-रतन कुमार श्रीवास्तव ‘रतन’/Breaking news express
पिछले कुछ दशकों तक भारतीय समाज में यह एक सर्वमान्य मान्यता प्रचलित रही है कि घर-गृहस्थी चलाने यानी घर से बाहर निकलकर धनार्जन करने की जिम्मेदारी घर का मुखिया यानी पुरुष वर्ग ही निभायेगा और घर के अन्दर चौका-चूल्हा आदि की जिम्मेदारी महिलायें। कुछ विशेष क्षेत्रों एवं कबिलों को छोड़ दिया जाये तो यह परम्परा हमारे समाज में कुछ दिनों पूर्व तक पूरी तरह से अंतर्व्याप्त भी थी। लेकिन पिछले कुछ दशकों से आर्थिक समृद्धि की इस भागम-भाग दौड़ में सशक्त, सक्षम और आत्मनिर्भर होने के लिए भारतीय समाज में महिलाओं ने भी घर की चैखट से बाहर निकलकर बाहरी कामकाज में अपना हाथ आजमाना शुरु कर दिया, और वे आज पुरुषों के साथ हर क्षेत्र में कंधे से कंधा मिलाकर कार्य कर रही हैं और अपना लोहा भी मनवा रही हैं। निःसंदेह ऐसा होने से एक तरफ जहाँ परिवार और देश की आय बढ़ी है, तो दूसरी तरफ आर्थिक सम्पन्नता के साथ-साथ महिलाओं में आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता भी आई है। शिक्षा भी इसमें एक महत्वपूर्ण कारक रहा है।
आज के समय में अधिकांश अविवाहित पुरुष यदि वे स्वयं किसी क्षेत्र में कार्यरत हैं तो उनमें से अधिकांश की पहली प्राथमिकता यही होती है कि उनकी होने वाली पत्नी भी कामकाजी हो, और विशेष रूप से उनकी यह भी अपेक्षा रहती है कि उनकी होने वाली पत्नी भी उसी क्षेत्र में कार्यरत हो, जिस क्षेत्र में वे कार्यरत हैं। निश्चित रूप से ऐसा होने से एक समान परिवेश, एक समान विचारधारा और एक समान कार्य की प्रकृति होने से पुरुष-महिला दोनों को सहजता होती है और जीवन तथा कैरियर का सफ़र तय करने में थोड़ी-सी आसानी हो जाती है।
यदि पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं तो निःसंदेह हम आर्थिक रूप से थोड़ा सुदृढ़ हो जाते हैं और हमारी सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति आसानी से होती रहती है, और हम एक तरह से सम्पन्न और मध्यमवर्गीय परिवार की श्रेणी में आ जाते हैं। हमारा रहन-सहन, खान-पान-पहनावा सब बेहतर हो जाता है। बच्चों की मन-वांछित शिक्षा को पूरी कराने में आर्थिक कारण आड़े नहीं आते, यानी कहीं किसी तरह की आर्थिक विपन्नता का सामना नहीं करना पड़ता है। लेकिन पति-पत्नी दोनों के कामकाजी होने की दशा में दूसरी समस्यायें भी समाज में बहुत तेजी से पनप रही हैं, बढ़ रही हैं। पति-पत्नी में आपसी सामंजस्यता, वैचारिक-तालमेल और आपसी प्रेम-सम्बन्ध जैसे अटूट भावनात्मक-बंधन कमजोर और संकीर्ण होते दिख रहे हैं। अधिकांश कामकाजी महिलाएं धीरे-धीरे स्वतंत्रता-स्वछंदता की अधिक चाह रखने लग जाती हैं, उनका सामाजिक दायरा बढ़ने लग जाता है, गै़र-ज़रूरतमंद लोगों से मेल-मुलाकात बढ़ जाती है। इस प्रकार वे अपनी धुरी और परिधि से निकलने हेतु छटपटाने लग जाती हैं। वैसे मोबाइल, इंटरनेट, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि आधुनिक साधनों ने भी इसे खूब बढ़ाया है। वास्तविक कम, आभाषी दुनिया की चकाचौंध इस बीच लोगों को अधिक आकर्षित करने लग गई है। अपने चाचा-चाची, मामा-मामी को तो लोग अब सामने से भी नहीं पहचान पा रहे हैं, लेकिन तथाकथित ऐश्वर्या-कैटरीना-आलिया और ऋतिक-सलमान की फ्रेंड रिक्वेस्ट लोग बिना जाने-समझे, विचार किये खूब धड़ल्ले से एक्सेप्ट कर रहे हैं, जिसका भयानक दुष्प्रभाव आज समाज में जगह-जगह देखने को मिल रहा है। लिव-इन-रिलेशन, विवाहेत्तर सम्बन्ध, तलाक तथा पारिवारिक हिंसा के मामले निरन्तर बढ़ रहे हैं। संयुक्त परिवार की पुरानी अवधारणा धीरे-धीरे कमजोर ही नहीं, अपितु खत्म-सी हो गई है। कहने को तो इंटरनेट ने मनोरंजन के खूब साधन मुहैया कराये हैं, लेकिन लोगों में एकाकीपन और तनाव अधिक बढ़ता जा रहा है, जिसके कारण ही काफी लोग अवसाद की ओर बढ़ रहे हैं। कहने को तो भौतिक सुख-सुविधा की सारी वस्तुएं हमने पा लिया है, लेकिन मन में शांति, आपसी प्रेम-सौहार्द-विश्वास और भरोसा धीरे-धीरे घटता जा रहा है। पति-पत्नी दोनों के कामकाजी होने से बच्चों की परवरिश भी माँ के नहीं, अब मैड और क्रेच के भरोसे हो गई है। परिणामस्वरूप बच्चे भी काफी संख्या में चिड़चिड़े और अच्छे संस्कारों से विरत होते जा रहे हैं। देखने में आ रहा है कि ये सभी स्थितियाँ वहाँ और भी अधिक जटिल हैं, जहाँ पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं, और परिस्थितिवश वे परिवार के लिए आवश्यक और गुणवत्तापूर्ण समय कम दे पा रहे हैं।
वैसे हम जैसे इस पीढ़ी के अधिकांश लोग यही चाहते हैं कि ऑफिस से घर लौटें तो पत्नी घर पर सजी-धजी और मुस्कराते हुए घर की दहलीज पर चाय-नाश्ता के साथ इंतज़ार करती मिले और दिन भर की कुशल-क्षेम के साथ दिल की ख़ैर-ख़्वाही भी करे। हम यह भी इच्छा रखते हैं कि घर के अन्दर की सारी जिम्मेदारियों को पत्नी ही उठाये। हम पत्नी से यह भी अपेक्षा रखते हैं कि वह खाने की टेबल पर हमारा इंतज़ार करे तथा हमारे मन का ही व्यंजन बनाये। यानी अभी तक हम-सब ने अपने समाज से, अपने परिवार से तथा अपने बड़े-बुजुर्गों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी जो कुछ भी सीखा या देखा है, वही अपेक्षा हम अपनी पत्नी से भी करते हैं। यदि हमने अपने परिवार में देखा है कि मेरी माँ रात का खाना, तब तक नहीं खाती थी, जब तक पिता जी नहीं खा लेते थे, भले ही कितनी ही देर क्यों न हो जाये! यही सब कुछ हम अपनी पत्नी से भी चाहते हैं, जो हमारे पिता और उनके पिता को हमारी माँ और दादी से मिला है।
सचमुच हम यह भी नहीं चाहते कि हम राजा भोज बनें, लखनऊ के नवाब बनें या फिर दिल्ली के शहंशाह बनें; और दुनिया के सारे ऐश्वर्य-वैभव हमारे कदमों तले हों, बल्कि हम बस यही चाहते हैं कि आधुनिकता एवं स्वतंत्रता के नाम पर पुराने संस्कारों से खिलवाड़ न हो, अपितु हम अपनी पुरानी परम्परा से खुद को जोड़े रखना चाहते हैं। हम यह भी चाहते हैं कि शादी के समय मण्डप में हमने साथ-साथ जो सात फेरे लिए थे, जो सात कसमें खाईं थी, वे ता-उम्र जीवंत रहें, जीवित रहें, एक-दूसरे को बांधे रहें और एक-दूसरे की पूरक-सम्पूरक बनी रहें। यह भी सच है कि हममें अभी इतना साहस और शक्ति नहीं है कि हम सामाजिक परिपाटी और परम्परा को, आधुनिकता और नए ज़माने के नाम पर, एक झटके में तोड़ दें।
हम यह भी समझते हैं कि आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में पति-पत्नी दोनों को अब कामकाजी होना होगा, दौड़-भाग करना होगा, तभी हम समाज में सर्वाइव कर पायेंगे, नहीं तो पिछड़ जायेंगे। अक्सर ऐसा देखा गया है कि एक समय बाद ऐसी स्थितियाँ-परिस्थितियाँ बनती हैं कि विकास और समद्धि के नाम पर हासिल सभी ऐश्वर्य और वैभव स्वयं को मुह चिढ़ाने लग जाते हैं और अंत्तोगत्वा आदमी को बस आत्मिक-सुख-संतोष, आंतरिक-शांति, अच्छा स्वास्थ्य तथा दो जून की रोटी की ही ज़रूरत रह जाती है, शेष सब चीजें बस यूँ हीं अर्थहीन और बेज़ान हो जाती हैं।
आज हममें से अधिकांश लोग इस मत के भी होंगे कि यदि हमें अपने जीवन में भले ही ऐश्वर्य-वैभव न मिले तो कोई रंज नहीं, जीवन चलायमान रहेगा, लेकिन यदि आपको अपनी धर्मपत्नी से उसका निश्छल एवं सहज प्रेम-साहचर्य नहीं मिल पा रहा है, आप एक-साथ उठने-बैठने का समय नहीं निकाल पा रहे हैं, आपसी मेल-मिलाप आंतरिक भाव से नहीं हो पा रहा है तो जीवन एक तरह से नर्क एवं एकाकी ही हो जाता है और आदमी हर समय स्वयं घुटता-मरता और डिप्रेश होता रहता है। यह भी एक कड़ुआ सच ही है कि जो महिला कामकाजी होगी, वह आठ घण्टे कार्यालय में खुद को झोंकेगी, बाॅस की जाने कितनी धौंस सहेगी, दो घण्टे कार्य-स्थल आने-जाने में जाया करेगी और सफ़र में जाने कितनी अल्हड़ आँखों का साबका भी झेलेगी! इतना सब कुछ सहने-झेलने के पश्चात् थकी-हारी वह पत्नी घर लौटने पर आपकी अपेक्षा पर कितनी खरी उतरेगी, वह कैसे आपकी ‘सीता’ बन सकेगी, यह अच्छी तरह से आप भी समझ सकते हैं, और हम भी?
प्रायः यह भी देखा गया है कि महिलायें यदि कामकाजी हैं तो उनके साथ बड़ी दुश्वारियां रहती हैं। वे मुकम्मल तौर पर न घर की हो पाती हैं, न घाट की; न परिवार की हो पाती है, न समाज की; न पति के प्रति समर्पित हो पाती हैं, न बच्चों के। इस प्रकार पति-पत्नी दोनों के कामकाजी होने की स्थिति में दुश्वारियां दोनों तरफ बराबर रहती हैं। बस देखना यह होता है कि कौन कितना बेहतर ताल-मेल और कौन कितना सुन्दर सामंजस्य बिठा लेता है और कौन, कितना टूट-फूट-थक-हार जाता है?
कहने को आज भले ही महिला सशक्तीकरण और महिला स्वातंत्र की बात खूब की जा रही हो, लेकिन अभी भी भारतीय समाज में एक तरह से पुरुष प्रधान समाज का ही बोलबाला है, जिसके कारण पुरुषों को अपनी पत्नी से कुछ अधिक ही अपेक्षायें रहती हैं। पुरुष यह भी चाहता है कि उसकी पत्नी उसकी अपेक्षाओं पर शत-प्रतिशत खरी उतरे और इसी अपेक्षा की पूर्ति जहाँ नहीं हो पाती है, वहीं शुरु हो जाता है आपसी मन-मुटाव, अलगाव-बिलगाव और एक-दूसरे की प्रताड़ना और आपसी आक्रामकता।
चूंकि, दुनिया और समाज बहुत तेजी से बदल रहा है, इसलिए कल स्थितियां निश्चित रूप से आज से अलग-थलग; भिन्न और परे होंगी, लेकिन ऐसा होने में कितना वक़्त लगेगा, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन कल यह समाज ‘पुरुष प्रधान समाज’ की जगह ‘महिला प्रधान समाज’ के रूप में धीरे-धीरे अवश्य ही उन्मुख होगा, इससे कदापि इंकार नहीं किया जा सकता। मेरे विचार से समाज में असली ‘साम्यवाद’ यानी समानतावाद तो तभी आयेगा, जब पुरुष नौकरी करे या महिला, कि दोनों करें, किसी पर कोई असर न पड़े। निःसंदेह यह स्थिति जब आयेगी, तब आयेगी, देखा जायेगा, लेकिन अभी तो पति-पत्नी को एक-दूसरे से ढेर सारी सामाजिक और वैवाहिक बन्धन में बंधी अपेक्षायें तो रहेंगी ही।