मायावी दुनिया (Breaking news express )
शाम का वक़्त, धीमी नोट का संगीत और खिड़की के बाहर से आती मंद मलय समीर। ऐसे ख़ुशनुमा वक़्त में सबसे ज्यादा किसकी चाह होगी ? जी हाँ जनाब ! चाय की। तो आ ही गई हाथ में एक कप चाय। तभी अचानक
“ओह्ह ! फिर डूब गया।”
घबराइये नहीं, ये डूबा कोई और नहीं, मेरा प्रिय पारले जी है। बस इतना ही अन्तर आया है कि बचपन में हम पारले जी दूध में डुबो कर खाते थे और आज चाय में। 5-6 वर्ष की अवस्था में जब भी कोई मेहमान घर आता तो उसके हाथ में पारले जी के पैकेट पर बनी प्यारी सी बच्ची की तस्वीर देखकर झट से पहचान जाती कि ये मेरा है और ले लेती। भले ही आज स्वादिष्ट कुकीज ने मार्केट में अपनी जगह बना ली हो, लेकिन पारले जी की बात ही कुछ और है जिसे हम अपने बचपन से लेकर अब तक खाते आ रहे हैं।
पारले जी बिस्किट के रैपर पर बनी प्यारी सी बच्ची की तस्वीर दिलों-दिमाग़ पर इस कदर छायी हुई है कि जब हम अक्षर भी नहीं पहचान पाते थे तब भी रैपर पर बनी प्यारी सी बच्ची को देखकर जान जाते थे कि ये पारले जी बिस्किट है। इसे विज्ञापन की दुनिया का कमाल कहना चाहिए जो इस तरह जनमानस में अपनी गहरी पैठ बनाए हुए है। वैसे इस प्यारी सी बच्ची की तस्वीर को लेकर हमेशा तीन महिलाओं के नाम सामने आते रहे हैं। और मीडिया में जब इस तरह की खबरें फैली तो मजबूरन पारले के प्रोडक्ट मैनेजर को सामने आना पड़ा। उन्होंने साफ तौर पर कह दिया कि पैकेट पर दिखने वाली बच्ची की तस्वीर का वास्ता किसी से नहीं है। यह एक काल्पनिक प्रतिकृति है।
चौहान परिवार के अनुसार पारले बिस्किट को बनाने का आइडिया अंग्रेजों को देखकर आया। मुंबई के विले पारले इलाके में रहने वाले चौहान परिवार ने साल 1929 में इस कंपनी की शुरूआत की थी। उन दिनों कंपनी में केवल केक, पेस्ट्री और कुकीज बनाए जाते थे। साल 1939 में कंपनी ने बिस्किट बनाना शुरू कर दिया क्योंकि उस जमाने में अंग्रेजी कंपनियों के बिस्किट की बिक्री बाजार में खूब थी। पर इसके मुकाबले सस्ता और टेस्टी होने की वजह से पारले जी लोगों की पहली पसंद बन गई। और आज इतने वर्षों बाद भी भारत में बड़े पैमाने पर बड़े-बूढ़ों-बच्चों की यह पहली पसंद है।
सुबह-सवेरे रसोईघर में सिंकते ब्रेड और अटरली-बटरली बटर की महक से उठने वाला जायका ही हमारी कुंभकर्णी नींद तोड़ता है। देखिए न लिखते-लिखते ही जी ललचा गया। ऐसा क्या सिर्फ़ हमारे साथ ही हुआ ? जी नहीं, ये स्वाद…ये महक हर घर का किस्सा हो गया। तो ये दूसरी प्यारी सी बच्ची, जो घर-घर में सभी के दिलों-दिमाग़ पर अपनी जगह बना ले गई, वो थी, अटरली-बटरली वाली ‘अमूल गर्ल’। अमूल उत्पाद के इस कैंपेन के विज्ञापन में दिखाई देने वाली आइकन की कहानी शुरू होती है 1966 से, जब डॉ. वर्गीस कुरियन ने भारत को दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक बना दिया। वे अमूल डेयरी सहकारी समिति द्वारा बनाए गए अमूल मक्खन के लिए एक विज्ञापन अभियान की तलाश में थे। इस सन्दर्भ में उन्होंने सिल्वेस्टर दा कुन्हा के नेतृत्व में मुंबई में दाकुन्हा कम्युनिकेशंस को काम दिया। पर समस्या ये थी कि उस समय भारत में टीवी और पत्रिकाओं में विज्ञापन करना बेहद महंगा था, इसलिए एजेंसी ने होर्डिंग लगाने का फैसला किया। और इस होर्डिंग में लाल पोल्का-डॉट ड्रेस में एक नीले बालों वाली, बड़ी-बड़ी आँखो वाली, मैचिंग रिबन और लाल जूते वाली ‘अमूल गर्ल’ को प्रदर्शित गया, जो देश की सबसे प्रसिद्ध विज्ञापन चरित्र बन गई।
सिल्वेस्टर डाकुन्हा अमूल के मैस्कॉट को बच्चों और महिलाओं पर केंद्रित करना चाहते थे इसलिए उन्होंने अपनी पत्नी निशा के साथ मिलकर इसे ‘अटरली – बटरली’ कैंपन के आइडिया को शक्ल दी। यह कैंपेन पूरे भारत में हिट साबित हुआ। निशा दा कुन्हा द्वारा गढ़ा गया यह आनंददायक चुलबुला सा वाक्यांश आज सबकी जुबां पर है। अमूल गर्ल और यह टैगलाइन देखते ही बच्चे भी ब्रांड ‘अमूल’ को पहचान जाते हैं। आज ‘पारले गर्ल’ और ‘अमूल गर्ल’ भारत के हर घर की प्यारी सी जानी-मानी सदस्या हैं।
एक और प्यारी सी मुस्कान वाली बच्ची याद आ रही है ‘आई लव यू रसना’ कहने वाली तरुणी। रसना के एड में चुलबुली मुस्कान के साथ ‘आई लव यू रसना’ कहने वाली तरुणी अपने समय की सबसे महंगी बाल कलाकर बन गई थी और 90 के दशक में बच्चों-बच्चों के जुबां पर चढ़ गई थी। इस एड और इसके टैगलाइन की ख़ासियत ने पहली बार बच्चों को रसोईघर में पहुँचा दिया। अब बच्चे बिना मम्मी की सहायता से खुद रसना बना लेते थे। इसी दशक में फ्रॉक पहने नृत्य मुद्रा में खड़ी ‘निरमा गर्ल’ को कौन भुला सकता है क्यूँकि वो तो सबकी पसंद बन गई थी। निरमा का निर्माण करने वाले करसन भाई पटेल ने अपनी दिवगंत पुत्री “निरुपमा” के नाम पर अपने ब्राण्ड का नाम “निरमा” रखा था। निरमा को घर-घर तक पहुँचाने तथा इसे सफल बनाने में सबसे बड़ा हाथ इसके विज्ञापन और इसके स्लोगन “सबकी पसंद निरमा” का ही है।
90 के दशक को गोल्डन एरा कहा जा सकता है। ये वो दशक था जिसमें बहुत सारे बदलाव हमने देखे और इस दौरान ना जाने कितनी ऐसी चीजें हुई जिसने पूरी दुनिया को ही बदल दिया। हर घर में रंगीन टीवी, कॉर्डलेस, मोबाइल, कंप्यूटर आदि की क्रांति की शुरुआत इसी समय से हुई थी। इस दौर में भारत तरक्की कर रहा था और ना जाने कितनी नई कंपनियां शुरू हुई थीं और तरह- तरह के एड। यही वो दौर था जिसमें बाजा़र ने घरों में घुसना शुरू कर दिया। “यही है राइट चॉइस बेबी, अ-हा” 1992 में सबसे यादगार विज्ञापन बन गया था। यह एक तरह से पश्चिमी और भारतीय प्रभाव का मिश्रण था , हालांकि यह अंतरराष्ट्रीय था। मेलोडी इतनी चॉकलेटी क्यों है?’ ये सवाल बचपन में शायद आपने भी पूछा हो। 1994 में आए इस विज्ञापन ने धूम मचा दी थी।
वो गीत तो सभी को याद होगा जिसे दूरदर्शन का टैग लाइन कहना गलत न होगा —“मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा”। इस गीत को लिखने वाले पीयूष पांडे विज्ञापन की दुनिया में जाना माना नाम हैं। ‘चल मेरी लूना’ विज्ञापन से पीयूष को पहला बड़ा ब्रेक मिला और फिर इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1980 के दशक के मध्य में, पुणे में काइनेटिक ग्रुप का लूना मोपेड एक प्रसिद्ध ब्रांड था – एक कम लागत वाला दोपहिया वाहन। और घर से निकलते ही सबकी जुबां पर चढ़ा हुआ स्लोगन ‘चल मेरी लूना।’ जब यह विज्ञापन टीवी पर आया, तब उनके पास अपना टीवी भी नहीं था। उसे उन्होंने पड़ोसी के टीवी पर देखा। पीयूष को फेविकोल के ‘दम लगाके हइशा’ वाले विज्ञापन के लिए जितनी तारीफ मिली, उतनी दुनिया में किसी को नहीं मिली।
विज्ञापन दरअसल लोगों से संपर्क करने और उन तक सूचना पहुंचाने का माध्यम हैं। विज्ञापन सरल, सहज और सीधी-सादी भाषा के जरिये ही अपने संदेश को ज्यादा लोगों तक पहुंचा सकते हैं। विज्ञापन विक्रय कला का एक नियंत्रित जनसंचार माध्यम है जिसके द्वारा उपभोक्ता को दिखाई देने वाले एवं सुनाई देने वाली सूचना इस उद्देश्य से प्रदान की जाती है कि वह विज्ञापनकर्ता (विज्ञापन करने वाले) की इच्छा से विचार सहमति, कार्य अथवा व्यवहार करने लगे। विज्ञापन अपनी छोटी-सी संरचना में बहुत कुछ समाए होते है। इस मायावी दुनिया की माया कुछ इस तरह है कि खुद को भूल जाएं पर विज्ञापन न भुला पाएं।