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सुबह का समय था। त्रिपुरा के एक जिला मजिस्ट्रेट के बंगले के प्रांगण में चौदह-पन्द्रह वर्ष की दो बालिकाएं एक गाड़ी से पहुंची। साड़ी पहने हुए इन किशोरियों ने संभवतः सर्दी से बचने के लिए ऊपर रेशमी वस्त्र ओढ़ रखा था। गाड़ी वाला इनको उतार कर तत्काल चला गया। इन लड़कियों ने मिलने के पर्ची भेजी । पर्ची पर दोनों ने इला सेन और मीरा देवी नाम लिखा था। इला ने अपना परिचय एक पुलिस अफसर की बेटी के रूप में दिया था ताकि ‘मैजेस्टी’ की सहानुभूति उसे मिल जाए। लड़कियां बड़ी उत्सुकता से स्वीकृति पत्र हेतु मुलाकात के लिए प्रतीक्षा कर रही थीं। इसके लिए उन्होंने स्टीवन से उस पत्र पर हस्ताक्षर करने का अनुरोध किया था। वह अपने चेंबर में गया और जल्दी ही हस्ताक्षर किए कागज़ ले कर लौट आया। इसके बाद अचानक मजिस्ट्रेट का घर गोलियों की आवाज़ से गूंज उठा। गोली की आवाज सुनकर आनन-फानन में वहां बंगले पर तैनात सुरक्षाकर्मी और कर्मचारी एकत्र हो गए। वे सभी देख कर अचंभित थे कि दो सुकुमार सी दिखने वाली बच्चियां मजिस्ट्रेट के सीने में गोलियां उतार चुकी थी। दोनों ने भागने की कोई चेष्टा नहीं की थी। परिणामस्वरूप उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।जब अदालत में मुकदमा शुरू हुआ तो उन्हें देखकर सब हतप्रभ रह गए। वे मुस्कुरा रही थीं। जब उन्हें बैठने के लिए कुर्सी देने से इन्कार किया गया तो वे जज और कोर्ट के अन्य सदस्यों की ओर पीठ करके खड़ी हो गईं। उन्होंने किसी भी ऐसे इंसान को सम्मान देने से मना कर दिया, जो शिष्टाचार के सामान्य नियमों का भी पालन नहीं कर सकता था।जब स्टीवन के एस•डी•ओ सेन गवाह के रूप में कोर्ट में आए और बनावटी कहानी गढ़ने लगे, तब इन्होंने इतनी ज़ोर से ‘बड़ा झूठा! बड़ा झूठा!’ बोलना शुरू कर दिया कि पूरे कोर्ट रूम में हलचल मच गई। दोनों के मन में कोर्ट को लेकर कोई भय नहीं था। दोनों पुलिस वैन से कोर्ट रूम तक जाते समय और फिर वापसी में देशभक्ति की गीत गातीं और उन लोगों को देख कर मुस्कुराती थीं। कोर्ट ने दोनों को आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी गई थी। इस पर दोनों दुखी हुईं कि इन्हें देश के लिए सर्वोच्च बलिदान होने से रोक लिया गया था। दाेनों ने चिल्ला कर कहा था कि – “फांसी मिलनी चाहिए थी! फांसी इससे कई गुना बेहतर होती!” ये दोनों वीरांगनाएं थी सुनीति चौधरी और शांति घोष। इन दोनों बालिकाओं ने ये अकस्मात नहीं किया था।
सुनीति और शांति फैजुन्निसा बालिका उच्च विद्यालय त्रिपुरा में पढ़ती थी । उनकी सीनियर प्रफुल्ल नलिनी ब्रह्मा ने उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित किताबों को पढ़ने की न सिर्फ सलाह दी, बल्कि उन किताबों को सुनीति तक पहुँचाया भी। “Life is a sacrifice for the Motherland” (जीवन अपनी मातृभूमि के लिए त्याग का नाम है) – स्वामी विवेकानंद के इन शब्दों ने देश के लिए कुछ करने के इनके विचारों को और भी मजबूती दी। आखिरकार, उस समय के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों में से एक बिरेन भट्टाचारजी ने गुप्त रूप से लड़कियों का साक्षात्कार लिया और इन तीनों लड़कियों के साहस का लोहा माना। इन लड़कियों की ट्रेनिंग त्रिपुरा छात्र संघ के अध्यक्ष अखिल चन्द्र नंदी की देख-रेख में शुरू हुई। ये स्कूल छोड़ शहर से दूर मयनमती पहाड़ी पर गोलियां चलाने का अभ्यास करने लगीं। उनकी वास्तविक चुनौती लक्ष्य को भेदना नहीं, बल्कि रिवॉल्वर के बैक किक को संभालना था। सुनीति की उंगली ट्रिगर तक पहुँच नहीं पाती थी, पर ये हार मानने को तैयार नहीं थीं। ये बेल्जियन रिवॉल्वर से शॉट मारने के लिए अपनी मध्यमा उंगली का इस्तेमाल करने लगीं। इसी बीच, ‘युगांतर’ पार्टी से जुड़ी महिला विंग में युवतियों को क्रांतिकारी कार्यों के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा था। इन कार्यों में प्रमुख था क्रांतिकारियों को सूचना, कागजात, हथियार और पैसे पहुँचाना। यह ज़िम्मेदारी सबसे बहादुर और चालाक युवतियों को दी जाती थी। उल्लेखनीय है कि लड़कियों को लड़कों के बराबर ज़िम्मेदारी दिए जाने की मांग प्रफुल्ल नलिनी, शांतिसुधा घोष और सुनीति चौधरी ने उठाई थी। जब कुछ वरिष्ठ नेताओं ने इन लड़कियों की क्षमता पर संदेह जताया, तो सुनीति ने इसका विरोध करते हुए कहा, ‘हमारे खंजर और लाठी के खेल का क्या मतलब, अगर हमें वास्तविक लड़ाई में भाग लेने का मौका ही नहीं मिले?’एक बार प्रफुल्ल नलिनी ने सुभाष चंद्र बोस से क्रांतिकारी आंदोलन में महिलाओं की भूमिका पर उनके विचारों के बारे में पूछा। बोस ने तुरंत जवाब दिया, ‘मैं आपको आगे की श्रेणी में देखना चाहूँगा।’ ये किशोरियां भारत मां की वीर सुपुत्रियां थी। अंग्रेजों के अत्याचार, क्रांतिवीरों के बलिदान,सुभाषचंद्र बोस के आह्वान इनको आन्दोलित कर रहे थे। सत्याग्रह को कुचलने के लिए हर संभव प्रयास करने वाला ज़िला मैजिस्ट्रेट चार्ल्स जेफ्री बकलैंड स्टीवन इनका निशाना बना। उसने सत्याग्रह को दबाने के लिए सारे प्रमुख नेताओं को जेल में बंद कर दिया था। उसका जवाब देने के लिए कुछ करना ज़रूरी था और शांति व सुनीति यही करने वाली थीं। उन्होंने अवसर मिलते ही मजिस्ट्रेट को मार दिया। इन दोनों को सजा हुई।
शांति को जेल में दूसरी श्रेणी के अन्य क्रांतिकारियों के साथ रखा गया, जबकि सुनीति चौधरी को तीसरी श्रेणी में भेज दिया गया, जहां चोर और जेबकतरों को रखा जाता था। वह पुलिस द्वारा अपने माता-पिता पर हो रहे अत्याचारों और अपने बड़े भाई की गिरफ्तरी की खबर को सुनकर भी रोज़मर्रा के काम में व्यस्त रहतीं। अपने छोटे भाई की भूख और बीमारी से मरने की खबर भी सुनीति को तोड़ नहीं पाई। यह यातनाएं आखिरकार छह दिसंबर,1939 को समाप्त हुई। आम माफ़ी की वार्ता के बाद इनको रिहा कर दिया गया था। तब तक सुनीति 22 वर्ष की हो चुकी थीं। क्रांतिकारी गतिविधियों में लिप्त रहने के कारण उन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा भी नहीं ली थी। सुनीति चौधरी और शांति घोष ने छूटने के बाद अपनी पढ़ाई पर ध्यान दिया ।जेल से मुक्ति के बाद सुनीति ने पूरे ज़ोर-शोर से पढ़ाई शुरू कर दी और आशुतोष कॉलेज से प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स (आई. एससी) प्रथम श्रेणी से पास किया। साल 1944 में इन्होंने मेडिसिन एंड सर्जरी में डिग्री के लिए कैम्पबेल मेडिकल स्कूल में दाखिला लिया। एमबी (आधुनिक एमबीबीएस) करने के बाद इन्होंने आंदोलन के एक सक्रिय कार्यकर्ता और भूतपूर्व राजनैतिक कैदी प्रद्योत कुमार घोष से विवाह कर लिया ।सुनीति का दयालु और समर्पण भरा स्वभाव उनके डॉक्टरी के पेशे के लिए अनुकूल था। जल्द ही वे चंदननगर की एक प्रतिष्ठित डॉक्टर बन गईं। लोग उन्हे प्यार से ‘लेडी मां’ बुलाने लगे।1951-52 के आम चुनावों में डॉ. सुनीति घोष को कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से चुनाव लड़ने की पेशकश की गई। राजनीति में दिलचस्पी नहीं होने के कारण इन्होंने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। 12 जनवरी 1988 को उनका निधन हो गया।
शांति घोष का जन्म 22 नवंबर 1916 को बंगाल के कलकत्ता (अब कोलकाता) में हुआ था। शांति के पिता देबेंद्रनाथ घोष कोमिला के विक्टोरिया कालेज में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर थे। मातृभूमि के लिए समर्पण की भावना शांति में घर से ही जागृत हुई। प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही होने के बाद उनका दाखिला फैजुन्निसा गर्ल्स स्कूल में कराया गया। वहीं उनकी मुलाकात प्रफुल्ल नलिनी ब्रह्मा से हुई। कम उम्र में ही शांति घोष ने छात्र राजनीति में कदम रखा। वर्ष 1931 में वह गर्ल्स स्टूडेंट्स एसोसिएशन की संस्थापक सदस्य होने के साथ-साथ सचिव भी निर्वाचित हुईं। प्रफुल्ल नलिनी ब्रह्मा के जरिए ही वह युगांतर पार्टी से जुड़ीं। यह सिर्फ नाम की पार्टी थी, लेकिन इसका मूल उदेश्य तो क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देना था। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के कथन- हे माताओं! नारीत्व की रक्षा के लिए, तुम हथियार उठाओ…। नेताजी के इन कथनों ने तरुणी शांति घोष को क्रांतिकारी बनने के लिए प्रेरित किया। युगांतर पार्टी में सम्मिलित होने के पश्चात शांति ने तलवारबाजी और लाठी चलाने के साथ ही अन्य शस्त्रों का प्रशिक्षण भी प्राप्त किया। प्रशिक्षण पूरा होने के पश्चात उनका चयन एक विशेष अभियान के लिए किया गया। इसमें उनकी सहपाठी रहीं सुनीति चौधरी को सहयोगी के रूप में सम्मिलित किया गया। यह पहला मौका था जब किसी महिला को क्रांतिकारी गतिविधि को अंजाम देने के लिए प्रत्यक्ष रूप से कार्य करने के लिए चुना गया। इससे पहले युगांतर पार्टी में महिलाएं पर्दे के पीछे रहकर ही क्रांतिकारियों की सहायता किया करती थीं। पहली बार यह तय किया गया कि महिलाएं पर्दे के पीछे से निकलकर सामने से अंग्रेजों का मुकाबला करेंगी। इनका मिशन था 23 मार्च 1931 को फांसी पर चढऩे वाले भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान का प्रतिशोध लेना। 14 दिसंबर 1931 को ये दोनों युवा वीरांगनाएं तैराकी क्लब चलाने की अनुमति लेने के बहाने कोमिला ( अब बांग्लादेश में) के जिला मजिस्ट्रेट चार्ल्स जेफरी बकलैंड स्टीवंस के कार्यालय पहुंचीं और जैसे ही मजिस्ट्रेट से सामना हुआ, दोनों ने उसे कैंडी और चाकलेट दी। मजिस्ट्रेट ने कैंडी खाकर कहा, बहुत स्वादिष्ट है। इसके बाद दोनों महिला क्रांतिकारियों ने तपाक से शाल के नीचे छिपा हथियार तानकर कहा- ‘अच्छा! अब ये कैसा है मिस्टर मजिस्ट्रेट? ‘और उसकी गोली मारकर हत्या कर दी।समकालीन पश्चिमी पत्र-पत्रिकाओं ने हत्या को अर्ल आफ विलिंगडन द्वारा एक जारी एक अध्यादेश जिसमें भाषण की स्वतंत्रता सहित भारतीयों के नागरिक अधिकारों को दबा दिया गया था, के खिलाफ भारतीयों के आक्रोश के रूप में चित्रित किया, जबकि राष्ट्रवादी भारतीय स्रोतों ने इस हत्या को महिलाओं के खिलाफ ब्रिटिश जिला मजिस्ट्रेटों द्वारा किए जा रहे दुर्व्यवहार की प्रतिक्रिया के रूप में वर्णित किया। इस घटना के पश्चात शांति घोष और सुनीति चौधरी को मजिस्ट्रेट की हत्या के जुर्म में गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चलाया गया। कम उम्र होने के कारण दोनों को आजन्म कारावास की सजा सुनाई गई। यही नहीं जेल में उन्हें उनकी साथी सुनीति से अलग बैरक में रखा गया। करीब सात वर्ष जेल में गुजारने के पश्चात वर्ष 1939 में शांति घोष को राजनैतिक बंदी होने के कारण जेल से रिहा कर दिया गया।
जेल से छूटने के बाद शांति ने अपने अव्यवस्थित जीवन को व्यवस्थित करने के लिए अपनी पढ़ाई पुन: आरंभ की। इसके साथ ही वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सदस्य भी बन गईं। इसके पश्चात वर्ष 1942 में उन्होंने चटगांव (अब बांग्लादेश में) के रहने वाले क्रांतिकारी प्रोफेसर चितरंजन दास से विवाह कर लिया। देश की स्वाधीनता के बाद वह राजनीतिक गतिविधियों में निरंतर जुड़ी रहीं। इसी के परिणामस्वरुप वह वर्ष 1952-62 और 1967-68 तक क्रमश: बंगाल विधानसभा और विधान परिषद की सदस्या रहीं। शांति घोष ने बांग्ला भाषा में अपनी आत्मकथा अरुण बहनी भी लिखी।देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वाली यह वीरांगना अपने जीवन के करीब 73 बसंत मातृभूमि की सेवा में व्यतीत करने के पश्चात 28 मार्च 1989 को चिरनिद्रा में चली गई। शांति घोष के साहसिक कार्य को भारतीय जनमानस तक पहुंचाने के लिए वर्ष 2010 में ये ‘मदर’ नामक एक फिल्म का निर्माण भी किया गया।
लेखक गेराल्डिन फोर्ब्स ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय महिला और स्वतंत्रता आंदोलन’ में शांति घोष और सुनीति चौधरी से की गई बातचीत का वर्णन करते हुए एक कविता’ तू अब आजाद ‘और ‘प्रसिद्ध है’ के साथ दोनों क्रांति पुत्रियों की फोटो भी छापी। शांति घोष और सुनीति चौधरी द्वारा देश की स्वाधीनता में दिए गए योगदान के लिए हम भारतवासी सदैव उनके ऋणी रहेंगे। ये केवल इसलिए ही स्मरणीय नहीं है कि इन्होने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया वरन ये इसलिए भी स्मरण करने योग्य है कि इन दोनों ने विपरीत परिस्थितियों में अपना मनोबल बनाए रखा । इन दोनों ने कारागार से मुक्त होने पर अपनी पढ़ाई पूरी की और सक्रिय रूप से सामाजिक कार्यो में संलिप्त रही। एक चिकित्सक के रुप में सुनीति चौधरी ने और एक जनप्रतिनिधि के रुप में शांति घोष ने समाज की अंतिम समय तक सेवा की। ऐसी विभूतियां हमारी प्रेरणास्रोत होती है अतः इनको याद रखना और भावी पीढ़ी का इनसे परिचय करवाना हमारा दायित्व है।
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