– मुकेश पोपली/BREAKING NEWS EXPRESS
लेखक राम नगीना मौर्य गधे विधा के वाहक बनते जा रहे हैं और सभी गधे प्रेमी उनके पिछलग्गू। क्या हुआ, आपका मुंह क्यों सूज गया? ऐसा लग रहा है जैसे किसी ने आपके दाँत तोड़ने की कोशिश की हो। ज़रा हमें उसका नाम तो बताओ, हम उसका चूरा बना देंगे और चाय में घोलकर पी जाएंगे। क्या कह रहे हैं? आप भी चाय के शौकीन हैं। अरे! तो पहले बताना था, अब हमें एक ठौ चाय और बनानी पड़ेगी। दरअसल, इस चाय में तो मेरी पत्नी ने मेरी ही अंगुली डाल कर मुझे नींद से जगा दिया था। नहीं-नहीं, मुझे बुरा नहीं लगा, अरे भई अबहीं तो शादी को कुछ महीने हुए हैं, बाद की बाद में देखेंगे। अरे हाँ, आप कुछ कहना चाह रहे थे। अरे कहाँ…? व्याकरण, भाषा, ललित कला, संगीत कला और तो और गप मारने की कला भी हमें खूब आती है। अब हम गप ही तो मार रहे थे। क्या कहा, आप गंभीर हैं? तो सुनिए यह जो ऊपर हमने गधे लिखा है न, हमारे गाँव भर में सब लोग गद्य को गधे बोलते हैं, अब आपको मिर्ची लगी तो मैं क्या करूँ? वो क्या है कि मेरे बेटे की कंपनी का नाम ‘हाई लेवल’ है, इसलिए जो भी मीटिंग होती है उसे हम ‘हाई लेवल मीटिंग’ कहते हैं। आप मीटिंग का मतलब समझते होते तो हमें छुट्टी वाले दिन मिलने थोड़े ही ना आते। जी हाँ! यही ‘ठलुआ चिन्तन’ का सार है। पहले गुदगुदी करता है, फिर खुद ही खिलखिलाता है और फिर कहता है कि हँसना स्वास्थ्य लिए बेहद लाभदायक है।
हँसना सब चाहते हैं लेकिन दूसरे पर। अरे! अपने आप पर हँसो तो कोई बात बने। क्या कहा, आपको हँसना नहीं आता! मुस्कुराहट भी नहीं आती!! कभी-कभी पतली सी लकीर भी नहीं उभरती!!! हाँ- हाँ, मूछों के नीचे। अब हुई न बात, अब मैं कैमरा काम में लेता हूँ और आपकी एक शानदार तस्वीर उतारता हूँ। वो क्या है…हमारे पिताजी ने तो हमें बचपन में ही पूरी दुनिया की सैर करा दी थी। आप भी सैर करने की इच्छा रखते हैं तो निकालो पाँच सौ रुपए। अरे वाह! आप तो बहुत इच्छुक हैं, कहते ही हमें एक हज़ार रूपये दे दिए तो यह लो, हम भी कम नहीं हैं। हमने भी जल्दी से अपने थैले से ‘ग्लोब’ निकाला और उनके हाथों में थमाकर ऐसे भागे जैसे गधे के सिर से सींग।
हमारी तस्वीर तो हमारी बीवी उतार देती हैं और उन्हें हमारा बेटा पूरा सहयोग करता है। अब क्या करें, एक ठौ बीवी ही तो है हमारी, हम राजा थोड़े ही ना हैं, जिनकी तीन-तीन रानियाँ थी। बेचारे जल्दी सिधार गए। ‘क़हत, नटत, रीझत….’ अरे पूरा तो करने दो। अगर आप बिहारी को नहीं पढ़ना चाहते हैं तो आपकी इच्छा। हम तो अभी छुट्टी के मूड में भी हैं, और मेहमान हो या बीमारी किसी को कहकर नहीं आते। वो बात अलग है कि कभी-कभी टाइलीपैथी भी हो जाती है। उधर वो साला पीएस समझ रहा था कि हम छुट्टी लेकर…”आके तेरी बाहों में…ये शाम लगे सिंदूरी…” जैसा गीत गाने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि यहाँ साढू साहब की सेवा करनी पड़ रही है।
आप भी सैलून तो जाते ही होंगे, बिलकुल जाते होंगे, क्योंकि आप हिप्पियों जैसे तो साल-छह महीने ही रहे होंगे। अब तो एक से बढ़कर एक सैलून हैं। अंदर तो आप गए मैक मोहन जैसे और बाहर आए तो आप राज बब्बर बन गए। ‘ठलुआ चिन्तन’ वाली दूकान में भी यह सब होता है, लेकिन ऐसी जगह गप्पिस्तान भी बन जाता है। आपके घर के गंदे कोने से लेकर नेताओं की गंदी आदतों तक, मुहल्ले की नायाब चीज़ से लेकर परदे पर जलवे बिखेरने वाली पटाखा तक के चर्चे। सामाजिक और आर्थिक समस्याएं, अधिकारियों की मिली भगत के कारण अवैध कब्जे हो जाना और फिर किसी को खुश करने के लिए उन्हें हटाना, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और ऐसी अनेक चिंताओं का जिक्र आप यहाँ बैठकर कर सकते हैं। अरे! आप कहाँ खो गए, कहीं आपका नंबर न निकल जाए।
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दिमागी कसरत’ में पुराने रास्ते और पुराने साथियों की यादें ताज़ा की गई हैं, वरना आज की सोशल दुनिया में आपको याद कौन करता है। मित्र बने पाँच हज़ार, तीन हज़ार तो फर्जी, एक हज़ार सिर्फ हैप्पी बर्थडे, आठ सौ तो अपनी उपलब्धियों को ही गिनाते रहते हैं। भला दोस्ती करें तो किससे? फिर भी कभी-कभी अपने पुराने मुहल्ले की सैर अवश्य कर लेनी चाहिए, ताकि समाज की प्रगति और दुर्गति दोनों से दो-चार हुआ जा सके।
‘गुरु-मंत्र’ में बहानेबाजी और तिकड़म की यात्रा है। सुख भी है दुख भी। एहसान भी है और अपमान भी। चमचागिरी भी है तो झूठ को सच की तरह कहने की कला भी। कहा भी तो जाता है कि जो कोई और न कर सके वह गुरु-मंत्र की सहायता से कोई भी कर सकता है। ‘नो वर्क नो रिस्क’ भी एक गुरु-मंत्र ही है। बॉस की हाँ में हाँ मिलानी है। अकबर और बीरबल के बीच इसीलिए तो मधुर रिश्ते रहे थे।
‘उसकी तैयारियां’ में पति-पत्नी और बच्चों की बातें हैं और यह आपके घर में भी होता है। वो बात अलग है कि यह आज तक कोई साबित नहीं कर पाया कि जब कहीं जाना हो तो देर पति करे चाहे पत्नी, दोषी पति ही क्यों कहलाता है। घर के काम-काज में सहयोग की भावना, चीजों को इधर-उधर रख देना और फिर दीया लेकर ढूँढ़ते रहना, शिकवे-शिकायत, दोस्तों-सहेलियों और रिश्तेदारों की कहानियाँ कहना ही तो मध्यवर्ग की शान है। हम पैसेवाले थोड़े ही ना हैं जो हर बात पर सौ रुपए की बात के दौ सौ रुपए वसूल कर लेते हैं।
‘मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ’ में लेखक है, उसकी किताब है, और किताब के शीर्षक को लेकर बहसबाजी है, लेकिन इसी बहस में लेखकों की पोल-पट्टी खोली गई है। साथ ही गोष्ठियों, सेमिनारों के बहाने मंचस्थ साहित्यकारों पर भी तंज़ कसे गए हैं, और साहित्यिक समाज में बन रहे गैंग और उनके स्वार्थ भी अछूते नहीं रहे हैं।
राम नगीना मौर्य की अब तक प्रकाशित पुस्तकों में जिस तरह स्थानीय भाषा के शब्द पढ़ने को मिले हैं, इस पुस्तक में भी स्थानीय भाषा और बोली जाने वाली शैली को हम पाते हैं। ठेठ गाँव के भी बहुत से शब्द इस संग्रह में हैं। इन शब्दों के सहारे गद्य लिख लेना वास्तव में एक बहुत बड़ा कार्य है और इन्हें पढ़ते समय यह कहीं भी अखरते नहीं हैं, बल्कि ऐसा लगता है कि पाठक इन्हीं स्थानीय लोगों के बीच बैठा है। दफ्तरों का माहौल पूरा का पूरा इन आलेखों में हैं और अदने-बदने कर्मचारियों के काम करने की स्टाइल का रोचक वर्णन पुस्तक में दिखाई पड़ रहा है।
कुल मिलकर यह गद्य संग्रह ‘ठलुआ चिन्तन’ अपने शीर्षक को सार्थक करता है। आखिर रम्य, हास्य, व्यंग्य रचनाओं को रचने के लिए हमें अपने आस-पास का वातावरण अवश्य खंगाल लेना चाहिए, इस पुस्तक से यही सीख भी मिलती है। देशज शब्दों, वाक्यों, संवादों, मुहावरों, कहावतों और यथार्थवादी दृष्टिकोण आदि के माध्यम से लेखक पाठक को बांधे रखने में सफल रहा है, और इसके लिए उन्हें साधुवाद तो बनता ही है।
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