
लौटना बचपन में- विजय गर्ग
पिछले कुछ वर्षों के दौरान एक धारणा यह बनी है कि बचपन में खुशियां देने वाले माहौल को फिर से रचकर व्यक्ति दिमागी तनाव को कम कर सकता है। ‘किडल्टिंग’ या ‘किडएडल्टिंग’ शब्द के रूप में इसे बच्चों की तरह बेवजह कुछ भी करके खुश होने की प्रक्रिया के रूप में देखा जाना गया। लेकिन इस पर सोचा जाना चाहिए कि क्या सचमुच स्मृति में जो अच्छा होता है, उसे कृत्रिम तरीके से फिर से रचकर वैसा ही फिर महसूस किया जाना संभव है? बच्चे के लिए कुछ भी करना इसलिए आनंदमय होता है कि वह न चीजों के प्रति और न स्वयं के प्रति ही उतना सचेत होता है । वह हर गतिविधि को करते वक्त उसमें पूरा शामिल होता है । उसका दिमाग और मन अलग-अलग खंडों में विभाजित नहीं होते । बचपन की ओर लौटने में एक बड़ा अवरोध है। वापस कहीं नहीं लौटा जा सकता, इसीलिए हर वापसी हास्यास्पद हो जाती है।
शुरुआत में जिस ‘डिल्टिंग’ को तनाव दूर करने की दवा के रूप में देखा गया, अब वह एक मर्ज में तब्दील होता जा रहा है । आधुनिक सभ्यता का यह बड़ा अभिशाप है कि यहां दूसरों के खोजे हुए फार्मूले फैशन बनने के अलावा व्यक्ति की कोई मदद नहीं कर पाते। ऐसे प्रयासों द्वारा स्मृति को जीवित करने का प्रयास उसे निष्क्रिय या मृत कर देना ही हो सकता है। स्मृति को जीने के लिए अपने माता-पिता, पड़ोसियों और बचपन के दोस्तों तक पहुंचना एक राह हो सकती है, लेकिन उस परिवेश को दुबारा निर्मित करने की कोशिश में कुछ हाथ नहीं आता। आज के युवा जिम्मेदारियों से बचने के लिए समय-समय पर प्रचारित किए जाने वाले ऐसे खेल खेलने के आदी हो रहे हैं । कोपेनहेगन विश्वविद्यालय में अपराध विज्ञान के प्रोफेसर और ‘इंफैंटिलाइज्ड’ पुस्तक के लेखक कीथ हेवर्ड का कहना है कि युवा बच्चे ही बने रहना चाहते हैं… उनकी हरकतें और मानसिकता किशोरों जैसी हैं। आखिर वे ऐसा दिखाते – दिखाते उन्हीं चीजों में फंस जाते हैं ।
हम जो भी करते हैं सब हमारे व्यक्तित्व का अंग बनता है, भले ही कितना छोटा क्यों न हो। किसी के कार्यों से ही उसकी मानसिकता का पता चलता आजकल युवा चलन के तौर पर बहुत जल्द नई चीजों को अपना लेते हैं । वे हर चीज के लिए अलग नाम रख लेते हैं । वे अमूमन इसे शौक या ऐसी आदत कहना पसंद करते हैं जिसमें सहजता महसूस होती है। मगर सहजता की तलाश ऐसी चीजों की ओर क्यों लेकर जाती है, यह एक बड़ा सवाल है ? असहजता के कारण को जाने बिना मनोवैज्ञानिकों द्वारा सुझाए गए अस्थायी समाधानों को अपनाते वक्त एक नए फैशन का हिस्सा बनने के अलावा इससे क्या परिणाम होंगे, इसके बारे में नहीं सोचना भी शायद सहजता का फार्मूला है। तनाव दूर करने की प्रक्रिया में समाधान के ही नए तनाव बन जाने की आशंका सदैव रहती है । फिल्में और सोशल मीडिया ने ऐसे चलन को बढ़ावा दिया है। साठ वर्ष के नायक बीस वर्ष के लड़के की तरह उछल-कूद करते और बेपरवाह दिखाए जाते हैं।
यह सही है कि आज के व्यस्त, तनावपूर्ण और प्रतिस्पर्धा भरे जीवन में ‘किडल्टिंग’ कुछ क्षणों की राहत और खुशियों के लिए जगह बनाने का काम करती है। यहां तक कि धीमे उपचार जैसा असर भी देखा जा सकता है। इसीलिए इसे शुरू में मानसिक स्वास्थ्य के लिए कारगर उपाय माना गया, लेकिन आखिर यह एक तरह से शिशुकरण की प्रवृत्ति है, जहां अजीब तरीके से कुछ भी करने को मस्ती का प्रतीक मान लिया गया है। उम्र और शरीर से युवा हो चुके जो लोग खुद को बच्चा मानते हैं, उन्हें रोजमर्रा के जीवन में लगातार निर्देश और संरक्षण की जरूरत होती है। ऐसे व्यवहार को ‘विलंबित वयस्कता’ के तौर पर माना जाता है।
सवाल है कि यह सब कब तक चल सकता है। एक निश्चित वक्त में इसे अभिनय की तरह भले किया जाना संभव हो, इसके साथ आगे नहीं बढ़ा जा सकता। दुनिया वही है और सारी आकांक्षाएं उसी से जुड़ी हैं। इसलिए तनाव का स्रोत भी वही है । उसका सामना तो परिपक्वता से ही करना होगा। तनाव के स्रोत आखिर कहां हैं, उन्हें जाने बिना अपनी चेतना से दूर होने के उपाय करना आखिर कैसी समझदारी भरी तरकीब है ?
कुछ अध्ययनों में देखा गया है कि आज के युवा जिम्मेदारियों से बचना चाहते हैं, वे स्वयं को बच्चा समझते हैं। यह ठीक है कि हर कार्य को आनंद के साथ करना हम बच्चों से सीख सकते हैं। बच्चों से सीखने के लिए और भी बहुत कुछ है, लेकिन इसके लिए बच्चों की प्रवृत्तियां अपनाना जरूरी नहीं है। एक उम्र में जो सच्चा और सहज लगता है, वही समय के साथ न बदलने पर जड़ लगने लगता है । बचपन में जो चीजें खुशियां देती थीं, वे वैसी ही समय बीतने पर नहीं रह जाती हैं । बस वे यादों में ही वैसी रहती हैं। आज के मनुष्य की मानसिकता सप्ताहांत तक सीमित होकर रह गई है। इसलिए वह अपने दिमाग को बिल्कुल साफ रखना चाहता है। स्मृति भी उसके लिए तनाव है । वह ऐसी स्थिति में रहना चाहता है जहां मन को कुछ भी सोचने की जरूरत न पड़े, लेकिन यह संभव नहीं रह गया है। वापस लौटने के प्रयास हमें हमारी अच्छी स्मृतियों से भी महरूम करते हैं, उनसे हासिल कुछ भी नहीं होता । ‘किडल्टिंग’ को कोरोना महामारी के दौरान प्रसारित किया गया, जब खाली समय में पुरानी यादों के नाम पर इसे विज्ञापित करना आसान भी रहा । इसे व्यावसायियों ने अपने-अपने तरीके से भुनाया । यह सही है कि जड़ों से जुड़े रहते हुए ही कोई व्यक्ति आगे बढ़ने का एक बेहतर तरीका खोज सकता है, लेकिन तनाव दूर करने के लिए नए तनाव वाला समाधान ढूंढ़ना शून्य या विपरीत नतीजे भी दे सकता है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब
Post Views: 71