रुक गई थिरकन थाप की-रतन कुमार श्रीवास्तव ‘रतन’,
अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को के एक अस्पताल से सोमवार तड़के जैसे यह मनहूस ख़बर पूरी दुनिया में फैली कि तबले की थाप से दुनिया को मंत्रमुग्ध करने वाले विश्वविख्यात तबला वादक उस्ताद ज़ाकिर हुसैन साहब नहीं रहे, तब से पूरी दुनिया स्तब्ध है, सदमे में है। सच कहूँ तो तबले की वज़ह से ज़ाकिर साहब स्वयं जितना मशहूर हुए, उससे कई गुना अधिक उन्होंने तबले को दुनिया में प्रसिद्धि दिलाई।
वैसे मुस्लिम परिवारों में बच्चों के जन्म के समय उनके कान में अजान देने का रिवाज़ है, लेकिन 09 मार्च, 1951 को मुम्बई (तब के बम्बई) में प्रसिद्ध तबला वादक उस्ताद अल्ला रक्खा खां साहब को बेटे के रूप में उनके परिवार में जब ज़ाकिर का जन्म हुआ, और जब बच्चा मात्र दो दिन का ही था, पारिवारिकजनों ने बच्चे को पिता की गोद में देकर बच्चे के कान में अजान देने की गुज़ारिश की थी, लेकिन पिता अल्ला रक्खा ने बच्चे के कान में अजान न देकर, तबले के बोल पढ़े थे, जिस पर बच्चे की मां बहुत नाराज़ होते हुए अपने शौहर अल्ला रक्खा से कहा था कि -‘ये क्या है, आपको बच्चे के कान में कुरान के बोल पढ़ने चाहिए’, तब अल्ला रक्खा खां साहब ने कहा था -‘यही मेरा कुरान है, यही मेरी इबादत है।’ सचमुच उस्ताद अल्ला रक्खा खां साहब ने अपने नवजात बेटे के कानों में उस वक़्त तबले की थाप की जो आवाज़ डाली थी, वही आवा़ज़ पिछले लगभग 5-6 दशकों से पूरी दुनिया में गूंज रही है, प्रतिध्वनित हो रही है, जिसके लय, थाप और बंदिशों की पूरी दुनिया दीवानी है, मुरीद है।
ज़ाकिर साहब ने पूरी ज़िंदगी तबले की रियाज़ को ही अपनी इबादत और अपना धर्म समझा। वे तबले में एक विशेष रुह और आत्मा देखते थे। वे बार-बार कहा करते थे कि अगर आपको एक अच्छा कलाकार बनना है तो आपको अपने वाद्य से इजाजत लेनी होगी कि वह वाद्य आपको स्वीकार करे। वे अपने तबले को जीवन भर विद्या औेर वाणी की देवी सरस्वती समझते थे, और उसी के अनुरूप तबले की अर्चना-वंदना करते थे। कैरियर के शुरूआत में जब जाक़िर साहब कार्यक्रम देने के लिए पूरे हिन्दुस्तान में इधर-उधर भागा-दौड़ी किया करते थे तो ट्रेन के साधारण डिब्बे के फर्श पर वे अख़बार बिछाकर बैठ जाया करते थे, क्योंकि आर्थिक विपन्नता की वज़ह से वे रिजर्वेशन नहीं करा पाते थे, लेकिन उनके तबले को धक्का न लगे, कोई क्षति न पहुँचे, इसलिए वे अपने तबले को हरदम अपनी गोद में रखकर, उसे यात्रियों की धक्का-मुक्की से बचाने की पूरी कोशिश करते हुए सफ़र पूरा करते थे। इस तरह था ज़ाकिर साहब का अपने तबले के प्रति अर्पण-समर्पण भरा अगाध प्रेम और शिद्दत भरी आसक्ति।
सचमुच ज़ाकिर साहब ने दुनिया भर में तबला और भारतीय शास्त्रीय संगीत के लिए जो कुछ भी किया, वह वास्तव में अभूतपूर्व एवं असाधारण है। वह धरती पर सबसे ज्यादा पसंद किये जाने वाले संगीतकारों में से एक थे। संगीत-प्रतिभा के साथ-साथ उनका व्यक्तित्व भी बेहद निर्मल, निश्छल एवं बेमिसाल था। वे बेहद विनम्र और शालीन स्वभाव के धनी व्यक्ति थे। पद्मश्री, पद्म भूषण, पद्म विभूषण, संगीत नाटक अकेदमी तथा पाँच-पाँच बार ग्रैमी आवार्ड जैसे अनगिनत प्रतिष्ठित पुरस्कार जीतने वाले ज़ाकिर साहब इन पुरस्कारों से सममुच बहुत ऊपर थे। कहना अतिश्योक्ति न होगा कि ज़ाकिर साहब का साथ, सानिध्य और नाम पाकर ये सभी पुरस्कार स्वयं ही धन्य हुए।
90 के दशक में, जब मैं किशोरावस्था में था, दूरदर्शन पर ताजमहल चाय के विज्ञापन में ज़ाकिर साहब का ‘वाह ताज’ कहने के उनके खूबसूरत अंदाज ने उन्हें हिंदुस्तान के हर घर में एक विशेष पहचान दिलाई। इसी विज्ञापन में चाय की चुस्की लेते हुए तबला की जुगलबन्दी के दौरान उनकी भाव-मुद्रा ने उन्हें दुनिया भर में लोकप्रिय बना दिया था। यह सच है कि ज़ाकिर साहब जैसा फनकार और बेहतरीन इन्सान आगे की कई पीढ़ियों तक में पैदा होगा, कहना मुश्किल है।
वैसे इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति अमर होकर नहीं आया है। जो आया है, उसे एक-न-एक दिन जाना ही होता है। यही दुनिया का एक शाश्वत-सत्य है, लेकिन ज़ाकिर साहब का अकस्मात इस तरह रुख़सत होकर दुनिया से यूँ ही चले जाना हम जैसे उनके लाखों-करोड़ों प्रशंसकों को व्यथित कर रहा है, आँखें नम कर रहा है, लेकिन नियति को शायद यही मंजूर था, यही सोंच कर दिल को ढाढ़स बंधाया जा रहा है। अन्तर्मन से भी यही दुआयें निकल रही हैं कि ज़ाकिर साहब आप जहाँ और जिस दुनिया में भी गये हों, वहीं से अपनी बंदिशों और थापों से अपने प्रशंसकों को आह्लादित करते रहिये। आप हमारी यादों में हमेशा जीवित रहेंगे, आपकी थाप हर समय हमें सुनाई पड़ती रहेगी। ….अलविदा ज़ाकिर साहब।
रतन कुमार श्रीवास्तव ‘रतन’, लखनऊ
(उस्ताद ज़ाकिर हुसैन साहब का एक प्रशंसक)
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