बृजेश चतुर्वेदीलखनऊ। मायावती के करीबी दहू प्रसाद ने समाजवादी पार्टी का हाथ थाम लिया है. दरअसल, सारा मामला दलित वोटरों का है। दो साल बाद यूपी में विधानसभा चुनाव हैं। बीएसपी का ग्राफ लगातार नीचे जा रहा है। मायावती के सामने चुनौती अब अपने बेस जाटव वोट बचाने की है। ऐसे में बीजेपी और समाजवादी पार्टी में बीएसपी के बिखरते वोट को अपने साथ करने की होड़ मची है. अखिलेश यादव ने तो अपनी पार्टी का डीएनए तक बदलने का मन बना लिया है।
अखिलेश यादव ने अब अपनी राजनीति पीडीए पर सेट कर दी है। बीते आठ सालों में उन्होंने हर चुनाव में अलग अलग प्रयोग किए। पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। कांग्रेस से मिल कर विधानसभा चुनाव लड़े। मायावती की बीएसपी से गठबंधन किया पर हर दांव फेल रहा किंतु पीडीए ने तो कमाल कर दिया। पिछले लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने 37 सीटें जीत लीं। अब इसी फार्मूले से विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी है।
समाजवादी पार्टी की नज़र मायावती के वोटरों पर है, अखिलेश यादव दो तरह से इस मिशन में जुटे हैं। समाजवादी पार्टी में दिव्य समाज के नेताओं को तवज्जो दी जा रही है। पार्टी के कार्यकर्ता और नेता एससी समाज के दरवाज़े पहुंच रहे हैं। पार्टी पीडीए मतलब पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक के सामाजिक समीकरण पर है। अखिलेश यादव अपने आस पास अब यादव और मुस्लिम नेताओं के बदले दलित नेताओं को साथ लेकर चलते हैं। फैज़ाबाद से सांसद अवधेश प्रसाद को इसी रणनीति के तहत आगे बढ़ाया जा रहा है। कभी लोकसभा की सिटिंग गौर से देखिए पत्नी डिंपल दूसरी पंक्ति में अखिलेश के ठीक पीछे बैठती हैं जबकि अयोध्या से सांसद अवधेश प्रसाद अखिलेश के ठीक बायीं ओर विराजमान होते है।
मायावती के साथ रहे लोग अब अखिलेश यादव के साथ नज़र आते हैं। बीएसपी अध्यक्ष के करीबी रहे दद्दू प्रसाद का नाम भी अब इसी लिस्ट में जुड़ गया है। एक जमाने में दद्दू प्रसाद बुंदेलखंड के इलाके में मायावती के चहेते नेता थे वे चित्रकूट से आते हैं और बसपा सरकार में ग्राम्य विकास जैसे बड़े विभाग के ताकतवर मंत्री रहे हैं। बीएसपी के संस्थापक कांशीराम से राजनीति सीखने वाले दद्दू प्रसाद को मायावती ने बाद में पार्टी से निकाल दिया था। ये बात साल 2015 की है। तब उन्होंने मायावती पर पैसे लेकर टिकट देने का आरोप लगाया था. बाद में दहू प्रसाद ने बहुजन मुक्ति पार्टी बनाई, उसके साल भर बाद ही बीएसपी में उनकी घर वापसी हो गई थी।
मायावती की सरकार में मंत्री रहे दहू प्रसाद आज समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए हैं। अखिलेश यादव ये माहौल बनाना चाहते हैं कि बीएसपी डूब रही है। उसके साथ रहने से कोई फ़ायदा नहीं। बीजेपी को रोकने के लिए समाजवादी पार्टी ने अपने पीडीए फार्मूले के तहत बीएसपी के जिला स्तर तक के नेताओं को अपने साथ जोड़ने का फैसला किया है।
प्रदेश भर में जगह जगह कई कार्यक्रम होंगे, सपा के जिलास्तरीय नेताओ को हिदायत है कि मायावती की पार्टी के ज्यादा से ज्यादा नेताओं को समाजवादी पार्टी की टोपी पहनाई जाए।
एक दौर था जब समाजवादी पार्टी को दलित विरोधी माना जाता था। मुलायम सिंह यादव पर गेस्ट हाउस कांड तक के आरोप लगे पर साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी से गठबंधन कर अखिलेश यादव ने नई शुरुआत की थी। इसका फायदा बीएसपी को तो हुआ पर समाजवादी पार्टी को नहीं। मायावती का वोट समाजवादी पार्टी में ट्रांसफर नहीं हुआ। इस गलती से अखिलेश ने सबक लेते हुए अपनी रणनीति बदल ली।
दलित वोट के मामले में अखिलेश यादव अब उधार के सिंदूर वाली राजनीति नहीं करना चाहते। उनकी तैयारी अपने पैरों पर खड़े होने की है। उन्हें इसका फायदा भी होने लगा है। यूपी में लोकसभा की 17 सीटें एससी के लिए रिजर्व हैं। पिछले चुनाव में समाजवादी पार्टी ने 7 सीटें जीत लीं। ये यूपी की बदलती राजनीति का संकेत है। राणा सांगा पर बयान के बाद समाजवादी पार्टी के दलित सांसद रामजी लाल सुमन के घर करणी सेना ने हमला किया तो अखिलेश यादव और उनकी पार्टी ने सुमन के समर्थन में आसमान सर पर उठा लिया तब मायावती ने कहा गेस्ट हाउस कांड करने वाले घड़ियाली आँसू न बहायें। बीएसपी अध्यक्ष ने अखिलेश के खिलाफ इमोशनल कार्ड का इस्तेमाल करना चाहा किंतु ये फेल हुआ क्योंकि गेस्टहाउस कांड के बाद वे समाजवादी पार्टी से स्वयम ही गठबंधन कर चुकी है।
यादव और दलित साथ नहीं हो सकते है। बीते कई दशकों से यूपी की राजनीति में समाजवादी पार्टी की दलितों में यही छवि रही है। इस टैग से मुक्ति पाने के लिए अखिलेश यादव ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया है। दलित नेताओं को टिकट देना, उन्हें पार्टी में ज़िम्मेदारी देना और यादव नेताओं को पर्दे के पीछे रखना, ये सब इसी रणनीति का हिस्सा है। अगले विधानसभा चुनाव के लिए दलित वोटरों को लेकर अखिलेश यादव का रोड मैप तैयार है। दद्दू जैसे बड़े नेता की सपा में इंट्री इसी रोडमैप का स्पष्ट संकेत है।