शिक्षा का समावेशी स्वरूप – विजय गर्ग
राष्ट्रीय शिक्षा दिवस पर कई रस्मी आयोजन होते हैं, पर साथ ही यह दिन ‘राष्ट्र’, ‘शिक्षा’, और ‘राष्ट्रीय शिक्षा’ को जन विमर्श में पुनः केंद्रित करता है। कोठारी आयोग के प्रतिवेदन की पहली पंक्ति भारत के भविष्य का निर्माण कक्षाओं में हो रहा है’ सहसा सजीव हो उठती है। इक्कीसवीं सदी के भारत या भारतीय राज्य राष्ट्र के पास लगभग वही सवाल हैं, जो उन्नीसवीं सदी में पनपते आधुनिक राष्ट्रवाद की संकल्पना और दर्शन के पास थे प्रत्येक नागरिक को राष्ट्रवादी कैसे बनाया जाए और क्या यह वांछनीय है? क्या ‘स्कूलीकरण’ से राष्ट्रवाद को अनुभूत और आत्मसात कराया जा सकता है? राष्ट्र की कौन-सी अवधारणा- राजनीतिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक, आर्थिक- सांस्कृतिक पढ़ाई जाए और इनका क्रम क्या हो ? सूचना, विचारों और मनुष्यों के आवागमन की गति में आई तकनीक जनित तेजी के कारण सिमटती धरा पर कितना और कैसा कारगर राष्ट्रवाद पढ़ाया जाए ?
इस युग में अब दो संस्कृतियों के आमने-सामने होने पर तनाव, टकराव या एक-दूसरे को जीत लेने की संभावना नहीं होती, बल्कि इस साक्षात्कार से एक ‘नई’ संस्कृति, जो दोनों के समागम से पनपती है, की संभावना होती है। इन बहुत सारी ‘संस्कृतियों’ के बीच कैसे और कितना राष्ट्रवादी बना जाए या टैगोर सरीखे दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित अंतरराष्ट्रीयतावाद की शरण ली जाए। किन्हीं दो या अधिक संस्कृतियों का आमना-सामना होने पर वर्चस्व के सवाल को न पूछ कर वृहद मानव कल्याण या बेहतरी के सवाल पूछे जाएं। ऐसे समय में स्कूल की क्या भूमिका होगी, स्कूल कितनी और कैसी बहुलता और बहुसांस्कृतिक शिक्षा दे? प्राथमिक शिक्षा को प्रथम भाषा (मातृभाषा) में दिए जाने की अनिवार्यता के साथ बहुसांस्कृतिक शिक्षा से कितना परिचय कराया जाना संभव है।
बहुसांस्कृतिक शिक्षा क्यों? स्कूल ही एक ऐसी सांस्थानिक व्यवस्था है, जहां विद्यार्थी ‘अन्य’ के अस्तित्व और अवधारणा से परिचित होता है। इस ‘अन्य’ से साक्षात्कार परिवार और आस-पड़ोस से बाहर निकल कर पहली बार स्कूल में होता है। स्कूलीकरण की सार्वभौमिकता की अनुपस्थिति में यह कार्य अस्सी के दशक में ‘दूरदर्शन’ और ‘आकाशवाणी’ द्वारा विभिन्न गीतों जैसे ‘हम सभी जन एक हैं’ और ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा को बार-बार बजा कर किया जाता था। सोशल मीडिया और यूट्यूब जैसे मंच हमें एक दूसरी दुनिया से परिचित तो करा दे रहे हैं, पर इस दूसरे के प्रति सद्भाव और सम्मान सिखाने में चूक जाते हैं। फिर, इन मंचों पर उपलब्ध सूचना कभी ज्ञान या वैध ज्ञान की संज्ञा नहीं प्राप्त करता, बल्कि मात्र लोकरंजन का माध्यम ही बना रहता है।
भारत जैसे बहु-भाषी, बहुधर्मी बहुसांस्कृतिक राष्ट्र में स्कूलीकरण के प्रश्न उस समय और जटिल हो जाते हैं, जब शिक्षा ‘समवर्ती सूची में वर्णित है। गाहे-बगाहे भारत में एक शिक्षा, एक परीक्षा, एक पाठ्यक्रम, एक मूल्यांकन की मांग उठती है, जो कथित राष्ट्रव्यापी ‘समता और समानता’ स्थापित करने के उद्देश्य से निर्देशित होती है। पर ‘एक’ जैसे ज्ञान से पनपने वाली एकरूपता बड़ी भयावह होगी। भिन्नता भिन्न मति होना ही ‘ज्ञान’ का आवश्यक चरित्र है। तटीय क्षेत्रों में पनपने वाले ‘ज्ञान’, मैदानी या पर्वतीय ज्ञान से भिन्न होगा। भाषाई, धार्मिक, जातीय, लैंगिक, यौनिकता के आधार पर विभाजित लोगों द्वारा निर्मित ज्ञान उनके देश-काल से प्रभावित होगा। इन भिन्न लोगों द्वारा भिन्नतर प्रस्थान बिंदु से जनित ज्ञान को जानना और उसे पूर्वाग्रह मुक्त स्वरूप से परखना और अपनाना ही बहुसांस्कृतिक शिक्षा है। बहुसांस्कृतिक शिक्षा न केवल सीमा विहीन धरती की उम्मीद जगाती है, बल्कि शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व और सह-जीवन के उत्सव को भी निर्मित करने की संभावना रखती है। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ में प्रत्येक मनुष्य को भागीदार मानने के लिए और ‘संगच्छध्वम संवदध्वम’ को साकार करने के लिए भी बहुसांस्कृतिक शिक्षा और स्कूलीकरण अपरिहार्य है। आधुनिक औद्योगिक समाज के लिए बहुलता एक अनिवार्यता है। बहु-राष्ट्रीय कंपनियों के युग में बहु सांस्कृतिकता ही एकमात्र विकल्प है, उत्तर-आधुनिक युग में राष्ट्रों के बीच युद्ध जमीन के लिए न होकर, सूचना के लिए होगा। इस युग में ईस्ट इंडिया कंपनी सरीखी विस्तारवादी नीति की अपेक्षा सह-अस्तित्व और सबके विकास के लिए बहुसांस्कृतिक समाज और शिक्षा अपरिहार्य है।
समावेशी शिक्षा या सीखने के सार्वभौमिक स्वरूप के तमाम दर्शन और नारे बहुलता और बहुसांस्कृतिकता को समाहित किए बिना अधूरे ही रह जाएंगे। मनुष्य ने सभ्यता के विकास के क्रम में ‘विविधता’ की संकल्पना को एकरूपता या समरूपता की अवधारणा से पहले विकसित किया होगा। कबीला, समूह, धर्म, जाति आदि समाजशास्त्रीय संकल्पनाओं के संस्थानीकरण की प्रक्रिया में ‘विविधता’ तिरोहित हुई होगी। एक जैसी शक्ल-सूरत, खान-पान और प्रार्थना की शैली में ‘सामूहिकता’ का भाव विकसित किया होगा और इन सबसे इतर ने ‘अन्य’ की संज्ञा पाई होगी। ‘अन्य’ ने इस समूह की सदस्यता नहीं ली, बल्कि चुनौती दी होगी स्वायतत्ता और स्वतंत्रता की मूलभूत अवधारणाओं ने परस्पर निर्भरता’ को खारिज किया होगा। कालांतर में उद्योगीकरण, औपनिवेशीकरण, नवउदारीकरण और भूमंडलीकरण ने पूरे विश्व को केवल वाणिज्य नहीं, वैचारिकी और संस्कृति के स्तर पर भी एकीकृत किया। इसी संदर्भ में बहु सांस्कृतिक समाजों की स्थापना हुई। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में संस्कृति और साझी ऐतिहासिकता का सूत्र ही इस देश को राष्ट्र बनाता है। बहुसांस्कृतिक समाज की निर्मिति में कोस- कोस पर पानी और चार कोस पर बानी और 140 करोड़ लोगों की संख्या में ‘एका’ के भाव के लिए ‘बहु-सांस्कृतिकता’ स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। स्कूली पाठ्यपुस्तकों से लेकर शिक्षण और मूल्यांकन तक की प्रक्रियाओं में इस विविधता को शामिल करना होगा। कुछ संस्कृतियों की संख्या के आधार पर ‘वर्चस्व’ और बहुमतवाद स्थापित करने की ललक को रोकना होगा। आधुनिकीकरण और प्रगतिशीलता के सहारे प्रस्फुटित होने वाले वर्चस्व और अनुक्रम को भी रोकना होगा। कुछ ऐसा ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दोहराने पर प्रथम, द्वितीय और तृतीय दुनिया में बंटा यह विश्व ‘वसुधा’ का एक कुटुंब बन पाएगा। राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे प्रयास उत्तर-दक्षिण, पूर्वोत्तर, जनजातीय जातीय और विकसित अविकसित जैसे श्रेणीकरण को भोथरा कर हमें पूर्वाग्रह मुक्त भारतीय बना पाएंगे और अंततः धरावासी भी।
बहुसांस्कृतिकता केवल भिन्न संस्कृतियों का ‘फ्यूजन’ न होकर एक नई संस्कृति के निर्माण का प्रयास है। फ्यूजन मात्र शहनाई और गिटार की युगलबंदी न होकर एक नया संगीत है, जिसमें दोनों का यंत्र आपसी वर्चस्व की होड़ न कर एक-दूसरे के पूरक बनने की जुगलबंदी करते हैं। इसी ‘फ्यूजन’ में आने वाली बाईसवीं और अन्य सदियों का गर्भ है। नितांत व्यक्तिकता, वर्चस्व और श्रेष्ठता का बोध इसके गर्भपात और मानव संस्कृति और मानवता को अंतहीन युद्ध में धकेल सकता है। राष्ट्रीय शिक्षा दिवस पर हम सबका ‘एक’ होना, घुलना-मिलना, और श्याम श्वेत की तरह सबको समाहित कर लेना ही बहु- सांस्कृतिक शिक्षा और समाज की बुनियाद रखेगा।
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