गिद्धों की गिरती संख्या से हर साल एक लाख लोगों की मौत
_Ranjna mishra (breaking news express)__________________________________
गिद्ध प्रकृति के सफाईकर्मी के रूप में जाने जाते हैं, जो मृत जानवरों को खाकर पर्यावरण को स्वच्छ रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। गिद्ध मरे हुए जीव खाने वाले पक्षियों की 22 प्रजातियों में से एक है, जो मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पाई जाती हैं। दुनिया में गिद्धों की कई प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनका आकार और रंग अलग-अलग होता है। भारतीय गिद्धों का रंग भूरा होता है और उनके सिर पर थोड़े से बाल होते हैं। भारतीय गिद्धों के पंखों का फैलाव करीब 1.96 से 2.38 मीटर तक होता है और शरीर की लंबाई 75 से 85 सेंटीमीटर तक होती है। इनकी चोंच घुमावदार होती है जो मरे हुए जानवरों का मांस फाड़ने के काम आती है। गिद्ध अक्सर झुंड में रहते हैं। उन्हें अक्सर मृत जानवरों की तलाश में ऊंचाई पर उड़ते हुए देखा जा सकता है। दुर्भाग्य से दुनिया भर में गिद्धों की संख्या तेजी से घट रही है। कई मानवीय गतिविधियों जैसे कि शिकार, प्रदूषण और औषधियों के दुष्प्रभावों के कारण गिद्धों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है।
पिछले कुछ दशकों में भारत में गिद्धों की संख्या में चिंताजनक गिरावट देखी गई है। यह गिरावट, जो लगभग 97 फीसदी की कमी को दर्शाती है, गिद्धों के लिए एक विनाशकारी संकट है और ये पर्यावरण के लिए गंभीर परिणामों का संकेत देती है। इस गिरावट के पीछे मुख्य कारण पशुओं में दर्द निवारक के रूप में इस्तेमाल होने वाली डिक्लोफेनाक नामक दवा का इस्तेमाल रहा है। गिद्ध जब डिक्लोफेनाक युक्त मृत जानवरों का मांस खाते हैं, तो उनमें जहर फैल जाता है, जिससे उनकी मृत्यु हो जाती है। इस खतरे को देखते हुए, भारत सरकार ने 2006 में “प्रोजेक्ट गिद्ध” की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य गिद्धों की घटती आबादी को बचाना और बढ़ाना है। इस योजना के तहत, डिक्लोफेनाक के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। इसके अलावा गिद्ध संरक्षण केंद्र स्थापित किए गए हैं और जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं। गिद्धों की प्रजनन दर धीमी होती है, इसलिए उनके संरक्षण के तत्काल उपाय करने की आवश्यकता है।
पिछले 30 वर्षों में भारत में गिद्धों की संख्या में बहुत तेजी से गिरावट आई है। हाल में हुए एक अध्ययन से पता चलता है कि घटते गिद्धों की वजह से भारत में हर साल लगभग एक लाख लोगों की मौत हो रही है। इस अध्ययन के मुताबिक 1990 के दशक में भारत में गिद्धों की संख्या 5 करोड़ से ज्यादा थी, जो अब घटकर महज 50-60 हजार रह गई है। कुछ प्रजातियों के गिद्ध तो 99.9 प्रतिशत तक कम हो गए हैं। इस अध्ययन में पाया गया है कि गिद्धों की कमी के कारण रोगजनकों, जैसे कि रेबीज और एंथ्रेक्स के प्रसार में वृद्धि हुई है। दरअसल गिद्ध प्राकृतिक रूप से मृत जानवरों को खाकर पर्यावरण को साफ करते हैं, जिससे बीमारियों को फैलने से रोकने में मदद मिलती है, लेकिन उनकी संख्या में कमी के कारण मृत जानवर सड़ रहे हैं, जिससे वे हानिकारक रोगाणुओं के लिए प्रजनन स्थल बन रहे हैं। अध्ययनकर्ताओं का अनुमान है कि गिद्धों की कमी के कारण होने वाली अतिरिक्त मौतें मुख्य रूप से रोगजनकों से होने वाली बीमारियों के कारण होती हैं। गिद्धों की कमी से सड़न और कीटों में भी वृद्धि हुई है, जो स्वास्थ्य समस्याओं का एक और स्रोत है।
भारत में गिद्धों की नौ प्रजातियाँ पाई जाती हैं। ओरिएंटल सफेद पीठ वाला गिद्ध, लम्बी चोंच वाला गिद्ध, पतली चोंच वाला गिद्ध, हिमालयन गिद्ध, लाल सिर वाला गिद्ध, मिस्री गिद्ध, दाढ़ी वाला गिद्ध, सिनेरियस गिद्ध और यूरेशियन ग्रिफ़ॉन। इनमें से अधिकांश प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। इनमें से दाढ़ी वाले, लंबी चोंच वाले, पतली चोंच वाले और ओरिएंटल सफेद पीठ वाले गिद्धों को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 की अनुसूची-1 के तहत संरक्षण दिया गया है, जबकि शेष प्रजातियों को ‘अनुसूची IV’ के तहत संरक्षित किया गया है। ओरिएंटल सफेद पीठ वाला गिद्ध भारत में सबसे आम गिद्ध प्रजाति है, जो अब गंभीर रूप से लुप्तप्राय है। लम्बी चोंच वाला गिद्ध भी गंभीर रूप से लुप्तप्राय है और मुख्य रूप से हिमालय और उत्तर-पूर्वी भारत में पाया जाता है। पतली चोंच वाला गिद्ध भी गंभीर रूप से लुप्तप्राय है और पूरे भारत में पाया जाता है। हिमालयन गिद्ध निकट-संकटग्रस्त प्रजाति है और हिमालय और आसपास के क्षेत्रों में पाया जाता है। लाल सिर वाला गिद्ध गंभीर रूप से लुप्तप्राय है और मुख्य रूप से दक्षिण भारत में पाया जाता है। मिस्र गिद्ध लुप्तप्राय प्रजाति है और पूरे भारत में पाई जाती है। दाढ़ी वाला गिद्ध संकटग्रस्त प्रजाति है और मुख्य रूप से हिमालय और पश्चिमी भारत में पाया जाता है। सिनेरियस गिद्ध संकटग्रस्त प्रजाति है और दक्षिण भारत में पाई जाती है। यूरेशियन ग्रिफॉन कम चिंता का विषय है और हिमालय और उत्तर-पश्चिमी भारत में पाया जाता है।
गिद्धों की संख्या में कमी के पीछे कई कारक हैं, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण है, डिक्लोफेनाक नामक एक पशु चिकित्सा दवा का उपयोग। गायों और भैंसों में दर्द और सूजन को कम करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाली इस दवा के प्रति गिद्ध अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। जब वे डिक्लोफेनाक से प्रभावित मृत मवेशियों का मांस खाते हैं तो यह उनके गुर्दे को नुकसान पहुंचाता है और उन्हें मार देता है। यह गिद्धों की आबादी में गिरावट में योगदान देने वाला एक महत्वपूर्ण कारक रहा है। भारत सरकार ने डिक्लोफेनाक के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है, लेकिन यह अभी भी अवैध रूप से इस्तेमाल किया जा रहा है। गिद्धों की गिरावट के अन्य कारणों में आवास का नुकसान, भोजन की कमी, विषाक्तता, शिकार, विद्युत लाइनों से टकराना आदि शामिल हैं। दरअसल मानवजनित गतिविधियों जैसे जंगलों की कटाई और शहरीकरण के कारण गिद्धों के प्राकृतिक आवास नष्ट हो रहे हैं। मवेशियों की संख्या में कमी से गिद्धों के लिए भोजन कम हो रहा है। कीटनाशकों और अन्य जहरीले पदार्थों का उपयोग भी गिद्धों के लिए हानिकारक हो सकता है। कुछ क्षेत्रों में गिद्धों का शिकार भी किया जाता है, खासकर उनके पंखों और हड्डियों के लिए, जिनका उपयोग पारंपरिक दवाओं में किया जाता है। गिद्ध अक्सर बिजली की लाइनों से टकराकर मर जाते हैं।
गिद्धों की घटती संख्या का पर्यावरण और समाज पर व्यापक और जटिल प्रभाव पड़ सकता है। गिद्ध प्राकृतिक रूप से मृत जानवरों को खाकर पर्यावरण को साफ करते हैं, जिससे बीमारियों को फैलने से रोकने में मदद मिलती है। उनकी संख्या में कमी से मृत जानवरों का ढेर जमा हो रहा है, जिससे बीमारियों का खतरा बढ़ रहा है। साथ ही हवा और पानी की गुणवत्ता भी प्रभावित हो रही है। इससे पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ सकता है। दरअसल मृत जानवरों के शव सड़ने से बीमारियां फैल सकती हैं, जो मनुष्यों के लिए भी खतरा पैदा कर सकती हैं। गिद्ध इन शवों को खाकर इन बीमारियों को फैलाने वाले जीवाणुओं और वायरस को नष्ट करते हैं। गिद्ध मृत जानवरों को खाकर पोषक तत्वों को पुनर्चक्रित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनकी कमी से मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी हो सकती है, जिससे वनस्पतियों और जीवों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। गिद्धों की कमी से अन्य जानवरों की प्रजातियों पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, जो मृत जानवरों के शवों पर निर्भर करते हैं, जैसे कि सियार, गीदड़, और कीड़े। गिद्धों की अनुपस्थिति में, मृत जानवरों के शवों को जलाना या दफनाना पड़ सकता है, जिससे प्रदूषण और स्वास्थ्य संबंधी खतरे पैदा हो सकते हैं। गिद्धों की घटती संख्या एक गंभीर समस्या है, जिसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। इनकी रक्षा के लिए तत्काल और ठोस कदम उठाए जाने चाहिए।
गिद्धों को बचाने के लिए एक व्यापक और बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इन महत्वपूर्ण प्रजातियों की रक्षा के लिए सरकारों, गैर-सरकारी संगठनों, समुदायों और व्यक्तियों को मिलकर काम करना होगा। यह याद रखना जरूरी है कि गिद्धों को बचाने का प्रयास केवल पर्यावरण के लिए ही नहीं, बल्कि मानव स्वास्थ्य और समाज के लिए भी महत्वपूर्ण है। गिद्धों की घटती संख्या को रोकने और इनकी प्रजातियों को बचाने के लिए कई महत्वपूर्ण उपाय किए जा सकते हैं। 2006 में भारत सरकार ने पशुओं में डिक्लोफेनाक के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन अभी भी इसका उपयोग अवैध रूप से हो रहा है। इस दवा के अवैध उपयोग पर रोकथाम जारी रखना बहुत जरूरी है। वैकल्पिक दर्द निवारक दवाओं को विकसित करने और बढ़ावा देने की भी आवश्यकता है, जो गिद्धों के लिए सुरक्षित हैं। गिद्धों के प्राकृतिक आवासों, जैसे कि जंगलों और घास के मैदानों को संरक्षित करना जरूरी है। शहरीकरण और कृषि विस्तार से इन आवासों का नुकसान गिद्धों की संख्या में गिरावट का एक प्रमुख कारण है। गिद्धों की घटती संख्या को रोकने के लिए वृक्षारोपण और वनीकरण कार्यक्रमों को बढ़ावा देना चाहिए। घायल या बीमार गिद्धों के इलाज और पुनर्वास के लिए गिद्ध संरक्षण केंद्रों की स्थापना और समर्थन करना आवश्यक है। ये केंद्र गिद्धों के प्रजनन और अनुसंधान कार्यक्रमों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। भारत में कई गिद्ध संरक्षण केंद्र हैं, जहां घायल गिद्धों का इलाज किया जाता है और स्वस्थ गिद्धों को प्रजनन के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। किंतु इसमें और अधिक वृद्धि की आवश्यकता है। लोगों को गिद्धों के महत्व को समझाने और उन्हें बचाने के तरीकों के बारे में शिक्षित करने के लिए जागरूकता अभियान चलाना बहुत जरूरी है। इस अभियान के अंतर्गत स्कूलों, समुदायों और नीति निर्माताओं को लक्षित करने वाले कार्यक्रमों का आयोजन किया जा सकता है। वन्यजीव संरक्षण कानूनों को सख्ती से लागू करना आवश्यक है, जिसमें गिद्धों और उनके आवासों की रक्षा करने वाले कानून भी शामिल हों। अवैध शिकार और व्यापार पर रोकथाम के लिए कड़े दंड लागू किए जाने चाहिए। गिद्ध एक प्रवासी प्रजाति है, इसलिए इनकी रक्षा के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग महत्वपूर्ण है। इसके लिए पड़ोसी देशों के साथ मिलकर काम करना होगा और गिद्धों के संरक्षण के लिए रणनीतियां साझा करनी होंगी। गिद्धों को बचाकर, हम न केवल एक अद्वितीय और महत्वपूर्ण प्रजाति की रक्षा कर सकते हैं, बल्कि अपने पर्यावरण और स्वयं के स्वास्थ्य की भी रक्षा कर सकते हैं।