
बचपन में टूटती जिंदगी की डोर – विजय गर्ग
मेंटल हेल्थ आफ चिल्ड्रन एंड यंग पीपल’ कहती है कि दुनिया में दस से 19 साल का हर सातवां बच्चा मानसिक परेशानियों से से जूझ रहा है
सामाजिक-पारिवारिक मौर्चे पर कुछ बच्चे अभिभावकों के अलगाव का दंश झेल रहे हैं, तो कहीं घरेलू सहायकों संग बचपन बीत रहा है
अहमदाबाद के निजी विद्यालय में कुछ दिन पहले आठ साल की बच्ची की हृदयाघात से मौत हो गई। सुबह स्कूल पहुंची बच्ची को सीढ़ियां चढ़ते वक्त सीने दर्द महसूस हुआ, तो वह गलियारे में बैठ गई। फिर कुछ ही पलों में वह बेंच से गिर पड़ी। उसे अस्पताल ले जाया गया, जहां चिकित्सकों ने उसे मृत घोषित कर दिया। इसी तरह कर्नाटक में भी शिक्षिका को कापी दिखाने के लिए अपनी सीट से उठ रही बच्ची अचानक बेहोश हो गई। अस्पताल ले जाने पर पर चिकित्सकों ने ने बताया कि हृदयाघात के कारण उसका जीवन समाप्त हो चुका है। उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में भी पहली कक्षा में पढ़ने वाली एक बच्ची की खेलते समय मौत हो गई। वहीं हर आयुवर्ग के लोगों में बढ़ता हृदयाघात चिंता का विषय है। मगर बच्चों से से जुड़े मामले सचमुच भयभीत करने वाले हैं। खेलने- कूदने की में दिल का दौरा पड़ने से जिंदगी की टूटती डोर नई पीढ़ी के बिगड़ते स्वास्थ्य पर गंभीरता से सोचने को विवश कर रही है।
दरअसल, दुषित पर्यावरण, मिलावटी खानपान और निष्क्रिय जीवनशैली बच्चों को भी स्वास्थ्य समस्याओं के घेरे में ले है। इतना ही नहीं मोबाइल फोन में झांकते हुए बीत रहा समय भी बचपन के लिए बड़ा जोखिम बन गया है। एक और अस्वास्थ्यकर भोजन का बढ़ता चलन, तो दूसरी ओर तकनीकी व्यस्तता के कारण निष्क्रिय होती जीवनशैली। संतुलित और पोषण से भरपूर आहा आहार से दूर होते बच्चे जाने-अनजाने कुपोषण के जाल में फंस रहे हैं। शारीरिक गतिविधियों और व्यायाम की जगह तनाव का घेरा बढ़ाने वाले ठहराव ने ली है। बाल स्वास्थ्य से जुड़े जोखिम बढ़ाते अस्वास्थ्यकर भोजन से लेकर आरामदायक दिनचर्या तक, बचपन से बहुत कुछ नया जुड़ गया है। पोषण रहित चटपटे भोजन की त्वरित पहुंच ने खानपान की नई संस्कृति को जन्म दिया है। हालिया बरसों में रसोईघर में पके खाने से बड़े बच्चे भी दूर हुए हैं। बड़े शहरों में ही नहीं, गांवों-कस्बों में भी फल और सब्जियां खाना छूट सा गया है। बाहर के भोजन की त्वरित उपलब्धता से भी परंपरागत खाद्य पदार्थों के प्रति अरुचि बढ़ी है।
अमेरिका के मैरीलैंड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के ब्राजील, चीन, भार भारत, नाईजीरिया, पाकिस्तान और रूस में विपणन, विज्ञापन और अंतरराष्ट्रीय खाद्य एवं पेय पदार्थों के बीच संबंध से जुड़े अध्ययन के अनुसार प्रचलित ब्रांड के खाद्य और पेय उत्पाद सहजता से बच्चों की जीवनशैली में में स्थान बना लेते हैं। पांच से छह वर्ष के बच्चों को लेकर हुए अध्ययन में सामने आया कि बाजार को विस्तार देने की सोच के साथ विज्ञापनों से रूबरू होने वाले बच्चों में कम पोषण वाले ऐसे पदार्थों प्रस्तुत के प्रति खिंचाव की संभावना अधिक होती है। दुनियाभर में हुए अध्ययन बताते हैं कि विज्ञापन देख कर भोजन को वरीयता देने और बाल स्थूलता में गहरा संबंध है।
हर आयु वर्ग के लोगों में हृदय रोग का जोखिम बढ़ाने वाला मोटापा बाल स्वास्थ्य के लिए भी बड़ा खतरा बन गया है। निष्क्रिय जीवनशैली के कारण बढ़ता मोटापा वैश्विक स्तर पर अनगिनत स्वास्थ्य समस्याओं की जड़ माना जाने लगा है मोटे बच्चों में उच्च रक्तचाप या उच्च कोलेस्ट्रॉल जैसे कारक दिल की सेहत बिगाड़ते हैं। मोटापे का सामना कर रहे कई बच्चों में दोनों में से एक कारक हृदय रोग के जोखिम को बढ़ाता है। आमतौर पर हमारे घरों में आज भी यही माना जाता है कि बच्चों को उच्च कोलेस्ट्राल और दिल की बीमारी जैसी समस्याएं कैसे हो सकती है ? जबकि हृदय रोग केवल वयस्कों और बुजुगों में ही नहीं होता। नवजात शिशुओं और बच्चों का दिल भी बीमार हो सकता है।
अध्ययन बताते हैं कि कुछ मामलों में इस बीमारी की जड़ कही जाने वाली उच्च कोलेस्ट्रॉल की समस्या वंशानुगत भी होती है। पारिवारिक ‘हाइपरकोलेस्ट्रोलेमिया’ के नाम से जानी जाने वाली यह स्थिति लगभग एक से दो फीसद बच्चों में होती है। ह्यूस्टन के पीडियाट्रिक कार्डियोलाजी एसोसिएट्स’ की निदेशक क्लेरिसा गार्सिया का कहना है कि ‘अब प्रीस्कूल की से ही बच्चों में उच्च कोलेस्ट्राल, उच्च रक्तचाप और मोटापे जैसी परेशानियां बढ़ रहीं हैं। जब हम इन संकेतकों को जल्दी पहचान लेते हैं, तो हम भविष्य में अधिक गंभीर हृदय समस्याओं से बचने के लिए कदम उठा सकते हैं।’ अध्ययनों में यह भी सामने आया है कि कई लोगों में ‘फैटी प्लाक’ का निर्माण बचपन में शुरू हो जाता है जो उम्र के साथ बढ़ता जाता है। यह व्याधि ‘एथेरोस्क्लेरोसिस’ कही जाती है। समय के साथ, यह हृदय रोग की वजह बनता है।
दुखद है कि हंसते-खेलते बच्चे स्कूल परिसर, खेल के मैदान या गली-मुहल्ले में धमा-चौकड़ी मचाते हुए स के मुंह में समा रहे सहसा हैं ऐसे मामलों में न तो चिकित्सा का अवसर मिलता है और न ही सेहत बिगड़ने की कोई चेतावनी। यही कारण है कि जीवनशैली जनित बदलावों को समझना आवश्यक हो चला है। बच्चों का स्वास्थ्य सहेजने के मोर्चे पर पोषणयुक्त भोजनसं भोजन और सक्रियता सबसे अहम पक्ष हैं। गौरतलब है कि आज दुनियाभर में दस फीसद बच्चे ज्यादा वजन की समस्या से जूझ रहे हैं। कनाडा में पिछले 20 साल में बच्चों में मोटापा तीन गुना बढ़ गया। असल में जन्मजात दोष के अलावा शारीरिक स्थूलता, सक्रियता की कमी और कुपोषण बच्चों में हृदय रोग
के जोखिम को बढ़ाते हैं। इतना ही नहीं छोटे- -छोटे बच्चे भी अब तनाव, अवसाद वसाद और अकेलेपन का शिकार हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ की ताजा रपट ‘मेंटल हेल्थ आफ चिल्ड्रन एंड यंग पीपल’ कहती है कि दुनिया में दस से 19 साल का हर सातवां बच्चा मानसिक परेशानियों से से जूझ रहा है। रहा है। इनमें अवसाद, बेचैनी और से जुड़ी समस्याएं शामिल हैं। व्हाइसीएमआर के सर्वेक्षण के मुताबिक देश में 12 से 13 फीसद विद्यार्थी भावनात्मक और व्यवहारगत समस्याओं से ग्रसित हैं। सामाजिक-पारिवारिक मौर्चे पर कुछ बच्चे अभिभावकों के अलगाव का दंश झेल रहे हैं, तो कहीं घरेलू सहायकों संग बचपन बीत रहा है। अंक तालिकाओं में अव्वल आने का दबाव भी उनके हिस्से आ गया है ऐसे में बच्चों का जीवन सहेजने के लिए अभिभावकों की सजगता और र उनका संबल बहुत आवश्यक है। परवरिश की यात्रा से जुड़ी सुखद अनुभूतियों को जीने के साथ-साथ अनगिनत जिम्मेदारियां निभाने का पक्ष भी जुड़ा है। । दायित्वों की इस सूची में बच्चों को तनाव, अवसाद और असंतुलित जीवनशैली से बचाना सबसे अहम है। ये सभी पहलू बच्चों के दिल को स्वस्थ रखने से भी जुड़े हैं।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार मलोट पंजाब
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