कीटनाशकों से विषाक्त होती मिट्टी-विजय गर्ग
समय आ गया है कि पंजाब अपने कृषि क्षेत्र के कटु यथार्थ का सामना करे जो एक भयानक विभीषिका बन गया है। भटिंडा, मानसा और लुधियाना जिलों में खेतों की मिट्टी के 60 प्रतितशत नमूनों में जहरीले कीटनाशकों के अंश बड़ी मात्रा में पाए गए हैं। इनमें घातक रसायन इंडोसल्फान व कार्बोफ्यूरान शामिल हैं और इनका स्तर किसी प्रकार सुरक्षित नहीं कहा जा सकता है। यह केवल चेतावनी न होकर पूरी तरह से सामने आया गंभीर संकट तथा टिक-टिक करता टाइम बम है।
कीटनाशकों और उर्वरकों के इस गैरजिम्मेदार प्रयोग से पंजाब के खेत बंजर हो रहे हैं। 5 दिसंबर को ‘विश्व मृदा दिवस’ पर हमें तेजी से विघटित होती कृषि व्यवस्था का सामना करना पड़ रहा है, जबकि दुनिया ‘मृदा की देखभाल: उपाय, निगरानी एवं प्रबंधन’ की बात कर रही है। ऐसे में पंजाब में पागलपन खतरनाक स्तर तक पहुंच रहा है। एक समय उर्वर भूमि तेजी से बंजर जमीन में बदल रही है और यह केवल शुरुआत है। जहरीले रसायन केवल मृदा में ही नहीं रहते हैं, बल्कि वे हमारी खाद्य श्रृंखला में शामिल हो जाते हैं तथा खाने के हर कौर के साथ धीरे-धीरे हमारे भीतर जहर भरते हैं। यह प्रक्रिया यहीं नहीं थमती है, बल्कि जहरीले रसायनों के अवशेष हमारे डीएनए में प्रवेश कर जाते हैं और इस प्रकार हमारे बच्चों तथा उनके भी बच्चों के लिए जेनेटिक परिवर्तन की जहरीली श्रृंखला पीछे छोड़ते हैं। ऐसे में हम ऐसे भविष्य का सामना कर रहे हैं जहां स्वास्थ्य पर खतरों और जेनेटिक विघटन की आशंका मौजूद है।
यह भयानक विभीषिका अनेक पीढ़ियों तक जा सकती है। हम न केवल वर्तमान पीढ़ी का स्वास्थ्य नष्ट कर रहे हैं, बल्कि हम अपने बच्चों को भी अपनी मूर्खता और लालच के कारण बरबादी की ओर धकेल रहे हैं। भावी पीढ़ियों का भविष्य ही संकट में पड़ गया है और हमारी निष्क्रियता के हर क्षण के साथ अपरिवर्तनीय जेनेटिक परिवर्तनों का खतरा मंडरा रहा है। समय आ गया है कि हम जागें, यथार्थ से मुंह चुराना बंद करें तथा संकट का सीधे-सीधे सामना करें। ऐसा न होने पर भावी पीढ़ियों का जीवन भी संकट में पड़ जाएगा। भारत ने कीटनाशकों पर नियामक ढांचे की स्थापना 1968 में की थी. पर यह दयनीय रूप से पुरानी पड़ गई है और आधुनिक चुनौतियों का सामना करने में पूर्णतः विफल है जिससे कृषि रसायनों के खतरनाक दुरुपयोग का खतरा बढ़ता जा रहा है। हालांकि, इस ढांचे में संशोधन के प्रयास 2008 से जारी हैं, पर किसानों, उपभोक्ताओं और पर्यावरण की सुरक्षा में काफी कमियां हैं। 1968 के कीटनाशक कानून तथा 1971 के कीटनाशक नियमों में समग्र परिवर्तनों की आवश्यकता है ताकि वे कीटनाशकों के दुरुपयोग से पैदा बहुआयामी संकटों का सामना कर सकें।
कीटनाशक प्रबंधन विधेयक, 2020 पीएनबी को पुराने पड़ चुके कानूनों का स्थान लेने के लिए लाया गया था, पर इसमें महत्वपूर्ण सरोकारों को संबोधित किया जाना चाहिए। इस विधेयक में कीटनाशक पंजीकरण व लाइसेंसिंग प्रक्रियाओं को रेखांकित किया गया है, पर इसमें इनके खतरनाक प्रभाव से किसानों को भी समुचित सुरक्षा दी जानी चाहिए। ‘पेस्टीसाइड एक्शन नेटवर्क’ पैन इंटरनेशनल के आंकड़ों से निराशाजनक तस्वीर सामने आती है।
दुनिया भर में कीटनाशक विषाक्तता की दुर्घटनाओं से हर साल लगभग 11,000 लोगों की मौत होती है जिसमें अकेले भारत में खतरनाक रूप से 6,000 लोग हताहत होते हैं। इन आंकड़ों से स्वाभाविक रूप से कीटनाशक प्रयोग व्यवहारों और सुरक्षा उपायों में व्यापक कमियां उजागर होती हैं। अक्सर किसानों तथा ग्रामीण समाज को रसायनों के प्रयोग का खामियाजा भुगतना पड़ता है। यह खासकर गहन कृषि वाले क्षेत्रों, जैसे पंजाब में बहुत गंभीर है। धान और गेंहूं की खेती में कीटनाशक प्रयोग की दर खतरनाक रूप से बहुत ऊंची है। इसमें औसतन 77 किलो प्रति हेक्टर कीटनाशक प्रयोग होता है, जबकि राष्ट्रीय औसत 62 किलो प्रति हेक्टर है। कीटनाशक उपभोग में भारत में उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद पंजाब का तीसरा स्थान है। केन्द्रीय स्वायल सैलिनिटी रिसर्च इंस्टीट्यूट सीएसएसआरआई के एक अध्ययन से पता चला है कि भारत में 6.74 मिलियन हेक्टर जमीन लवणीयता की शिकार है और कृषि रसायनों के प्रयोग से स्थिति और खराब होती है।
लगातार कीटनाशकों के प्रयोग से ‘माइक्रोबियल बायोमास’ घट कर 30-50 प्रतिशत रह जाता है जिससे मृदा की उर्वरता प्रभावित होती है तथा जमीन फसलों को आवश्यक पोषक तत्व प्रदान करने में विफल हो जाती है। ऐसे में आधुनिक कृषि के लिए कीटनाशकों पर कठोर नियंत्रण जरूरी है जिसमें कीटनाशक, फफूंदनाशक या खरपतवार नाशक शामिल हैं।
उनकी विषाक्त प्रकृति के कारण उनके पूरे जीवनचक्र पर ही कठोर नजर रखना बहुत जरूरी हो जाता है जिसमें उत्पादन से लेकर प्रयोग तक शामिल हैं। वर्तमान नियामक ढांचे में सामने आ रहे विषविज्ञान आंकड़ों के आधार पर पंजीकृत कीटनाशकों की समय-समय पर समीक्षा में अक्षमता दिखती है। इस लापरवाही के कारण आम जनता के स्वास्थ्य पर गंभीर खतरा पैदा होता है। यह खासकर ऐसे देश में और गंभीर हो जाता है जहां कीटनाशकों का ठीक से प्रयोग न करना बहुत व्यापक हो गया है। पिछले तीन दशकों में कीटनाशकों के बेलगाम प्रयोग पर नियंत्रण का प्रयास नहीं हुआ है। इनका प्रयोग बढ़ने का कारण अक्सर आक्रामक मार्केटिंग तथा अधिक फसल पैदा करने के लिए कीटनाशकों के अधिकाधिक प्रयोग की रणनीति है।
वर्तमान समय में प्रशिक्षण प्रयास तेज करने की जरूरत है। 1994-95 से 2020-21 के बीच कृषि एवं कृषक कल्याण मंत्रालय के प्लांट प्रोटेक्शन विभाग ने समन्वित कीटनाशक प्रबंधन- आईपीएम में केवल 585,000 किसानों को प्रशिक्षण दिया 150 मिलियन से अधिक किसानों वाले देश में बहुत कम है। कीटनाशक प्रबंधन के अंतरराष्ट्रीय कोड के अनुसार सरकारों तथा उद्योगों को किसानों तथा खुदरा विक्रेताओं को समग्र प्रशिक्षण एवं सूचनाओं से लैस करना चाहिए। इन संस्तुतियों का प्रभावी क्रियान्वयन होना चाहिए। अक्सर किसानों के संपर्क का एकमात्र साधन खुदरा विक्रेता होते हैं जो भ्रामक या आधी- अधूरी सूचनायें देते हैं। डेटा का उपयुक्त संग्रह न करना भी भारत में नियामक व्यवस्था के लिए समस्यायें खड़ी करता है।
राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो- एनसीआरबी दस्तावेजों के अनुसार कीटनाशकों के कारण होने वाली मौतें तभी पंजीकृत होती हैं जब उनको मेडिको लीगल मामलों के रूप में दर्ज किया जाए। इससे कीटनाशकों के गैर- संस्थागत हानिकारक प्रयोग तथा भयानक स्वास्थ्य दुष्प्रभावों के असंख्य मामले दर्ज नहीं हो पाते हैं। इसके कारण नीति निर्माण तथा जवाबदेही में बाधा पैदा होती है। भारत के कीटनाशक नियमन व्यवस्था में समुचित शिकायत निवारण व्यवस्था की कमी सामने आती है। किसानों तथा खेतिहर मजदूरों को कीटनाशकों के दुष्प्रभावों के मामले में न्याय व मुआवजा प्राप्त करने में भरी खर्च करना पड़ता है तथा इसकी प्रक्रिया बहुत जटिल है। इसके अलावा राज्य सरकारें खतरनाक कीटनाशकों पर केवल अस्थाई प्रतिबंध लगा सकती हैं जिसकी अवधि केवल 60 दिन होती है। इससे बहुत बड़ा समुदाय इसके जोखिमों का शिकार बनता रहता है। खेतिहर मजदूरों को कीटनाशकों के दुरुपयोग का ज्यादा जोखिम उठाना पड़ता है, जबकि उनको स्वास्थ्य जोखिम से निपटने के लिए सुरक्षा उपकरणों को खासकर गरम और नम माहौल वाले कृषि क्षेत्रों में जरूरी है। हालांकि, उपभोक्ता संरक्षण कानून सिद्धान्त रूप से किसानों पर भी लागू होता है, पर कीटनाशक निर्माताओं द्वारा भ्रामक लेबिलों या अधोमानक उत्पादों के प्रयोग के खिलाफ कानूनी लड़ाई आसान नहीं है। ऐसे में भारत को एक किसान- केन्द्रित कानूनी ढांचा तैयार करना चाहिए जो अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप हो क्योंकि यही कृषि को सुरक्षित और टिकाऊ बनाने का एकमात्र रास्ता है। सरकार को खतरनाक कीटनाशकों पर तत्काल प्रतिंध लगा कर किसानों के स्वास्थ्य तथा उपभोक्ताओं की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय मानक लागू करने चाहिए।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब
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