन करें। वर्तमान में इस सिद्धांत के अनुसार काम कम ही हो रहा लगता है। ऐसा लगता है। कि निजी स्कूलों को अपना पाठ्यक्रम निर्धारण करने और मनमानी फीस वसूलने का अधिकार दे दिया गया है।
शिक्षा का सार्वजनिकीकरण और निजी क्षेत्र की भागीदारी जरूरी हो सकती है, लेकिन बच्चों को क्या परोसा जा रहा है, उसकी पड़ताल सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए। वर्तमान में निजी क्षेत्र को सहायक सामग्री के रूप में पाठ्यक्रम लागू करने और बोर्ड के अतिरिक्त सभी तरीके के परीक्षा – पत्र अपने स्तर पर तैयार करने का अधिकार देने से शिक्षा की एकरूपता समाप्त हो रही है, वहीं शिक्षा बेलगाम तरीके से महंगी और बाजार आधारित होती जा रही है।
राज्य और केंद्र सरकार से मान्यता प्राप्त निजी विद्यालयों के निर्धारित पाठ्यक्रम के साथ-साथ हर विषय के साथ एक सहायक सामग्री की पुस्तक लगाने की छूट देना शिक्षा को महंगी करने की राह तैयार करेगा। जिस प्रकार वस्तुओं के मूल्य निर्धारण का अधिकार सरकार ने अपने पास नहीं रखा, ठीक उसी प्रकार शिक्षा तंत्र की फीस और पाठ्यक्रम निर्धारण का कार्य सरकार ने बाजार के हवाले कर दिया। माध्यमिक और उच्च माध्यमिक विद्यालयों में जिस प्रकार केंद्रीय और राज्य बोर्ड का पाठ्यक्रम लागू होता है, ऐसे में पाठ्यक्रम और परीक्षा – पत्रों की समानता बनी रहती है ।
नई शिक्षा नीति में बोर्ड की अवधारणा तो लगभग समाप्त किया जाना है, जिसके परिणाम भविष्य के गर्भ में हैं। सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए कि निजी शिक्षण संस्थानों का पाठ्यक्रम सरकारी पाठ्यक्रम से अलहदा न हो । नर्सरी से आठवीं कक्षा तक पाठ्यक्रम निर्धारण सरकार को करना चाहिए और सहायक शिक्षण सामग्री की छूट पर पाबंदी लगाना चाहिए। इससे निजी शिक्षण संस्थाओं के बेजा पाठ्यक्रम पर लगाम लगेगी। अभिभावकों पर पाठ्यक्रम के नाम पर महंगी किताबों पर अपने आप ही अंकुश लगेगा। उच्च पेशेवर शिक्षा में चिकित्सा, इंजीनियरिंग का एक ही पाठ्यक्रम होता है, एक ही परीक्षा होती है और उसकी फीस भी सरकार निर्धारित करती है। इसी प्रकार प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में भी एक पाठ्यक्रम और एक फीस का निर्धारण सरकारी स्तर पर किया जाना चाहिए, तभी मोटी फीस और महंगे पाठ्यक्रम से निजात मिलेगी। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी के अध्यक्ष रहे देश के ख्यातनाम वैज्ञानिक और शिक्षाविद प्रोफेसर यश पाल की अध्यक्षता में गठित कमेटी (1992) की रपट ‘लर्निंग विदाउट बर्डन’ में वर्णित अनुशंसाओं को नए सिरे से विश्लेषित कर उस पर अमल की आवश्यकता है ।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब
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